ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त २५ ऋषिः वसूयव आत्रेयाः देवता - अग्नि । छंद -अनुष्टुप अच्छा वो अग्निमवसे देवं गासि स नो वसुः । रासत्पुत्र ऋषूणामृतावा पर्षति द्विषः ॥१॥ हे यजमानो ! अपनी रक्षा की कामना से आप दिव्य अग्निदेव का स्तवन करें। वे अग्निदेव हमें आश्रय-स्थान प्राप्त करायें। ऋषियों द्वारा पुत्र रूप में पोषित, सत्य-स्वरूप वे अग्निदेव हमें शत्रुओं से पार लगायें ॥१॥ स हि सत्यो यं पूर्वे चिद्देवासश्चिद्यमीधिरे । होतारं मन्द्रजिह्वमित्सुदीतिभिर्विभावसुम् ॥२॥ पूर्वकाल के ऋषियों और देवों ने जिन अग्निदेव को प्रज्वलित किया था। जो अग्निदेव देवों के आह्वानकर्ता, प्रसन्नतादायी जिह्वा (ज्वाला) वाले, उत्तम दीप्तियों वाले तथा शुभ प्रभा वाले हैं। वे अग्निदेव सत्य- संकल्पों से अटल हैं ॥२॥ स नो धीती वरिष्ठया श्रेष्ठया च सुमत्या । अग्ने रायो दिदीहि नः सुवृक्तिभिर्वरेण्य ॥३॥ है अग्निदेव ! आप उत्तम स्तोत्रों द्वारा स्तुति किये जाने वाले और वरणीय हैं। आप अपनी श्रेष्ठ धारणायुक्त और उत्कृष्ट बुद्धि से हमारे हव्यादियुक्त स्तोत्र से संतुष्ट होकर हमें ऐश्वर्य प्रदान करें ॥३॥ अग्निर्देवेषु राजत्यग्निर्मर्तेष्वाविशन् । अग्निर्नो हव्यवाहनोऽग्निं धीभिः सपर्यत ॥४॥ जो अग्निदेव, देवों में प्रतिष्ठित हैं और मनुष्यों के आवाहन से उनके बीच भी प्रविष्ट हैं। जो देवों के लिए हव्यादि पदार्थ वहन करने वाले हैं। हे यजमानो ! उने अग्निदेव की आप बुद्धिपूर्वक स्तुतियों द्वारा सेवा करें ॥४॥ अग्निस्तुविश्रवस्तमं तुविब्रह्माणमुत्तमम् । अतूर्त श्रावयत्पतिं पुत्रं ददाति दाशुषे ॥५॥ अग्निदेव हविदाता यजमानों को ऐसा पुत्र दें, जो विविध अन्नों से युक्त, बहुत स्तोत्र करने वाला, उत्तम, अवध्य और उत्तम कर्मों से पूर्वनों का यश बढ़ाने वाला हो ॥५॥ अग्निर्ददाति सत्पतिं सासाह यो युधा नृभिः । अग्निरत्यं रघुष्यदं जेतारमपराजितम् ॥६॥ अग्निदेव हम लोगों को ऐसा पुत्र हैं, जो हमारा साथ देने वाला, शत्रुओं को परास्त करने वाला और सत्यपालक हो। साथ ही अग्निदेव हमें शत्रु-विजेता, अपराजेय, द्रुतगामी अश्व भी प्रदान करें ॥६॥ यद्वाहिष्ठं तदग्नये बृहदर्च विभावसो । महिषीव त्वद्रयिस्त्वद्वाजा उदीरते ॥७॥ अग्निदेव की शीघ्र प्रभावकारी स्तोत्रों से स्तुति की जाती हैं। वे दीप्तिमान् अग्निदेव, हमें अपरिमित धन-धान्य प्रदान करने की कृपा करें ॥७॥ तव द्युमन्तो अर्चयो ग्रावेवोच्यते बृहत् । उतो ते तन्यतुर्यथा स्वानो अर्त त्मना दिवः ॥८॥ हे अग्निदेव ! आपकी शिखायें सर्वत्र दीप्ति से युक्त हैं। आप सोमलता कूटने वाले पाषाण की तरह महत्ता से युक्त हैं। आप स्वयं प्रकाश से युक्त हैं। आप मेघ गर्जन के सदृश शब्द से युक्त हैं ॥८॥ एवाँ अग्निं वसूयवः सहसानं ववन्दिम । स नो विश्वा अति द्विषः पर्षन्नावेव सुक्रतुः ॥९॥ हम धन के अभिलाषी मनुष्य बलवान् अग्निदेव की स्तोत्रों से भली प्रकार स्तुति करते हैं। ये उत्तमकर्मा अग्निदेव हम लोगों को शत्रुओं से वैसे ही पार करें, जैसे नाव नदी से पार कर देती है ॥९॥

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