Sriramarahasyopnishat Chapter 4 (श्रीरामरहस्योपनिषत् चतुर्थो ध्यायः चौथा अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्रीरामरहस्योपनिषत् ॥ ॥ चतुर्थो ध्यायः चौथा अध्याय ॥ सनकाद्या मुनयो हनूमन्तं पप्रच्छुः । श्रीराममन्त्राणां पुरश्चरणविधिमनुब्रूहीति । हनूमान्होवाच । नित्यं त्रिषवणस्नायी पयोमूलफलादिभुक् । अथवा पायसाहारो हविष्यान्नाद एव वा ॥ १॥ सनकादि ऋषियों ने हुनमान जी से पूछा- आप श्रीराम मन्त्रों के पुरश्चरण का विधान बताइये। हनुमान् जी ने बताया- नित्य त्रिकाल स्नान करे। दूध फल मूल आदि भोजन करो। केवल दूध ही पिये। अथवा यज्ञ के अन्नों का ही भोजन करे। ॥ १॥ षड्सैश्च परित्यक्तः स्वाश्रमोक्तविधिं चरन् । वनितादिषु वाक्कर्ममनोभिर्निःस्पृहः शुचिः ॥ २॥ भूमिशायी ब्रह्मचारी निष्कामो गुरुभक्तिमान् । स्नानपूजाजपध्यानहोमतर्पणतत्परः ॥ ३॥ ब्रह्मचर्य आदि जिस आश्रम में ही उस की विधि का निर्वाह करते हुये भोजन के ६ रसों का त्याग कर दे। वाणी कर्म मन्त्र से स्त्री संसर्ग से दूर रहकर पवित्र रहे। गुरु में आस्था कर, पृथ्वी पर सोने वाला, कामना रहित, ब्रह्मचारी होकर स्नान पूजा जप, ध्यान, होम, तप्रण में तत्पर रहे। ॥२-३॥ गुरूपदिष्टमार्गेण ध्यायत्राममनन्यधीः । सूर्येन्दुगुरुदीपादिगोब्राह्मणसमीपतः ॥ ४॥ श्रीरामसन्निधौ मौनी मन्त्रार्थमनुचिन्तयन् । व्याघ्रचर्मासने स्थित्वा स्वस्तिकाद्यासनक्रमात् ॥ ५॥ गुरु की शिक्षा के अनुसार अन्यत्र से मन हटाकर, श्री राम जी का ध्यान करे। सूर्य-चंद्र अर्थात दिन रात, गुरु दीपक, गौ ब्राह्मण के समीप ही रहे। सहरे राम के सम्मुख मंत्र के अर्थ का चिंतन करते हुए मौन ही रहे। व्याघ्र चरम के आसान पर स्वस्तिक आदि आसन मुद्रा से बैठ जाए ॥४ -५ ॥ तुलसीपारिजातश्रीवृक्षमूलादिकस्थले । पद्माक्षतुलसीकाष्ठरुद्राक्षकृतमालया ॥ ६॥ मातृकामालया मन्त्री मनसैव मनुं जपेत् । अभ्यर्च्य वैष्णवे पीठे जपेदक्षरलक्षकम् ॥ ७॥ तुलसी-पारिजात-बेल नृक्ष के नीचे या समीप बैठाकर साधक कमलाक्ष, तुलसी या रुद्राक्ष माला से भातृका अक्षित मंत्र जप करना चाहिए। मानसिक जप श्रेष्ठ है। मंत्र के जितने आकार हों उतने लाख जप करने पर पुरश्चरण होता है। ॥६-७॥ तर्पयेत्तद्दशांशेन पायसात्तद्दशांशतः । जुहुयाद्गोघृतेनैव भोजयेत्तद्दशांशतः ॥ ८॥ जप के बाद मंत्र संख्या का दशांश, हवन, पायस या गोधृत से करना चाहिए। हवन का दशांश तप्रण उसका दशांश, मार्जन उसका दशांश, ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए । ॥८॥ ततः पुष्पाञ्जलिं मूलमन्त्रेण विधिवच्चरेत् । ततः सिद्धमनुर्भूत्वा जीवन्मुक्तो भवेन्मुनिः ॥ ९॥ फिर मूल मंत्र से विधिवत पुष्पांजलि देना चाहिए। इस प्रकार मंत्र सिद्ध हो जाता है और जापक जीवनमुक्त हो जाता है। ॥ ९॥ अणिमादिर्भजत्येनं यूनं वरवधूरिव । ऐहिकेषु च कार्येषु महापत्सु च सर्वदा ॥ १०॥ नैव योज्यो राममन्त्रः केवलं मोक्षसाधकः । ऐहिके समनुप्राप्ते मां स्मरेद्रामसेवकम् ॥ ११॥ युवा को जैसे उत्तम वधू चाहती है उसी प्रकार अणिमा आदि सिद्धियां साधक को प्राप्त हो जाती है। किन्तु सांसारिक कार्यों की सिद्धि के लिए या आपत्ति निवारण के लिए राम मन्त्र का प्रयोग करना उचित नहीं है, मोक्ष साधना के लिए है इसका अनुष्ठान करना चाहिए। यदि सांसारिक कार्य सिद्ध करना हो तब तो राम के सेवक मुख हनुमान का स्मरण करना चाहिए। ॥१०-११॥ यो रामं संस्मरेन्नित्यं भक्त्या मनुपरायणः । तस्याहमिष्टसंसिद्धयै दीक्षितोऽस्मि मुनीश्वराः ॥ १२॥ मुनीश्वरों! जो नित्य राम का स्मरण करता है, भक्तिभाव से मन्त्र जप करता है उसकी अभीष्ट सिद्धि के लिए मैं सद्य तत्पर रहता हूँ। ॥१२॥ वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि भक्तानां राघवस्य तु । सर्वथा जागरूकोऽस्मि रामकार्यधुरन्धरः ॥ १३॥ राघव के भक्तों को मैं अभीष्ट वर प्रदान करता रहूंगा। क्योंकि रामकार्य करने के लिए मैं सदा सावधान रहता हूँ।१३।। इति रामरहस्योपनिषदि चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ रामरहस्योपनिषद् चतुर्थाध्याय पूर्ण हुआ।

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