ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४६ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप त्रिमूर्धानं सप्तरश्मिं गृणीषेऽनूनमग्निं पित्रोरुपस्थे । निषत्तमस्य चरतो ध्रुवस्य विश्वा दिवो रोचनापप्रिवांसम् ॥१॥ हे मनुष्यो ! आप सभी माता-पिता के समान पृथ्वी और दिव्यलोक के बीच गोद में विराजमान, तीन मस्तकों से युक्त (प्रातः- मध्याह्न और सायं ये तीन सवन ही अग्नि के तीन शीश हैं) सात छन्दरूप सात ज्वालाओं से युक्त (काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, उमा और प्रदीप्ता ये सात अग्नि की ज्वालाएँ हैं) सबको पूर्णता प्रदान करने वाले इन अग्निदेव की प्रार्थना करें। दिव्य लोक से संचरित होने वाला इनका दिव्य तेज़समूह सभी जड़ और चेतन सृष्टि में संव्याप्त हो रहा है॥१॥ उक्षा महाँ अभि ववक्ष एने अजरस्तस्थावितऊतिऋष्वः । उर्व्याः पदो नि दधाति सानौ रिहन्त्यूधो अरुषासो अस्य ॥२॥ महान् शौर्यवान् अग्निदेव इस द्युलोक और पृथ्वीलोक को सभी ओर से संव्याप्त करते हैं। सदा युवा रहने वाले पूजनीय अग्निदेव अपने संरक्षण साधनों से सम्पन्न होकर विराजमान हैं। भूमि के शीर्ष पर अपने पैरों को रखकर खड़े हुए इनकी प्रदीप्त ज्वालाएँ आकाश में सर्वत्र फैलती हैं॥२॥ समानं वत्समभि संचरन्ती विष्वग्धेनू वि चरतः सुमेके । अनपवृज्याँ अध्वनो मिमाने विश्वान्केताँ अधि महो दधाने ॥३॥ एक ही अग्नि रूपी पुत्र को उत्पन्न करने वाली, मार्गों को प्रकाशित करके उन्हें जाने योग्य बनाती हुई, सभी प्रकार की ज्ञान सम्पदा को व्यापकरूप में धारण करती हुई, उत्तम दर्शन योग्य दो गौएँ (अग्नि सम्वर्धन करने वाली यजमान दम्पती रूप) चारों ओर विचरण कर रही हैं॥३॥ धीरासः पदं कवयो नयन्ति नाना हृदा रक्षमाणा अजुर्यम् । सिषासन्तः पर्यपश्यन्त सिन्धुमाविरेभ्यो अभवत्सूर्यो नृन् ॥४॥ धैर्य युक्त एवं मेधावी मनुष्य, विभिन्न प्रकार के साधनों से भावनापूर्वक अग्नि की रक्षा करते हुए उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाते हैं। जब अग्नि की कामना करने वाले मनुष्यों ने समुद्र के जल को चारों ओर देखा, तब ऐसे मनुष्यों के लिए सूर्य प्रकाश रूप में प्रकट हुए ॥४॥ दिदृक्षेण्यः परि काष्ठासु जेन्य ईळेन्यो महो अर्भाय जीवसे । पुरुत्रा यदभवत्सूरहैभ्यो गर्भेभ्यो मघवा विश्वदर्शतः ॥५॥ सभी दिशाओं में संव्याप्त होने एवं सदा विजयी होने से ये अग्निदेव प्रशंसा योग्य हैं। ये छोटे और बड़े सभी प्राणियों को जीवनी शक्ति देने वाले हैं। अतः विभिन्न सम्पदाओं के स्वामी और सबके प्रकाशक ये अग्निदेव बीजरूप में बोये गये (गर्भस्थ) पदार्थों के उत्पत्ति के मूल कारण हैं॥५॥

Recommendations