ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ९१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ९१ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- सोमः । छंद - त्रिष्टुप, ५-१६ गायत्री, १७ उषणिक त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम् । तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीराः ॥१॥ हे सोमदेव ! हम अपनी बुद्धि से आपको जान सकें । आप हमें उत्तम मार्ग पर चलाते हैं। आपके नेतृत्व में आपका अनुगमन करके हमारे पूर्वज, देवों से रमणीय सुख प्राप्त करने में सफल हुए थे ॥१॥ त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूस्त्वं दक्षैः सुदक्षो विश्ववेदाः । त्वं वृषा वृषत्वेभिर्महित्वा द्युम्नेभिर्युम्न्यभवो नृचक्षाः ॥२॥ हे सोमदेव ! आप अनेक कर्मों का सम्पादन करने वाले होने से सुकर्मा रूप में प्रसिद्ध हैं। सबको जानने वाले आप अनेक कर्मों में कुशल होने से उत्तम दक्ष हैं। आप अनेक बलों के युक्त होने से महाबली हैं। आप अनेकों तेजस्वी धनों से युक्त वैभव सम्पन्न हैं॥२॥ राज्ञो नु ते वरुणस्य व्रतानि बृहद्गभीरं तव सोम धाम । शुचिष्टुमसि प्रियो न मित्रो दक्षाय्यो अर्यमेवासि सोम ॥३॥ हे सोमदेव ! आप अत्यन्त पवित्र हैं। आपका धाम बड़ा विस्तृत और भव्य हैं। राजा वरुण के सभी नियमों से आप मुक्त हैं। आप मित्र के समान प्रीति-कारक और अर्यमा के समान अति कुशल हैं॥३॥ या ते धामानि दिवि या पृथिव्यां या पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु । तेभिर्नो विश्वः सुमना अहेळत्राजन्त्सोम प्रति हव्या गृभाय ॥४॥ हे राजा सोम ! आपके उत्तम स्थान आकाश में, पृथ्वी के ऊपर पर्वता म, ओषधियों में और जलों में है। आप उन सम्पूर्ण स्थानों से द्वेष रहित प्रसन्न मन से यहाँ आकर हमारी हवियों को ग्रहण करें ॥४॥ त्वं सोमासि सत्पतिस्त्वं राजोत वृत्रहा । त्वं भद्रो असि क्रतुः ॥५॥ हे सोमदेव ! आप श्रेष्ठ अधिपति हैं। आप सबके नेतृत्वकर्ता और पोषक हैं। आप वृत्र-नाशक और कल्याणकारी बल के प्रकट रूप हैं॥५॥ त्वं च सोम नो वशो जीवातुं न मरामहे । प्रियस्तोत्रो वनस्पतिः ॥६॥ हे सोमदेव ! आप हमारे दीर्घजीवन के लिए प्रशंसनीय ओषधिरूप है। आपकी अनुकूलता से हम मृत्यु से बच सकेंगे ॥६॥ त्वं सोम महे भगं त्वं यून ऋतायते । दक्षं दधासि जीवसे ॥७॥ हे सोमदेव ! आप महान् यज्ञ का सम्पादन करने वाले, तरुण उपासकों को उत्तम जीवन के लिए बल और सौभाग्य प्रदान करते हैं॥७॥ त्वं नः सोम विश्वतो रक्षा राजन्नघायतः । न रिष्येत्त्वावतः सखा ॥८॥ हे राजा सोमदेव ! आप जिसकी रक्षा करते हैं, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। आप दुष्ट पापियों से सब प्रकार हमारी रक्षा करें ॥८॥ सोम यास्ते मयोभुव ऊतयः सन्ति दाशुषे । ताभिर्नोऽविता भव ॥९॥ हे सोमदेव ! हविदाता के सुखद जीवन के लिए अपने रक्षण-सामथ्र्यो से उसकी रक्षा करें ॥९॥ इमं यज्ञमिदं वचो जुजुषाण उपागहि । सोम त्वं नो वृधे भव ॥१०॥ हे सोमदेव ! आप इस यज्ञ में हमारी इन स्तुतियों को स्वीकार करें। हमारे पास आयें और हमारी वृद्धि करें ॥१०॥ सोम गीर्भिष्टा वयं वर्धयामो वचोविदः । सुमृळीको न आ विश ॥११॥ स्तुति वचनों के ज्ञाता हे सोमदेव ! हम अपनी वाणियों से आपको बढ़ाते हैं। आप हमारे बीच सुख-साधनों को लेकर प्रविष्ट हों ॥११॥ गयस्फानो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । सुमित्रः सोम नो भव ॥१२॥ हे सोमदेव ! आप हमारी वृद्धि करने वाले, रोगों का नाश करने वाले, धन देने वाले, पुष्टि वर्धक और उत्तम मित्र बनें ॥१२॥ सोम रारन्धि नो हृदि गावो न यवसेष्वा । मर्य इव स्व ओक्ये ॥१३॥ हे सोमदेव ! गौएँ जैसे जौ के खेत में और मनुष्य जैसे अपने घर में रमण करता है, वैसे आप हमारे हृदय में रमण करें ॥१३॥ यः सोम सख्ये तव रारणदेव मर्त्यः । तं दक्षः सचते कविः ॥१४॥ हे सोमदेव ! जो याजक आपकी मित्रता से युक्त रहता है, वहीं मेधावी और कुशल ज्ञानी हो जाता है॥१४॥ उरुष्या णो अभिशस्तेः सोम नि पाह्यंहसः । सखा सुशेव एधि नः ॥१५॥ हे सोमदेव ! हमें अपयश से बचायें। पापों से हमें रक्षित करें और हमारे निमित्त सुखकारी मित्र बनें ॥१५॥ आ प्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम् । भवा वाजस्य संगथे ॥१६॥ हे सोमदेव ! आप वृद्धि को प्राप्त हों। आप सभी ओर से बलों से युक्त हों। संग्राम में आप हमारे सहायक रूप हों ॥१६॥ आ प्यायस्व मदिन्तम सोम विश्वभिरंशुभिः । भवा नः सुश्रवस्तमः सखा वृधे ॥१७॥ हे अति आह्लादक सोमदेव ! अपने दिव्य गुणों की यश गाथाओं से चतुर्दिक् विस्तार को प्राप्त करें। हमारे विकास के निमित्त मित्र रूप में आप सहयोग करें ॥१७॥ सं ते पयांसि समु यन्तु वाजाः सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाहः । आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व ॥१८॥ हे शत्रु, संहारक सोमदेव ! आप दूध, अन्न बल को धारण करें। अपने अमरत्व के लिए द्युलोक में श्रेष्ठ अन्नों (दिव्य पोषक तत्वों) को प्राप्त करें ॥१८॥ या ते धामानि हविषा यजन्ति ता ते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम् । गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान् ॥१९॥ हे सोमदेव ! यज्ञ करने वाले आपके जिन तेजों के लिए हवियाँ प्रदान करते हैं, वे सभी प्रखर यज्ञ क्षेत्र के चारों ओर रहें। घरों की अभिवृद्धि करने वाले, विपत्तियों से पार करने वाले, पुत्र पौत्रादि श्रेष्ठ वीरों से युक्त करने वाले, शत्रुओं के विनाशक, हे सोमदेव ! आप हमारी ओर आयें ॥१९॥ सोमो धेनुं सोमो अर्वन्तमाशुं सोमो वीरं कर्मण्यं ददाति । सादन्यं विदथ्यं सभेयं पितृश्रवणं यो ददाशदस्मै ॥२०॥ जो हवि (द्रव्य) का दान करता है, उसे सोमदेव गौ और अश्व देते हैं। कर्म कुशल, गृह व्यवस्था कुशल, यज्ञाधिकारी, सभा में प्रतिष्ठित, पिता का यश बढ़ाने वाला पुत्र भी सोमदेव के अनुग्रह से प्राप्त होता है॥२०॥ अषाळ्हं युत्सु पृतनासु पप्रिं स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम् । भरेषुजां सुक्षितिं सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥२१॥ हे सोमदेव ! संग्रामों में असहनीय दिखाई देने वाले, शत्रुओं पर विजय पाने वाले, विशाल सेनाओं के पालक, जलदाता, शक्ति संरक्षक, संग्रामों के विजेता, श्रेष्ठ निवास युक्त तथा कीर्तिवान् आपका हम अनुसरण करते हैं॥२१॥ त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः । त्वमा ततन्थोर्वन्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ॥२२॥ अपने तेज से अंधकार को नष्ट करने वाले एवं अंतरिक्ष को विस्तार देने वाले हे दिव्य सोमदेव ! आपने ही पृथ्वी पर सभी ओषधियों, गौओं एवं जल को उत्पन्न किया ॥२२॥ देवेन नो मनसा देव सोम रायो भागं सहसावन्नभि युध्य । मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्र चिकित्सा गविष्टौ ॥२३॥ हे दिव्य शक्ति सम्पन्न सोमदेव ! विचारपूर्वक श्रेष्ठ धन का भाग हमें प्रदान करें । दान के लिये प्रवृत्त हुए आपको कोई प्रतिबंधित नहीं करेगा, क्योंकि आप हीं अति समर्थ कार्यों के साधक हैं। स्वर्ग की कामना से युक्त हमें दोनों लोकों में सुख प्रदान करें ॥२३॥

Recommendations