ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६२ ऋषि-नोधा गौतम देवता- इन्द्र । छंद -त्रिष्टुप प्र मन्महे शवसानाय शूषमा‌ङ्गुषं गिर्वणसे अङ्गिरस्वत् । सुवृक्तिभिः स्तुवत ऋग्मियायार्चामार्क नरे विश्रुताय ॥१॥ हम इन्द्रदेव के शक्ति संवर्धक स्तवन से परिचित हैं। शक्ति की आकांक्षा युक्त, श्रेष्ठ वाणियों से सम्पन्न, ज्ञानवान्, शक्ति - पराक्रम से विख्यात इन्द्रदेव की अंगिरा के सदृश स्तुति मंत्रों से अर्चना करते हैं ॥१॥ प्र वो महे महि नमो भरध्वमा‌ङ्गुष्यं शवसानाय साम । येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा अर्चन्तो अङ्गिरसो गा अविन्दन् ॥२॥ हे ऋत्विजों ! आप महान् पराक्रमी इन्द्रदेव की प्रसन्नता के लिए स्तुति एवं सामगान करते हुए उनको नमन करें। हमारे पूर्वज ऋषियों- अंगिरा आदि ने इसी प्रकार अर्चना द्वारा तेजस्विता को प्राप्त किया था ॥२॥ इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विदत्सरमा तनयाय धासिम् । बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः समुस्रियाभिर्वावशन्त नरः ॥३॥ इन्द्रदेव और अंगिराओं की इच्छा से 'सरमा' ने अपने पुत्र के निमित्त अन्नों को प्राप्त किया। महान् देवों के स्वामी इन्द्रदेव ने असुरों को मारा और जलधाराओं को मुक्त किया। जल प्रवाहों को पाकर सभी मनुष्य हर्षित हुए ॥३॥ स सुष्टुभा स स्तुभा सप्त विप्रैः स्वरेणाद्रिं स्वर्यो नवग्वैः । सरण्युभिः फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः ॥४॥ है शक्तिशाली इन्द्रदेव! स्वर युक्त उत्तम स्तोत्रों से प्रशंसित, आपने तीव्र उत्कण्टा से की गई सप्तऋषियों की नवीन स्तुतियों को सुना। आपने ही बलशाली मेघों को मारा, जिससे देशों दिशाओं में घोर गर्जना हुई ॥४॥ गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म वि वरुषसा सूर्येण गोभिरन्धः । वि भूम्या अप्रथय इन्द्र सानु दिवो रज उपरमस्तभायः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अंगिरा ऋषियों द्वारा वर्णित स्तुतियों को प्राप्त किया। आपने दर्शनीय देवी उषा और सूर्यदेव की दीप्तिमान् रश्मियों द्वारा तमिस्रा को दूर किया। भूमि प्रदेश को विस्तृत किया । द्युलोक और अन्तरिक्ष को स्थिर किया ॥५॥ तदु प्रयक्षतममस्य कर्म दस्मस्य चारुतममस्ति दंसः । उपह्वरे यदुपरा अपिन्वन्मध्वर्णसो नद्यश्चतस्रः ॥६॥ इन्द्रदेव के अति प्रशंसनीय, सुन्दरतम और दर्शनीय कर्मों में एक यह है कि उन्होंने भूमि के ऊपरी प्रदेश में प्रवाहित चार नदियों को मधुर जल से पूर्ण किया ॥६॥ द्विता वि वने सनजा सनीळे अयास्यः स्तवमानेभिरकैः । भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसाः ॥७॥ 'अयास्य'षि के प्रशंसनीय स्तोत्रों से पूजित इन्द्रदेव ने समान रूप से मिले हुए द्युलोक को दो रूपों, पृथ्वी और आकाश में विभक्त किया । शतकर्मा इन्द्रदेव ने उत्तमरूप से व्याप्त आकाश द्वारा सूर्यदेव को धारण करने के सदृश पृथ्वी और आकाश को धारण किया ॥७॥ सनाद्दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुवा युवती स्वेभिरेवैः । कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्भिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या ॥८॥ विविध रूप वाली दो युवतियाँ उषा और रात्रि अपनी गतियों से आकाश में भूमि के चारों ओर सनातन काल से चलती आती हैं। ये कृष्ण वर्ण रात्रि और दीप्तिमती उषा पृथक् पृथक् होकर चलती हैं, अर्थात् दोनों कभी एक साथ नहीं दिखाई देती हैं ॥८ ॥ सनेमि सख्यं स्वपस्यमानः सूनुर्दाधार शवसा सुदंसाः । आमासु चिद्दधिषे पक्वमन्तः पयः कृष्णासु रुशद्रोहिणीषु ॥९॥ उत्तम वृष्टिकारक, बल के पुत्र, उत्तमकर्मा, स्तोताओं से सर्वदा मित्रता करने वाले है इन्द्रदेव ! आप अपरिपक्व गौओं में भी पौष्टिक दूध को स्थापित करते हैं। कृष्ण वर्णा, रोहित वर्ण गौओं में भी श्वेत दूध को स्थापित करते हैं॥९॥ सनात्सनीळा अवनीरवाता व्रता रक्षन्ते अमृताः सहोभिः । पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीर्दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम् ॥१०॥ सदैव साथ रहने वाली अंगुलियाँ अपने बल से अनेकों (सहस्रों) स्थिर और अविनाशी कर्मों को करती हैं। जैसे लोग पत्नी को इच्छा पूर्ण करते हैं, वैसी ही स्वयं संचालित अँगुलियाँ अबाधगति वाले इन्द्रदेव की इच्छा पूर्ति करती हैं॥१०॥ सनायुवो नमसा नव्यो अर्कैर्वसूयवो मतयो दस्म दद्रुः । पतिं न पत्नीरुशतीरुशन्तं स्पृशन्ति त्वा शवसावन्मनीषाः ॥११॥ हे दर्शनीय इन्द्रदेव ! यज्ञ और वैभव की इच्छा से ज्ञानी जन स्तोत्रों द्वारा आपका पूजन और नमन करते हैं। हे बलवान् इन्द्रदेव ! जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने पति को प्रसन्न रखती हैं, वैसे ही की गई स्तुतियाँ आपको प्रसन्नता प्रदान करती हैं॥११॥ सनादेव तव रायो गभस्तौ न क्षीयन्ते नोप दस्यन्ति दस्म । ह्युमाँ असि क्रतुमाँ इन्द्र धीरः शिक्षा शचीवस्तव नः शचीभिः ॥१२॥ हे दर्शनीय इन्द्रदेव ! सनातन काल से आप अपने हाथों में कभी नष्ट न होने वाले अक्षय ऐश्वर्य को धारण करते हैं। हे इन्द्रदेव! आप दीप्तिमान्, कर्मवान्, धैर्यवान् और सामर्थ्यवान् हैं। अपनी सामथ्र्यों से हमें धन प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान करें ॥१२॥ सनायते गोतम इन्द्र नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरियोजनाय । सुनीथाय नः शवसान नोधाः प्रातर्मक्ष धियावसुर्जगम्यात् ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! आप सनातन काल से ही स्थित हैं, उत्तम मार्गों से गमन करने वाले तथा अश्वा को नियोजित करने वाले हैं। आपकी स्तुति के लिये गौतम ऋषि के पुत्र नोधा ऋषि ने नवीन स्तोत्रा की रचना की है। बलवान्, धन की प्रेरणा देने वाले हे इन्द्रदेव! आप प्रातः काल हमारे पास शीघ्र ही आये ॥१३॥

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