ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ४३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ४३ ऋषि - कण्वो घौरः देवता- रूद्रः, मित्र वरुण। छंद- गायत्री, ९ अनुष्टुप कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्ळ्हुष्टमाय तव्यसे । वोचेम शंतमं हृदे ॥१॥ उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, अभीष्ट-वर्षी और अत्यन्त महान् रुद्र | हमारे हृदय में अवस्थान्त करते हैं। कब हम उनको लक्ष्य करके सुखकर पाठ करेंगे ? ॥१॥ यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे । यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥ जैसे व जिस प्रकार भूमि-देवता हमारे लिए, पशु के लिए, मनुष्य के लिए, गायों के लिए और हमारे अपत्य के लिए रुद्र-सम्बन्धी औषध प्रदान करें ॥२॥ यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति । यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥ मित्र, वरुण और रुद्रदेव जिस प्रकार हमारे हितार्थ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य समस्त देवगण भी हमारा कल्याण करें ॥३॥ गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् । तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥ हम सुखद जल एवं ओषधियों से युक्त, स्तुतियों के स्वामी तथा यज्ञ के स्वामी, रुद्रदेव से आरोग्य सुख की कामना करते हैं ॥४॥ यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते । श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥ सूर्य सदृश सामर्थ्यवान् और स्वर्ण सदृश दीप्तिमान् रुद्रदेव सभी देवों में श्रेष्ठ और ऐश्वर्यवान् हैं ॥५॥ शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये । नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥ हमारे अश्वों, मेढ़ों, भेड़ों, पुरुषों, नारियों और गौओं के लिये वे रुद्रदेव सब प्रकार से मंगलकारी हैं॥६॥ अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् । महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥ हे सोमदेव ! हम मनुष्यों को सैकड़ों प्रकार का ऐश्वर्य, तेजयुक्त अन्न, बल और महान् यश प्रदान करें ॥७॥ मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त । आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥ सोमयाग में बाधा देने वाले शत्रु हमें प्रताड़ित न करें। कृपण और दुष्टों से हम पीड़ित न हों। हे सोमदेव ! आप हमारे बल में वृद्धि करें ॥८॥ यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य । मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥ हे सोमदेव ! यज्ञ के श्रेष्ठ स्थान में प्रतिष्ठित आप अमृत से युक्त हैं। यजन कार्य में सर्वोच्च स्थान पर विभूषित प्रजा को आप जानें ॥९॥

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