ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५३

ऋग्वेद -प्रथम मंडल सूक्त १५३ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- मित्र वरुणौ । छंद - त्रिष्टुप यजामहे वां महः सजोषा हव्येभिर्मित्रावरुणा नमोभिः । घृतैर्घतस्नू अध यद्वामस्मे अध्वर्यवो न धीतिभिर्भरन्ति ॥१॥ परस्पर प्रीतियुक्त, विशेष तेजस्वी, हे मित्र और वरुण देवो ! आपके प्रति हमारे ऋत्विज् स्तोत्रों का गान करते हैं। हम यजमान भी महानतायुक्त आप दोनों के प्रति हव्य सहित नमन करते हैं॥१॥ प्रस्तुतिर्वा धाम न प्रयुक्तिरयामि मित्रावरुणा सुवृक्तिः । अनक्ति यद्वां विदथेषु होता सुम्नं वां सूरिर्वृषणावियक्षन् ॥२॥ हे मित्र-वरुणदेवो ! वाक्पटु हम आप दोनों की प्रार्थना करते हैं। घर (के आवश्यक सामान) की तरह आपका ध्यान करते हैं। ज्ञानी याजक आप दोनों की स्तुति करते हैं। वे आप से आनन्द की कामना करते हैं॥२॥ पीपाय धेनुरदितिक्रताय जनाय मित्रावरुणा हविर्दे । हिनोति यद्वां विदथे सपर्यन्त्स रातहव्यो मानुषो न होता ॥३॥ जब हवि को प्रदान करने वाले मननशील होता आपकी अर्चना करते हुए यज्ञ में आहुतियाँ देते हैं, तब हे मित्र और वरुण देवो ! सत्य मार्ग पर सुदृढ़ रहने वाले तथा हविष्य प्रदान करने वाले साधकों को गौएँ (आपकी पोषक किरणे) हर प्रकार के सुख प्रदान करती हैं॥३॥ उत वां विक्षु मद्यास्वन्धो गाव आपश्च पीपयन्त देवीः । उतो नो अस्य पूर्व्यः पतिर्दन्वीतं पातं पयस उस्रियायाः ॥४॥ हे मित्र और वरुण देवो! आप दोनों अन्नों, दुधारू गौओं और जलों से सभी मनुष्यों को आनन्दित करते हुए संतुष्ट करें। हमारे यज्ञ के पूर्व अधिष्ठाता अग्निदेव हमें वैभव सम्पदा प्रदान करें, पश्चात् सभी याजकगण ऐश्वर्यशाली होकर घृत की आहुतियाँ प्रदान करें ॥४॥

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