ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २२

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २२ ऋषि - गाथी कौशिकः देवता – अग्निः, ४ पुरीष्या अग्यः। छंद त्रिष्टुप, ४ अनुष्टुप अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः । सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेदः ॥१॥ सोम की अभिलाषा करने वाले इन्द्रदेव ने जिस जठर में अभिषुत सोम को धारण किया था, वे यही जातवेदो अग्निदेव ही हैं। हे जातवेदा अग्निदेव ! विविध रूपों में अश्व के सदृश वेगवान् हविष्यान्न का आप सेवन करते हैं और सबके द्वारा की गई स्तुतियों का श्रवण करते हैं॥१॥ अग्ने यत्ते दिवि वर्चः पृथिव्यां यदोषधीष्वप्स्वा यजत्र । येनान्तरिक्षमुर्वाततन्थ त्वेषः स भानुरर्णवो नृचक्षाः ॥२॥ हे यज्ञाग्ने ! आपके जिस तेज ने स्वर्गलोक को, पृथ्वी पर तेजरूप से ओषधियों को और जल में विद्युत् रूप से अतिव्यापक अन्तरिक्ष लोक को संव्याप्त किया है; हे सर्वत्र गतिमान्, जगत् प्रकाशक ! आपका वह दिव्य तेज मनुष्यों के सभी अच्छे-बुरे कर्मों को देखने वाला है॥२॥ अग्ने दिवो अर्णमच्छा जिगास्यच्छा देवाँ ऊचिषे धिष्ण्या ये । या रोचने परस्तात्सूर्यस्य याश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आपः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप दिव्य लोक के अमृतरूपी जल को उत्तम रीति से धारण करते हैं। बुद्धि के प्रेरक जो प्राण स्वरूप देव हैं; उनके समक्ष भी आप गतिशील होते हैं। प्रकाशमान सूर्यमण्डल में स्थित, सूर्य से आगे (परे) जो जल है तथा जो जल इसके नीचे है, समस्त जल में आप विराजमान हों ॥३॥ पुरीष्यासो अग्नयः प्रावणेभिः सजोषसः । जुषन्तां यज्ञमद्रुहोऽनमीवा इषो महीः ॥४॥ प्रजापालक, समान विचारशीलों में प्रीतियुक्त, द्रोह भावना से रहित, ये अग्नियाँ इस यज्ञ में आरोग्यप्रद वनौषधियों से युक्त हविष्य को पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करें ॥४॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप यज्ञादि कार्य के लिए, अनेक सत्कर्मों के लिए और गौओं के पोषण आदि के लिए हमें उत्तम भूमि प्रदान करें । हमारे पुत्र वंश की वृद्धि करने वाले हों। आपकी वह सुमति हमें भी प्राप्त हो॥५॥

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