ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ३३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ३३ ऋषिः प्राजापत्य संवरण देवता - इन्द्र, । छंद - त्रिष्टुप, महि महे तवसे दीध्ये नृनिन्द्रायेत्था तवसे अतव्यान् । यो अस्मै सुमतिं वाजसातौ स्तुतो जने समर्यश्चिकेत ॥१॥ ये इन्द्रदेव युद्धों में वीर पुरुषों से युक्त होकर अतिशय प्रकृष्ट पराक्रमों वाले जाने जाते हैं और अपनी उत्तम बुद्धि से सब मनुष्यों पर प्रभुत्व रखते और स्तुत्य होते हैं। हम निर्बल स्तोतागण मनुष्यों को बल सम्पन्न बनाने के लिए बलशाली इन्द्रदेव की प्रचुर स्तुतियाँ करते हैं ॥१॥ स त्वं न इन्द्र धियसानो अर्कैर्हरीणां वृषन्योक्त्रमश्रेः । या इत्था मघवन्ननु जोषं वक्षो अभि प्रार्यः सक्षि जनान् ॥२॥ हे इष्टवर्षक इन्द्रदेव ! आप हमारी स्तुतियों पर ध्यान देकर प्रीतिपूर्वक रथ में योजित अश्वों की लगाम हाथ में धारण करें । हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप हमारे शत्रुओं को भी उसी प्रकार वशीभूत करें ॥२॥ न ते त इन्द्राभ्यस्मदृष्वायुक्तासो अब्रह्मता यदसन् । तिष्ठा रथमधि तं वज्रहस्ता रश्मिं देव यमसे स्वश्वः ॥३॥ हे तेजस्वी इन्द्रदेव ! जो मनुष्य आपके भक्तों से भिन्न हैं और आपके साथ नहीं रहते हैं, जो ब्रह्म कर्मों से रहित हैं, वह आपके भक्त नहीं हो सकते । हे वज्रधारी इन्द्रदेव! आप हमारे यज्ञ में दीप्तिमान् और उत्तम अश्वों से युक्त उस रथ से पधारें, जिसे आप स्वयं नियंत्रित करते हैं ॥३॥ पुरू यत्त इन्द्र सन्त्युक्था गवे चकर्थोर्वरासु युध्यन् । ततक्षे सूर्याय चिदोकसि स्वे वृषा समत्सु दासस्य नाम चित् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपके अनेक वर्णनीय स्तोत्र हैं। आपने जल अवरोधकों को नष्ट कर उपजाऊ भूमि में जल वर्षण के लिए मार्ग बनाया है और हे बलवान् इन्द्रदेव ! आपने युद्ध में 'नमुचि' दास के नाम को भी विनष्ट कर दिया ॥४॥ वयं ते त इन्द्र ये च नरः शर्धी जज्ञाना याताश्च रथाः । आस्माज्ञ्जगम्यादहिशुष्म सत्वा भगो न हव्यः प्रभृथेषु चारुः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! हम सब ऋत्विज्ञ और यजमान आपके हैं। यज्ञ द्वारा आपके बल को प्रवर्धित करते हैं और आहुतियाँ प्रदान करने आपके सम्मुख उपस्थित होते हैं। हे इन्द्रदेव! आपकी शक्ति सर्वत्र संचरित है। युद्धों (जीवन समर) में भगरूप सेवक हमें आपके अनुग्रह से प्राप्त हों ॥५॥ पपृक्षेण्यमिन्द्र त्वे ह्योजो नृम्णानि च नृतमानो अमर्तः । स न एनीं वसवानो रयिं दाः प्रार्यः स्तुषे तुविमघस्य दानम् ॥६॥ आपके सम्पूर्ण बल अत्यन्त पूजनीय हैं। आप मनुष्यों में व्याप्त होकर भी अविनाशी (अमरणशील) हैं। आप अपनी सामर्थ्य से जगत् के आश्रयदाता हैं। आप हमें उज्ज्वल वर्ण के धनों. को प्रदान करें। आप अत्यन्त धन-सम्पन्न और श्रेष्ठ दाता हैं। आपके दान की हम सम्यक् स्तुति करते हैं ॥६॥ एवा न इन्द्रोतिभिरव पाहि गृणतः शूर कारून् । उत त्वचं ददतो वाजसातौ पिप्रीहि मध्वः सुषुतस्य चारोः ॥७॥ हे शूरवीर इन्द्रदेव ! हम यजमान आपकी स्तुति करते हैं और आपका यजन करते हैं। अपनी रक्षण-सामथ्र्यों से आप हमारी रक्षा करें । संग्रामों में आप आवरण (कवच) रूप में हमारी रक्षा करें। हमारे द्वारा भली प्रकार अभिषुत मधुर सोमरस को प्राप्त कर आप तृप्त हों ॥७॥ उत त्ये मा पौरुकुत्स्यस्य सूरेस्त्रसदस्योर्हिरणिनो रराणाः । वहन्तु मा दश श्येतासो अस्य गैरिक्षितस्य क्रतुभिर्नु सश्वे ॥८॥ गिरिक्षित गोत्र में उत्पन्न 'पुरुकुत्स' के विद्वान् पुत्र 'त्रसदस्यु' स्वर्ण सम्पदाओं से युक्त हैं। उनके द्वारा प्रदत्त दस श्वेत वर्ण वाले अश्व हमें वहन करें। हम भी श्रेष्ठ कर्तव्यों से युक्त रहें ॥८॥ उत त्ये मा मारुताश्वस्य शोणाः क्रत्वामघासो विदथस्य रातौ । सहस्रा मे च्यवतानो ददान आनूकमर्यो वपुषे नार्चत् ॥९॥ 'मरुताव' के पुत्र 'विदथ' के यज्ञ में हमें उन्होंने रक्तवर्ण वाले द्रुतगामी अश्व प्रदान किये और सहस्रों प्रकार के धन देकर हमारे श्रेष्ठ शरीर को अलंकारों से युक्त किया ॥९॥ उत त्ये मा ध्वन्यस्य जुष्टा लक्ष्मण्यस्य सुरुचो यतानाः । मह्ना रायः संवरणस्य ऋषेर्वजं न गावः प्रयता अपि ग्मन् ॥१०॥ 'लक्ष्मण' के पुत्र 'ध्वन्य' ने जो हमें उत्तम दीप्तियुक्त और पराक्रमी अश्व प्रदान किये, वे हमने स्वीकार किये। जैसे गौएँ चरने के स्थान को जाती हैं, वैसे उनके द्वारा प्रदत्त प्रभूत (विपुल) धन 'सम्वरण' अषि के स्थान में गया है ॥१०॥

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