Brihadaranyaka Upanishad Chapter 4 (बृहदारण्यक उपनिषद) चतुर्थ अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् चतुर्थ अध्याय प्रथम ब्राह्मण ॐ जनको ह वैदेह आसां चक्रेऽथ ह याज्ञवल्क्य आवव्राज। त होवाच याज्ञवल्क्य किमर्थमचारीः पशूनिच्छन्नण्वन्तानित्युभयमेव सम्राड् इति होवाच ॥ १॥ विदेह जनक आसन पर बैठे थे। तभी उनके पास याज्ञवल्क्य जी आये। उनसे जनक ने कहा, 'याज्ञवल्क्य जी! कैसे आये? पशुओं की इच्छा से, अथवा सूक्ष्मान्त प्रश्न श्रवण करने के लिये ?' 'राजन् ! मैं दोनों के लिये आया हूँ! ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा। ॥१॥ यत्ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन् मे जित्वा शैलिनिर्वाग्वै ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा तच्छैलिरब्रवीद् वाग्वै ब्रह्मेत्यवदतो हि कि स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम्। न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । वागेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रज्ञेत्येनदुपासीत । का प्रज्ञता याज्ञवल्क्य । वागेव सम्राड् इति होवाच वाचा वै सम्राड् बन्धुः प्रज्ञायत ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः ाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्ट हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि वाचैव सर्वाणि च भूतानि वाचा एव सम्राट् प्रज्ञायन्ते वाग्वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं वाग्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभः सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ २॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझसे शैलिनी के पुत्र जित्वा ने कहा है कि वाक् ही वाणी ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जिस प्रकार मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस शिलिन के पुत्र ने वाणी ही ब्रह्म है। ऐसा कहा है, क्योंकि न बोलने वालेको क्या लाभ हो सकता है ? किंतु क्या उसने उसके आयतन और प्रतिष्ठा भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहाः राजन् ! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है ।' जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोलेः वाणी ही उसका शरीर है और आकाश प्रतिष्ठा है। उसकी प्रज्ञा इस प्रकार उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! प्रज्ञता क्या है ? याज्ञवल्क्य ने कहा: 'राजन् ! वाणी ही प्रज्ञता है। हे सम्राट् ! वाणी से ही बन्धु का ज्ञान होता है और राजन् ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाअंगिरस वेद, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान, व्याख्यान, इष्ट, हुत, आशित (भूखे को अन्न खिलानेसे होनेवाले धर्म), पायित (प्यासेको पानी पिलानेसे होने वाले धर्म), यह लोक, परलोक और समस्त भूत वाणी ही जाने जाते हैं। हे सम्राट् ! वाणी ही परब्रह्म है। इस प्रकार उपासना करनेवाले को वाणी नहीं त्यागती, सम्पूर्ण प्राणी उसको उपहार देते हैं। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है, वह देव होकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ।' याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥२॥ यदेव ते कश्चिदब्रवीत्तच्छृणवामेत्यब्रवीन्म ऊदङ्कः शौल्बायनः प्राणो वै ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा तच्छौल्वायनोऽब्रवीत् प्राणो वै ब्रह्मेत्यप्राणतो हि किः स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । प्राण एवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रियमित्येनदुपासीत । का प्रियता याज्ञवल्क्य । प्राण एव सम्राड् इति होवाच प्राणस्य वै सम्राट् कामायायाज्यं याजयत्यप्रतिगृह्यस्य प्रतिगृह्णात्यपि तत्र वधाशङ्क भवति यां दिशमेति प्राणस्यैव सम्राट् कामाय प्राणो वै सम्राट् परमं ब्रह्म । नैनं प्राणो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभः सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ३॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझसे शुल्ब के पुत्र उद्दक ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जिस प्रकार मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस शुल्ब के पुत्र ने यह कहा कि प्राण ही ब्रह्म है। क्योंकि प्राण क्रिया न करने वाले को क्या लाभ हो सकता ह ? किंतु क्या उसने उसका शरीर और प्रतिष्ठा भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहा: राजन्! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोलेः प्राण ही आयतन है, आकाश प्रतिष्ठा है और वह प्रिय है, इस प्रकार उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! प्रियता क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट ! प्राण ही प्रियता है। राजन्! प्राण के लिये ही अयाज्य से यजन कराते हैं, दान न लेने योग्य से दान लेते हैं तथा जिस दिशा में जाते हैं, वहाँ वध की आशंका से डरते हैं। हे सम्राट् ! यह सब प्राण के ही लिये होता है। हे राजन्! प्राण ही परम ब्रह्म है। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है, उसे प्राण नहीं त्यागता, उसको सभी प्राणी उपहार देते हैं और वह देव बनकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ।' याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥३॥ यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे बर्कुर्वाष्र्णश्चक्षुर्वै ब्रह्मेति । यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान् ब्रूयात् तथा तद्वाष्र्णोऽब्रवीत्च्चक्षुर्वै ब्रह्मेत्यपश्यतो हि कि स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । ु न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । चक्षुरेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा सत्यमित्येतदुपासीत । का सत्यता याज्ञवल्क्य । चक्षुरेव सम्राड् इति होवाच चक्षुषा वै सम्राट्प पश्यन्तमाहुरद्राक्षीरिति । स आहाद्राक्षमिति तत्सत्यं भवति चक्षुर्वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं चक्षुर्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभः सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥४॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझसे वृष्ण के पुत्र बर्कु ने कहा है कि नेत्र ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जिस प्रकार मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस वाष्ण ने ऐसा कहा है कि नेत्र ही ब्रह्म है। क्योंकि न देखनेवाले को क्या लाभ हो सकता है ? किंतु क्या उसने तुम्हें उसके शरीर और आश्रय भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहाः राजन्! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोले: नेत्र ही शरीर है, आकाश आश्रय है, इसकी 'सत्य' इस रूपसे उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! सत्यता क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे राजन् ! नेत्र ही सत्यता है। हे सम्राट्। नेत्र से देखने वाले से ही 'क्या तूने देखा' जब ऐसा कहा जाता है और वह कहता है कि 'मैंने देखा" तो वह सत्य होता है। राजन्! चक्षु ही परम ब्रह्म है। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है उसको सभी प्राणी उपहार देते हैं और वह देव बनकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ।' याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥४॥ यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे गर्दभीविपीतो भारद्वाजः श्रोत्रं वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा तद्भारद्वाजोऽब्रवीच्छ्रोत्रं वै ब्रह्मेत्यशृण्वतो हि कि स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम् । न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । श्रोत्रमेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठाऽनन्तमित्येनदुपासीत । काऽनन्तता याज्ञवल्क्य। दिश एव सम्राड् इति होवाच तस्माद्वै सम्राड् अपि यां काञ्च दिशं गच्छति नैवास्या अन्तं गच्छत्यनन्ता हि दिशो दिशो वै सम्राट् श्रोत्र श्रोत्रं वै सम्राट् परमं ब्रह्म । नैनः श्रोत्रं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभ सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ५॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझ से भारद्वाजगोत्रोत्पन्न गर्दभीविपीतने कहा है कि श्रोत्र ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जिस प्रकार मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस भारद्वाज ने ऐसा कहा है कि श्रोत्र ही ब्रह्म है। क्योंकि न सुनने वाले को क्या लाभ हो सकता है? किंतु क्या उसने तुम्हें उसके शरीर और आश्रय भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहाः राजन्! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोलेः श्रोत ही शरीर है, आकाश आश्रय है, यह अनंत है इसकी इस रूप से उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! अनंतता क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहा: हे सम्राट् ! दिशाएँ ही अनन्तता हैं। इसी से हे सम्राट्! कोई भी जिस किसी दिशा को जाता है, वह उसका अन्त नहीं पाता, क्योंकि दिशाएँ अनन्त हैं और हे सम्राट् ! दिशाएँ ही श्रोत्र हैं। श्रोत्र ही परम ब्रह्म है। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है, श्रोत्र उसका त्याग नहीं करता, उसको सभी प्राणी उपहार देते हैं और वह देव बनकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ। याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥५॥ यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे सत्यकामो जाबालो मनो वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा तज्जाबालो अब्रवीन् मनो वै ब्रह्मेत्यमनसो हि कि स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठाम्। न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । मन एवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठाऽऽनन्द इत्येनदुपासीत । काऽऽनन्दता याज्ञवल्क्य । मन एव सम्राड् इति होवाच मनसा वै सम्राट् स्त्रियमभिहार्यते तस्यां प्रतिरूपः पुत्रो जायते स आनन्दो। मनो वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं मनो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभः सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ६॥ याज्ञवल्क्य ने कहाः आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझ से जबाला के पुत्र सत्यकाम ने कहा है कि मन ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जैसे मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस जबाला के पुत्र ने ऐसा कहा है कि मन ही ब्रह्म है। क्योंकि जो बिना मन के है उसको क्या लाभ हो सकता है? किंतु क्या क्या उसने तुम्हें उसके शरीर और आश्रय भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहाः राजन् ! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोलेः मन ही शरीर है, आकाश आश्रय है, यह आनंद है इसकी इस रूप से उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! आनन्दता क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट् ! मन ही आनन्दता है। हे राजन् ! मन से ही स्त्री की इच्छा करता है, उसमें अपने सदृश्य जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह आनन्द है। हे सम्राट् ! मन ही परम ब्रह्म है। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है, उसे मन नहीं त्यागता, उसको सभी प्राणी उपहार देते हैं और वह देव बनकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ। याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥६॥ यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे विदग्धः शाकल्यो हृदयं वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात् तथा तच्छाकल्योऽब्रवीद् धृदयं वै ब्रह्मेत्यहृदयस्य हि किञ् स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्याऽऽयतनं प्रतिष्ठां । न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत् सम्राड् इति । स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य । हृदयमेवाऽऽयतनमाकाशः प्रतिष्ठा स्थितिरित्येनदुपासीत । का स्थितिता याज्ञवल्क्य । हृदयमेव सम्राड् इति होवाच हृदयं वै सम्राट् सर्वेषां भूतानामायतन हृदयं वै सम्राट्, सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा ृ हृदये ह्येव सम्राट् सर्वाणि भूतानि प्रतिष्ठितानि भवन्ति हृदयं वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैन हृदयं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति । देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते । हस्त्पृषभः सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः । स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य हरेतेति ॥ ७॥ याज्ञवल्क्य ने कहा: आपसे यदि किसी आचार्य ने जो कहा है, वह हम सुनें। जनक ने उत्तर दियाः मुझ से विदग्ध शाकल्य ने कहा है कि हृदय ही ब्रह्म है। याज्ञवल्क्य ने कहाः जैसे मातृमान्, पितृमान्, आचार्यवान् कहे, उसी प्रकार उस उस शाकल्य ने ऐसा कहा है कि हृदय ही ब्रह्म है। क्योंकि हृदयहीनको क्या मिल सकता है ? किंतु क्या क्या उसने तुम्हें उसके शरीर और आश्रय भी बतलाये हैं ? जनक ने कहा- मुझे नहीं बतलाये। याज्ञवल्क्य ने कहाः राजन्! यह तो एक ही पादवाला ब्रह्म है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! वह हमें आप बतलाइये। याज्ञवल्क्य बोलेः हृदय ही शरीर है, आकाश आश्रय है, यह स्थिति है इसकी इस रूप से उपासना करे। जनकजी ने कहा: याज्ञवल्क्यजी! स्थितता क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट् ! हृदय ही स्थितता है। राजन् ! हृदय ही समस्त प्राणियों का आयतन है, हृदय ही सभी प्राणियों की प्रतिष्ठा है और हृदय में ही समस्त भूत प्रतिष्ठित होते हैं। हे सम्राट्। हृदय ही परम ब्रह्म है। जो विद्वान् इसकी इस प्रकार उपासना करता है, उसका हृदय त्याग नहीं करता, उसको सभी प्राणी उपहार देते हैं और वह देव बनकर देवों को प्राप्त होता है। विदेहराज जनकने कहा: मैं आपको जिनसे हाथी के समान बैल उत्पन्न करने वाली सहस्र गौएँ देता हूँ। याज्ञवल्क्य ने कहा: मेरे पिताका विचार था कि शिष्यको उपदेश के द्वारा कृतार्थ किये बिना उसका धन नहीं ले जाना चाहिये। ॥७॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण जनको ह वैदेहः कूर्चादुपावसर्पन्नुवाच नमस्तेऽस्तु याज्ञवल्क्यानु मा शाधीति । स होवाच यथा वै सम्राण महान्तमध्वानमेष्यत्रथं वा नावं वा समाददीतैवमेवैताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्माऽस्यसि एवं वृन्दारक आढ्यः सन्नधीतवेद उक्तोपनिषत्क इतो विमुच्यमानः क्व गमिष्यसीति । नाहं तद् भगवन् वेद यत्र गमिष्यामीत्यथ वै तेऽहं तद्वक्ष्यामि यत्र गमिष्यसीति । ब्रवीतु भगवानिति ॥ १॥ विदेहराज जनक ने अपने एक विशेष प्रकार के आसन से उठ कर याज्ञवल्क्य के समीप जाकर कहा, 'हे याज्ञवल्क्य! आपको नमस्कार है, मुझे उपदेश कीजिये।' याज्ञवल्क्य ने कहा: 'राजन् ! जिस प्रकार लम्बा मार्ग तय करने वाला पुरुष सम्यक् प्रकार से रथ या नौका का आश्रय ले, उसी प्रकार तू इन उपनिषदों (उपासनाओं) से युक्त प्राणादि ब्रह्मों की उपासना कर समाहित चित्त हो गया है। इस प्रकार तू पूज्य, श्रीमान्, वेदों का पढ़ा हुआ और उक्तोपनिषत्क (जिसे आचार्य ने उपनिषद् का उपदेश कर दिया है-ऐसा हो गया है। इतना होने पर भी तू इस शरीर से छूटकर कहाँ जायगा? जनक ने कहा: भगवन्! मैं कहाँ जाऊँगा, यह तो मुझे मालूम नहीं है। याज्ञवल्क्य ने कहा: अब मैं तुझे यही बतलाऊँगा-जहाँ तू जायगा। जनक ने कहाः भगवान् मुझे बताएं। ॥१॥ इन्धो ह वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तं वा एतमिन्ध सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेणैव परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः ॥ २॥ यह जो दक्षिण नेत्र में पुरुष है, इन्ध-चमकने वाला नां है, उसी इस पुरुष को इन्ध होते हुए भी परोक्षरूप से इन्द्र कहते हैं, क्योंकि देवगण मानो परोक्ष प्रिय हैं, प्रत्यक्ष से द्वेष करनेवाले हैं। ॥२॥ अथैतद्वामेऽक्षणि पुरुषरूपमेषाऽस्य पत्नी विराट् तयोरेष सस्तावो य एषोऽन्तहृदय आकाशोऽथैनयोरेतदन्नं य एषोऽन्तहृदये लोहितपिण्डोऽथैनयोरेतत्प्रावरणं यदेतदन्तहृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः सञ्चरणी यैषा हृदयादूर्ध्वा नाड्युच्चरति । यथा केशः सहस्रधा भिन्न एवमस्यैता हिता नाम नाड्योऽन्तहृदये प्रतिष्ठिता भवन्त्येवमस्य एताशितास्त्राम नाड्यसन्तहृदये प्रतिष्ठितास्भवन्ति एताभिर्वा एतदास्रवदास्रवति तस्मादेष प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरादात्मनः ॥ ३॥ और यह जो बायें नेत्र में पुरुष रूप है, वह इन्द्र की पत्नी विराट अन्न है। जो यह हृदयान्तर्गत आकाश है उन दोनों का यह संस्ताव मिलन का स्थान है। यह हृदयान्तर्गत लाल पिण्ड-उन दोनों का अन्न है। जो यह हृदयान्त गत जाल जैसा है वह उन दोनों का यह प्रावरण है। जो यह हृदय से ऊपर की ओर नाडी जाती है, वह उन दोनों का यह मार्ग-संचार करने का द्वार है। जिस प्रकार सहस्र भागों में विभक्त हुआ केश होता है, वैसी ही ये हिता नाम की नाडियाँ हृदय के भीतर स्थित हैं। इन्हीं के द्वारा जाता हुआ यह अन्न शरीर में जाता है; इसी से इस स्थूल शरीराभिमानी वैश्वानर से यह सूक्ष्मदेहाभिमानी तैजस सूक्ष्मतर आहार ग्रहण करनेवाला ही होता है। ॥३॥ तस्य प्राची दिक्प्राञ्चः प्राणाः दक्षिणा दिग्दक्षिणे प्राणाः प्रतीची दिक्प्रत्यञ्चः प्राणा उदीची दिगुदञ्चः प्राणाः ऊर्ध्वा दिगूर्ध्वाः प्राणाः अवाची दिगवाञ्चः प्राणाः सर्वा दिशः सर्वे प्राणाः । स एष नेति नेत्याऽत्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्व्यथते असङ्गस्त्र हि सज्यते असितस्न व्यथते न रिष्यति अभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः । स होवाच जनको वैदेहोऽभयं त्वा गच्छताद् याज्ञवल्क्य यो नो भगवन् अभयं वेदयसे नमस्तेऽस्त्विमे विदेहा अयमहमस्मि ॥ ४॥ उस विद्वान के पूर्व दिशा पूर्व प्राण है. दक्षिण दिशा दक्षिण प्राण है, पश्चिम दिशा, पश्चिम प्राण है, उत्तर दिशा उत्तर प्राण है, ऊपर की दिशा ऊपर के प्राण हैं, नीचे की दिशा नीचे के प्राण हैं और सम्पूर्ण दिशाएं सम्पूर्ण प्राण है। वह यह 'नेति नेति' रूप से वर्णन किया हुआ आत्मा अगृहय है, वह ग्रहण नहीं किया जाता, वह अशीर्य है, नष्ट नहीं होता। असंग है, उसका संग नहीं होता। वह अबद्ध है, व्यथित नहीं होता और क्षीण नहीं होता। हे जनक तू निश्चय ही अभय को प्राप्त हो गया है। उस विदेहराज जनक ने कहा- हे भगवन याज्ञवल्क्य! जिन आपने मुझे अभय ब्रह्म का ज्ञान कराया है, उन आपको अभय प्राप्त हो, आपको नमस्कार हो, ये विदेह देश और मैं स्वयं आपके अधीन हूँ। ॥४॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण जनक ह वैदेहं याज्ञवल्क्यो जगाम स मेने न वदिष्य इति स मेने न वदिष्य इत्यथ ह यज्जनकश्च वैदेहो याज्ञवल्क्यश्चाग्निहोत्रे समूदाते तस्मै ह याज्ञवल्क्यो वरं ददौ । स ह कामप्रश्नमेव वव्रे । त हास्मै ददौ। त ह सम्राडेव पूर्व पप्रच्छ ॥ १॥ विदेहराज जनक के पास याज्ञवल्क्य गये। उनका विचार था मैं कुछ उपदेश नहीं करूँगा। किंतु, पहले कभी विदेहराज जनक और याज्ञवल्क्य ने अग्निहोत्र के विषय में परस्पर संवाद किया था, उस समय याज्ञवल्क्य ने उसे वर दिया था और उसने इच्छानुसार प्रश्न करना ही माँगा था। यह वर याज्ञवल्क्य ने उसे दे दिया था; अतः उनमे से पहले राजा ने ही प्रश्न किया ॥१॥ याज्ञवल्क्य किञ्ज्योतिरयं पुरुष इत्यादित्यज्योतिः सम्राड् इति होवाचाऽऽदित्येनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ २॥ जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य ! यह पुरुष किस ज्योतिवाला है ? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट्। यह आदित्यरूप ज्योतिवाला है। ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा, 'यह आदित्यरूप ज्योतिसे ही बैठता, सब ओर जाता, कर्म करता और लौट जाता है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है । ॥ २ ॥ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इति । चन्द्रमा एवास्य ज्योतिर्भवतीति चन्द्रमसैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ३॥ जनक ने पूछा कहाः हे याज्ञवल्क्य! आदित्य के अस्त हो जाने पर यह पुरुष किस ज्योतिवाला होता है ? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट्। 'उस समय चन्द्रमा ही इसकी ज्योति होता है, चन्द्रमा रूप ज्योति के द्वारा ही यह बैठता, इधर-उधर जाता, कर्म करता और लौट आता है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है। ॥३॥ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इत्यग्निरेवास्य ज्योतिर्भवत्यग्निनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ४॥ जनक ने पूछा कहा: हे याज्ञवल्क्य! आदित्यके अस्त हो जाने पर तथा चन्द्रमा के अन्त हो जाने पर यह पुरुष किस ज्योतिवाला होता है ? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट्। 'उस समय 'अग्नि ही इसकी ज्योति होता है। यह अग्निरूप ज्योति के द्वारा ही बैठता, इधर-उधर जाता, कर्म करता और लौट आता है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है। ॥४॥ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इति । वागेवास्य ज्योतिर्भवतीति वाचैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति । तस्माद्वै सम्राड् अपि यत्र स्वः पाणिर्न विनिर्ज्ञायतेऽथ यत्र वागुच्चरत्युपैव तत्र न्येतीत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य ॥ ५॥ जनक ने पूछा कहा: हे याज्ञवल्क्य! आदित्य के अस्त होने पर, चन्द्रमा के अस्त होने पर और अग्नि के शान्त जाने पर यह पुरुष किस ज्योतिवाला होता है ? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट्। 'उस समय वाणी ही इसकी ज्योति होती है। यह वाणी रूप ज्योति के द्वारा द्वारा ही बैठता, इधर-उधर जाता, कर्म करता और लौट आता है। जनक ने कहा: हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है। ॥५॥ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि किञ्ज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मैवास्य ज्योतिर्भवत्यात्मनैवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति ॥ ६॥ जनक ने पूछा कहा: हे याज्ञवल्क्य! आदित्य के अस्त होने पर, चन्द्रमा के अस्त होने पर और अग्नि के शान्त जाने पर तथा वाणी के भी शांत हो जाने पर यह पुरुष किस ज्योतिवाला होता है? याज्ञवल्क्य ने कहाः हे सम्राट्। 'उस समय आत्मा ही इसकी ज्योति होती है। यह आत्मा रूप ज्योति के द्वारा द्वारा ही बैठता, इधर-उधर जाता, कर्म करता और लौट आता है। ॥६॥ कतम आत्मेति । योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तज्र्योतिः विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्योतिः पुरुषः पुरुषस्स समानः सन्नुभौ लोकावनुसञ्चरति । ध्यायतीव लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति मृत्यो रूपाणि ॥ ७॥ जनक ने पूछा कहा: हे याज्ञवल्क्य! आत्मा कौन है? याज्ञवल्क्य ने कहाः यह जो प्राणों मे बुद्धिवृत्तियों के भीतर रहने वाला विज्ञानमय ज्योतिः स्वरुप पुरुष है, वह समान बुद्धिवृतियों के सदृश्य इस लोक और परलोक दोनों में घूमता है। वह बुद्धिवृतियों के अनुसार चिंतन करता है और प्राणवृत्ति के अनुसार चेष्टा करता है। वही स्वप्न अवस्था में इस लोक और मृत्यु के रूपों से भी पार निकल जाता है। ॥६॥ स वा अयं पुरुषो जायमानः शरीरमभिसम्पद्यमानः पाप्मभिः सक्ष्सृज्यते । स उत्क्रामन्त्रियमाणः पाप्मनो विजहाति ॥ ८॥ वह यह पुरुष जन्म लेते समय शरीर धारण करता हुआ हुआ पापों से (देह और इन्द्रियों से जुड़ जाता है तथा मरते समय - बाहर निकलते समय उन पापों को त्याग देता है। ॥८॥ तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत इदं च परलोकस्थानं च सन्ध्यं तृतीयः स्वप्नस्थानं तस्मिन्सन्ध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यतीदं च परलोकस्थानं च अथ यथाक्रमोऽयं परलोकस्थाने भवति तमाक्रममाक्रम्योभयान्पाप्मन आनन्दाश्च पश्यति । पश्यति स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति ॥ ९॥ उस इस पुरुष के दो ही स्थान हैं- पहला यह लोक और दूसरा परलोक, तीसरा मध्य स्थान स्वप्न स्थान है। उस मध्य स्थान में स्थित रह कर यह इस लोक और परलोक इन दोनों स्थानों को देखता है। यह पुरुष परलोक स्थान के लिये जैसे साधन से सम्पन्न होता है, उस साधन का आश्रय लेकर यह पाप अर्थात दुःख और आनन्द दोनों को ही देखता है। जिस समय यह सोता है, उस समय इस सर्वत्र विद्यमान लोक की मात्राओं अर्थात सूक्ष्म अंशों या इच्छाओं को लेकर, स्वयं ही इस स्थूल शरीर को अचेत करके तथा स्वयं अपने वासना मय देह को रचकर, अपने प्रकाश से अर्थात् अपने ज्योतिःस्वरूप से शयन करता है। इस अवस्था में यह पुरुष स्वयं ज्योति स्वरूप होता है। 20 ॥ ९ ॥ न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथात्रथयोगान्पथः सृजते । न तत्राऽऽनन्दा मुदः प्रमुदो भवन्त्यथाऽऽनन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते । न तत्र वेशान्ताः पुष्करिण्यः स्रवन्त्यो भवन्त्यथ वेशान्तान्पुष्करिणीः स्रवन्तीः सृजते स हि कर्ता ॥ १०॥ उस अवस्था में न रथ हैं, न रथ में जोते जानेवाले घोड़े इत्यादि हैं और न मार्ग ही हैं। परंतु वह रथ, रथ में जोते जानेवाले घोड़े इत्यादि और रथ के मार्गों की रचना कर लेता है। उस अवस्था में आनन्द, मोद और प्रमोद भी नहीं हैं, किंतु वह आनन्द, मोद और प्रमोद की भी रचना कर लेता है। वहाँ तालाब, सरोवर और नदियाँ नहीं हैं, परन्तु वह वह तालाब, सरोवर और नदियों की रचना कर्ता रूप मे कर लेता है ॥ १० ॥ तदेते श्लोका भवन्ति स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्या सुप्तः सुप्तानभिचाकशीति । शुक्रमादाय पुनरैति स्थानः हिरण्मयः पुरुष एकहसः ॥ ११॥ इस विषयमें ये श्लोक हैं। आत्मा स्वप्न के द्वारा शरीर को निश्चेष्ट कर स्वयं न सोता हुआ सोये हुए समस्त इन्द्रियों को प्रकाशित करता है। वह इन्द्रियों की ज्योति को लेकर पुनः जागृत अवस्था में आता है। वह स्वर्णमय ज्योति स्वरूप पुरुष अकेला ही दोनों स्थानों में जानेवाला है। ॥ ११ ॥ प्राणेन रक्षन्नपरं कुलायं बहिष्कुलायादमृतश्चरित्वा स ईयतेऽमृतो यत्रकाम हिरण्मयः पुरुष एकहसः ॥ १२॥ इस निकृष्ट शरीर की प्राण से रक्षा करता हुआ वह अमृतधर्मा शरीर से बाहर घूमता है। वह अकेला घूमने वाला स्वर्णमय अमृत पुरुष जहाँ इच्छा होती है, वहाँ चला जाता है। ॥ १२ ॥ स्वप्नान्त उच्चावचमीयमानो रूपाणि देवः कुरुते बहूनि । उतेव स्त्रीभिः सह मोदमानो जक्षदुतेवापि भयानि पश्यन् ॥ १३॥ वह देव स्वप्नावस्था में ऊँच-नीच भावों को प्राप्त होता हुआ बहुत-से रूप बना लेता है। इसी प्रकार वह भावना अनुसार स्त्रियों के साथ आनन्द मानता हुआ, मित्रों के साथ हँसता हुआ तथा भय के दृश्य देखता रहता है। ॥ १३ ॥ आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चनेति । तं नाऽऽयतं बोधयेदित्याहुः । दुर्भिषज्य हास्मै भवति यमेष न प्रतिपद्यते अथो खल्वाहुर्जागरितदेश एवास्यैष यानि ह्येव जाग्रत् पश्यति तानि सुप्त इत्यत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षाय ब्रूहीति ॥ १४॥ सब लोग उसके आराम के स्थान को ही देखते हैं, उस स्वयं प्रकाश पुरुष को कोई नहीं देखता। कुछ लोग कहते हैं कि उस सोये हुए आत्मा को अचानक नहीं जगाना चाहिए। जिस इन्द्रिय प्रदेश में यह सोया हुआ होता है, उसमें प्राप्त न होने से इसका शरीर दुखित हो जाता है। इसी प्रकार कई अन्य कहते हैं कि यह स्वप्न इसकी जागने के ही जगह है, क्योंकि जिन पदार्थों को यह जागने पर देखता है, उन्हीं को सोया हुआ भी देखता है किंतु यह ठीक नहीं है क्योंकि इस अवस्था में यह पुरुष स्वयं ज्योति स्वयं प्रकाश होता है। जनक ने कहा: मैं भगवन के लिए सहस्र मुद्रा देता हूँ, अब आगे मुझे मोक्ष के लिये उपदेश कीजिये। ॥१४॥ स वा एष एतस्मिन्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्रैव पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति स्वप्नायैव एव स यत्तत्र किञ्चित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष इत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति ॥१५॥ याज्ञवल्क ने कहाः वह यह आत्मा इस सुषुप्ति में रमण और घूम कर पुण्य और पाप को केवल देखकर, जैसे आया था और जहाँ से आया था, पुनः स्वप्न स्थान को ही लौट आता है। वहाँ वह जो कुछ देखता है, उससे बंधता नहीं है। क्योंकि यह पुरुष असंग है। जनक ने कहा - हे याज्ञवल्क्य ! यह बात ऐसी ही है, मैं भगवन के लिए सहस्र मुद्रा देता हूँ, अब आगे मुझे मोक्ष के लिये उपदेश कीजिये। ॥ १५॥ स वा एष एतस्मिन्त्स्वप्ने रत्वा चरित्वा दृष्ठैव पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव आद्रवति बुद्धान्ताय एव स यत्तत्र किञ्चित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष इत्येवमेवैतद् याज्ञवल्क्य । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति ॥ १६॥ वह यह आत्मा इस स्वप्नावस्था में रमण और घूम कर तथा पुण्य और पाप को देखकर ही फिर जिस प्रकार आया था और जहाँ से आया था उस जागरित-स्थान को ही लौट जाता है; वह वहाँ जो कुछ देखता है, उससे बंधता नहीं है। क्योंकि यह पुरुष असंग है। जनक ने कहा - हे याज्ञवल्क्य ! यह बात ऐसी ही है, मैं भगवन के लिए सहस्र मुद्रा देता हूँ, अब आगे मुझे मोक्ष के लिये उपदेश कीजिये। ॥ १६ ॥ स वा एष एतस्मिन्बुद्धान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्व पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति स्वप्नान्तायैव ॥ १७॥ आद्रवति स्वप्नान्ताय एव वह यह पुरुष इस जागृत अवस्था में रमण और घूम कर तथा पुण्य और पाप को देखकर फिर जिस प्रकार आया था उसी मार्ग से यथा स्थान स्वप्नस्थान को ही लौट जाता है। ॥ १७ ॥ तद्यथा महामत्स्य उभे कूलेऽनुसञ्चरति पूर्वं चापरं चैवमेवायं पुरुष एतावुभावन्तावनुसञ्चरति स्वप्नान्तं च बुद्धान्तं च ॥१८॥ जिस प्रकार कोई बड़ा भारी मत्स्य नदी के पूर्व और पश्चिम दोनों किनारों पर क्रमशः घूमता रहता है, उसी प्रकार यह पुरुष स्वप्न स्थान और जागृत स्थान इन दोनों ही स्थानों में क्रमशः घूमता रहता है। ॥१८॥ तद्यथास्मिन्नाऽकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः सहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियत ध्रियते एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति ॥ १९॥ जिस प्रकार इस आकाश में बाज अथवा गरुड़ आकाश में इधर उधर, थक जाने पर पंखों को फैलाकर घोंसले की ओर ही उड़ता है, इसी प्रकार यह पुरुष इस स्थान की ओर दौड़ता है, जहाँ गहरी नींद में सोने पर यह न तो किसी भोग की इच्छा करता है और न कोई स्वप्न ही देखता है ॥१९॥ ता वा अस्यैता हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तावताऽणिम्ना तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा । नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णासथ यत्रैनं घ्नन्तीव जिनन्तीव हस्तीव विच्छाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं पश्यति तदत्राविद्यया मन्यतेऽथ यत्र देव इव राजेवाहमेवेद सर्वोऽस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकाः ॥ २०॥ उसकी वे ये हिता नाम की नाडियाँ इतनी सूक्ष्मता से शरीर में स्थित है, जितना कि बाल हजार द\ टुकड़े किया हुआ हो। वह श्वेत, नीले, पीले हरे और लाल रंग के रस से भरी हुई हैं। जब वह इस पुरुष को मानो मारते हैं, मानो अपने वश में करते हैं और जहाँ मानो इसे हाथी खदेड़ता है अथवा जहाँ यह गड्ढे में गिरता है। इस प्रकार जो कुछ भी जाग्रत अवस्था के भय देखता है, उन्हें इस स्वप्नावस्था में अविद्या से मानता है और जहाँ यह देवता के समान, राजा के समान अथवा मैं ही यह सब हूँ-ऐसा मानता है, वह इसका परमधाम है। ॥२०॥ तद्वा अस्यैतदतिच्छन्दा अपहतपाप्माभय रूपम् । तद्यथा प्रियया स्त्रिया सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नाऽऽन्तरमेवमेवायं पुरुषः प्राज्ञेनाऽऽत्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नाऽऽन्तरम् । सम्परिष्वक्तस्त्र बाह्यम् किम् चन वेद न अन्तरं तद्वा अस्यैतदाप्तकाममात्मकाममकामं रूपम् शोकान्तरम् ॥ २१॥ वह इसका कामरहित, पापरहित और अभय रूप है। व्यवहार में जिस प्रकार अपनी प्रिया भार्या को आलिंगन करने वाले पुरुष को न कुछ बाहरका ज्ञान रहता है और न भीतर का, इसी प्रकार यह पुरुष प्राज्ञात्मा से आलिंगित होने पर न कुछ बाहर का विषय जानता है और न भीतर का विषय जानता है। यह इसका आप्तकाम, आत्मकाम, अकाम और शोकशून्य रूप है। ॥२१॥ अत्र पिताऽपिता भवति माताऽमाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूणहाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचण्डालः पौल्कसोऽपौल्कसो श्रमणोऽश्रमण स्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन अश्रमणस्तापससतापससनन्वागतस्पुण्येन अनन्वागतस्पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान्हृदयस्य भवति ॥२२॥ इस सुषुप्त अवस्था में पिता पिता नहीं रहता, माता माता नहीं रहती, लोक लोक नहीं रहते, देवता देवता नहीं रहते और वेद वेद नहीं रहते। यहाँ चोर चोर नहीं रहता, भ्रूणहत्या करनेवाला भ्रूणहत्या के पाप से मुक्त हो जाता है, तथा चाण्डाल चाण्डाल नहीं रहत, पौल्कस पोल्कस नहीं रहता, भिक्षु, भिक्षु नहीं रहता और तपस्वी तपस्वी नहीं रहता। उस समय यह पुरुष पुण्य से तथा पाप से भी असम्बद्ध होता है और हृदय के सम्पूर्ण शोकों को पार कर लेता है। ॥२२॥ यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्पश्येत् ॥ २३॥ वह जो नहीं देखता वह देखता हुआ ही भी नहीं देखता,; देखने वाले की दृष्टि का कभी लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस समय उससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, जिसे देखे। ॥ २३ ॥ यद्वै तन्न जिघ्रति जिघ्रन्वै तन्न जिघ्रति न हि प्रातुर्घातर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दृवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यज्जिघेत् ॥ २४॥ वह जो नहीं सूंघता सो सूंघता हुआ भी नहीं सूंघता । सूंघनेवाले की गन्ध ग्रहण शक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, जिसे सूंघे। ॥ २४ ॥ यद्वै तन्न रसयते रसयन्वै तन्न रसयते न हि रसयितू रसयितेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्रसयेत् ॥ २५॥ वह जो रसास्वाद नहीं करता सो रसास्वाद करता हुआ भी नहीं करता । रसास्वाद करनेवाले की रस ग्रहण शक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं, जिसका रस ग्रहण करे। ॥२५॥ यद्वै तन्न वदति वदन्वै तन्न वदति न हि वक्तुर्वक्तेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्वदेत् ॥ २६॥ वह जो नहीं बोलता वह बोलता हुआ भी नहीं बोलता। वक्ता की वचन-शक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न दूसरा कुछ है ही नहीं, जिसके विषय में वह बोले।। २६ ।। यद्वै तन्न शृणोति शृण्वन्वै तन्न शृणोति न हि श्रोतुः श्रुतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दृवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यच्छृणुयात् ॥ २७॥ वह जो नहीं सुनता उसे सुनता हुआ भी नहीं सुनता। श्रोता की श्रवण शक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं, जिसके विषय में वह सुने। ॥ २७ ॥ यद्वै तन्न मनुते मन्वानो वै तन्न मनुते न हि मन्तुर्मतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यन्मन्वीत ॥ २८ ॥ वह जो मनन नहीं करता उसे मनन करता हुआ भी मनन नहीं करता । मनन करनेवाले की मननशक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, जिसके विषय में वह मनन करे। ॥ २८ ॥ यद्वै तन्न स्पृशति स्पृशन्वै तन्न स्पृशति न हि स्प्रष्टुः स्पृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत् ॥ २९॥ वह जो स्पर्श नहीं करता वह स्पर्श करता हुआ भी स्पर्श नहीं करता। स्पर्श करने वाले की स्पर्शशक्ति का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं, जिसे वह स्पर्श करे। ॥२९॥ यद्वै तन्न विजानाति विजानन्वै तन्न विजानाति न हि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान् न तु तद्दवितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्विजानीयात् ॥ ३०॥ वह जो नहीं जानता उसे नहीं जानता हुआ भी नहीं जानता। विज्ञाता की विज्ञाति (विज्ञान शक्ति) का सर्वथा लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस अवस्था में उससे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ ही नहीं होता, जिसे वह विशेष रूप से जाने। ॥३०॥ यत्र वा अन्यदिव स्यात् तत्रान्योऽन्यत्पश्येदन्योऽन्यज्जिनेद् अन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यद्वदेदन्योऽन्यच्छृणुयादन्योऽन्यन्मन्वीता न्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात् ॥ ३१॥ जहाँ जागृत या स्वप्न अवस्था में आत्मा से भिन्न अन्य-सा होता है वहाँ अन्य अन्य को देख सकता है, अन्य अन्य को सूंघ सकता है, अन्य अन्य को चख सकता है, अन्य अन्य को बोल सकता है, अन्य अन्य को सुन सकता है, अन्य अन्य का मनन कर सकता है, अन्य अन्य का स्पर्श कर सकता है, अन्य अन्य को जान सकता है। ॥ ३१ ॥ सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राड् इति हैनमनुशशास याज्ञवल्क्य। एषास्य परमा गतिरेषास्य परमा सम्पद् एषोऽस्य परमो लोक एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवाऽऽनन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ॥ ३२॥ जैसे जल में, वैसे ही सुषुप्ति में एक अद्वैत द्रष्टा है। हे सम्राट्। यह ब्रह्मलोक है-ऐसा याज्ञवल्क्य ने जनक को उपदेश दिया। यह इस पुरुष की परमगति है, यह इसकी परम सम्पत्ति है, यह इसका परम लोक है, यह इसका परमानन्द है। इस आनन्द की मात्रा के आश्रित ही अन्य प्राणी जीवन धारण करते हैं। ॥३२॥ स यो मनूष्याणा राद्धः समृद्धो भवत्यन्येषामधिपतिः सर्वैर्मानुष्यकैर्भोगैः सम्पन्नतमः अन्येषां सम्पन्नतमस्स मनुष्याणां परम आनन्दोऽथ ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः पितृणां जितलोकानामानन्दोऽथ ये शतं पितृणां जितलोकानामानन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दोऽथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये कर्मणा देवत्वमभिसम्पद्यन्तेऽथ ये शतं कर्मदेवानामानन्दाः स एक आजानदेवानामानन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथ ये शतमाजानदेवानामानन्दाः स एकः प्रजापतिलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो अथ ये शतं प्रजापतिलोक आनन्दाः स एको ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतोऽथैष एव परम आनन्द एष ब्रह्मलोकः सम्राड् इति होवाच याज्ञवल्क्यः । सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीत्यत्र ह याज्ञवल्क्यो बिभयांचकारः मेधावी राजा सर्वेभ्यो माऽन्तेभ्य उदरौत्सीदिति ॥३३॥ वह जो मनुष्यों में सब अंगों से पूर्ण समृद्ध, दूसरों का अधिपति और मनुष्य सम्बन्धी सम्पूर्ण भोग सामग्रियों द्वारा सबसे अधिक सम्पन्न होता है, वह मनुष्यों का परम आनन्द है। अब जो मनुष्यों के सौ आनन्द हैं, वह पितृ लोक को जीतनेवाले पितृगण का एक आनन्द है। और जो पितृलोक को जीतने वाले पितरों के सौ आनन्द हैं, वह गन्धर्व लोक का एक आनन्द है। तथा जो गन्धर्वलोक के सौ आनन्द हैं, वह कर्मदेवों का सौ आनन्द हैं, जो कि कर्म के द्वारा देवत्व को प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है। जो कर्मदेवों के सौ आनन्द हैं, वह जन्मसिद्ध देवों का एक आनन्द है और जो निष्पाप, निष्काम श्रोत्रिय है उसका भी वह आनन्द है। जो जन्मसिद्ध देवों के सौ आनन्द हैं, वह प्रजापति लोक का एक आनन्द है और जो निष्पाप निष्काम श्रोत्रिय है उसका भी वह आनन्द है। जो प्रजापति लोक के सौ आनन्द हैं, वह ब्रह्मलोक का एक आनन्द है और जो निष्पाप निष्काम श्रोत्रिय है, उसका भी वह आनन्द है तथा यही परम आनन्द है। हे सम्राट ! यह ब्रह्मलोक है. ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा। जनक ने कहा- हे याज्ञवल्क्य! यह बात ऐसी ही है, मैं भगवन के लिए सहस्र मुद्रा देता हूँ, अब आगे मुझे मोक्ष के लिये उपदेश कीजिये। यह सुनकर याज्ञवल्क्य भी डर गये कि इस बुद्धिमान् राजा ने तो मुझे सम्पूर्ण प्रश्नों के निर्णयपर्यन्त उत्तर देने को विवश कर दिया है। ॥ ३३ ॥ स वा एष एतस्मिन्स्वप्नान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्व पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव ॥ ३४॥ वह यह पुरुष इस स्वप्न की अवस्था में रमण और विहार कर तथा पुण्य और पाप को देखकर ही पुनः गये हुए मार्ग से ही यथास्थान जागृत अवस्था को ही लौट आता है। ॥ ३४ ॥ तद्यथाऽनः सुसमाहितमुत्सर्जद्यायादेवमेवाय शारीर आत्मा प्राज्ञेनाऽऽत्मनाऽन्वारूढ उत्सर्जन्याति यत्रैतदूर्ध्वाच्छासी भवति ॥ ३५॥ उत्सर्जम् याति यत्रैतदूर्ध्वाच्छासी भवति ॥ ३५॥ जिस प्रकार बहुत अधिक बोझ लादा हुआ छकड़ा शब्द करता चलता है, उसी प्रकार यह शरीर वाला आत्मा प्राज्ञ आत्मा से अधिष्ठित हो शब्द करता हुआ जाता है, जब कि यह ऊर्वोच्छास छोड़नेवाला हो जाता है। ॥३५॥ स यत्रायमणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाऽणिमानं निगच्छति तद्यथाऽऽग्रं वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात्प्रमुच्यत एवमेवायं पुरुष एभ्योऽङ्गेभ्यः सम्प्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैव ॥ ३६॥ वह यह शरीर जिस समय कृशता को प्राप्त होता है, वृद्धावस्था अथवा ज्वरादि रोगके कारण कृश हो जाता है, उस समय यह पुरुष जैसे आम, गूलर अथवा पिप्पल-फल बन्धन से छूट जाता है, वैसे ही यह पुरुष इन अंगों से छूटकर फिर जिस मार्ग से आया था, वापस उसी स्थान में प्राण की विशेष अभिव्यक्ति के लिये ही चला जाता है। ॥३६॥ तद्यथा राजानमायन्तमुग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽन्नैः पानैरवसथैः प्रतिकल्पन्ते अयमायात्ययमागच्छतीत्येव ी हैवंविद सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्त इदं ब्रह्माऽऽयातीदमागच्छतीति ॥ ३७॥ जिस प्रकार आते हुए राजा की उग्रकर्मा एवं पापकर्म में नियुक्त सूत और गाँव के नेता लोग अन्न, पान और निवासस्थान तैयार रखकर 'ये आये, ये आये' इस प्रकार कहते हुए प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार इस कर्मफल वेत्ता की सम्पूर्ण भूत 'यह ब्रह्म आता है, यह आता है। इस प्रकार कहते हुए प्रतीक्षा करते हैं। ॥३७॥ तद्यथा राजानं प्रयियासन्तमुग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽभिसमायन्त्येवमेवेममात्मानमन्तकाले सर्वे प्राणा अभिसमायन्ति यत्रैतदूर्ध्वाच्छ्वासी भवति ॥ ३८ ॥ जिस प्रकार जाने के लिये तैयार हुए राजा के अभिमुख होकर उग्रकर्मा और पापकर्म में नियुक्त सूत एवं गाँव के नेता लोग जाते हैं, उसी प्रकार जब यह ऊर्वोच्छास लेने लगता है तो अन्तकाल में सारे प्राण इस आत्मा के अभिमुख होकर इसके साथ जाते हैं। ॥ ३८ ॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चतुर्थ ब्राह्मण स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्य सम्मोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः परा‌पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति ॥ १॥ वह यह आत्मा जिस समय दुर्बलता को प्राप्त हो मानो सम्मोह को प्राप्त हो जाता है, तब यह वाणी इत्यादि प्राण इक्कठे होकर इसके पास आते हैं। वह इन प्राणों के तेज अंशों को (इन्द्रियों को) अपने साथ भली प्रकार से लेकर हृदय में उतर जाता है। जिस समय यह चाक्षुष पुरुष सभी ओर से बाहर वापस आ जाता है, उस समय वह रूपज्ञानहीन हो जाता है अर्थात किसी को नहीं पहचानता। ॥१॥ एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकीभवति न जिघ्रतीत्याहुरेकीभवति न रसयतीत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरेकीभवति न शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुत इत्याहुरेकीभवति न स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्धी वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तः सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति । सविज्ञानो भवति सविज्ञानमेवान्ववक्रामति । तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च ॥ २॥ जब नेत्र-इन्द्रि आत्मा से एकरूप हो जाती है अर्थात आत्मा में ही समाहित हो जाती है और पृथक रूप से काम नहीं करती, तो लोग 'नहीं देखता' ऐसा कहते हैं। इसी प्रकार जब घ्राण इन्द्रि एक रूप हो जाती है, तो नहीं सूंघता' कहते हैं। रस इन्द्रिय एकरूप हो जाती है तो 'नहीं चखता' कहते हैं, वाणी इंद्री एकरूप हो जाती है तो नहीं बोलता' ऐसा कहते हैं। श्रोत्र इंद्री एकरूप हो जाती है तो 'नहीं सुनता' कहते हैं, मन एकरूप हो जाता है तो 'मनन नहीं करता' कहते हैं, त्वक्-इन्द्रि एकरूप हो जाती है तो स्पर्श नहीं करता' ऐसा कहते हैं और यदि बुद्धि आत्मा से एकरूप हो जाती है तो 'नहीं जानता' कहते हैं। उस समय इस हृदय का अग्र (बाहर जाने का मार्ग) अत्यन्त प्रकाशित होने लगता है, उसीसे यह आत्मा नेत्र से, सिर से अथवा शरीरके किसी अन्य अंग से बाहर निकलती है। उसके बाहर निकलने पर उसके साथ ही प्राण बाहर निकलते हैं, प्राण के बाहर निकलने पर करने पर सम्पूर्ण प्राण-इन्द्रियां बाहर निकलती हैं; उस समय यह आत्मा विशेष विज्ञानवान होता है और विज्ञानयु क्त प्रदेश को ही जाता है; उस समय उसके साथ-साथ ज्ञान, कर्म और पूर्व प्रज्ञा अर्थात पहले सीखी हुई विद्या भी जाते हैं। ॥ २ ॥ तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसः हरत्येवमेवायमात्मेद शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्याऽऽत्मानमुपसः हरति ॥ ३॥ जिस प्रकार जोंक एक तृण के अन्त में पहुँचकर दूसरे तृणरूप सहारे को पकड़कर अपने को खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को छोड़ कर - अचेतन बना कर और किसी दूसरे का सहारा लेकर अपने आप आप को खींच लेती है॥ ३ ॥ तद्यथा पेशस्कारी पेशसो मात्रामपादायान्यन्नवतरं कल्याणतर रूपं तनुत एवमेवायमात्मेदः शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वाऽन्यन्नवतरं कल्याणतर रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्यं वाऽन्येषां वा भूतानाम् ॥४॥ जिस प्रकार सुनार सोने का भाग लेकर दूसरे नए और अधिक सुन्दर रूप की रचना करता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीरको नष्ट कर-अचेतन बना कर 22 दूसरे पितर, गन्धर्व, देव, प्रजापति, ब्रह्मा अथवा अन्य प्राणियों के नए और सुन्दर रूपों की रचना करता है ॥४॥ स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमयः पृथिवीमय आपोमयो वायुमय आकाशमयस्तेजोमयोऽतेजोमयः काममयोऽकाममयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस्त्रोत्रमयसाकाशमयस्वायुमयस्तेजोमय- सापोमयस्पृथिवीमयस्क्रोधमयसक्रोधमय- शर्षमयसहर्षमयस् तद्यदेतदिदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी यथाचारी तथा भवति । साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ॥ ५॥ वह आत्मा ब्रह्म, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, चक्षुर्मय, श्रोत्रमय, पृथिवीमय, जलमय, वायुमय, आकाशमय, तेजोमय, अतेजोमय, काममय, अकाममय, क्रोधमय, अक्रोधमय, धर्ममय, अधर्ममय और सर्वमय है। जो कुछ प्रत्यक्ष और परोक्ष है, वह वही है। वह जैसा कर्म करनेवाला और जैसे आचरण वाला होता है, वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है और पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्यकर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है। कोई अन्य कहते हैं कि यह पुरुष काममय ही है, वह जैसी कामना करता होता है वैसा ही संकल्प लेता है, जैसा संकल्प लेता होता है वैसा ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है। ॥५॥ तदेष श्लोको भवति । तदेव सक्तः सह कर्मणैति लिङ्ग मनो यत्र निषक्तमस्य । प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किञ्चेह करोत्ययम् । तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय कर्मण इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम भवति आप्तकाम आत्मकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति ॥ ६॥ उस विषयमें यह मन्त्र है- इसका मन जिसमें अत्यन्त आसक्त होता है, उसी फल को यह कर्म के सहित प्राप्त करता है। इस लोक में यह जो कुछ कर्म करता है, उस कर्म का फल प्राप्तकर पुनः उस लोक से कर्म करने के लिये इस लोकमें आ जाता है। अवश्य ही कामना करनेवाला पुरुष ही ऐसा करता है। अब जो कामना न करनेवाला परुष है। उसके विषयमें कहते हैं जो कामनाओं से रहित है, जो कामनाओं के चक्रव्यूह से बाहर निकल गया है, जिसकी कामनाएं पूर्ण हो गयी हैं और जो केवल अपनी आत्मा की ओर ही देखता है, उसके प्राणों और इन्द्रिय बाहर नहीं निकलते अर्थात निकल का दूसरा देह धारण नहीं करते, वह ब्रह्म ही बनकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। ॥६॥ तदेष श्लोको भवति यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुत इति ॥ तद्यथाऽहिनिलयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेद शरीर शेतेऽथायमशरीरोऽमृतः प्राणो ब्रह्मैव तेज एव सोऽहं भगवते सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः ॥ ७॥ उसी अर्थमें यह मन्त्र है जिस समय इसके हृदय में रहने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का नाश हो जाता है तो फिर यह मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत अमर हो जाता है और इस शरीर में ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार सर्प द्वारा त्यागी हुई केंचुली, बाँबी के ऊपर मृत अवस्था में पड़ी रहती है, उसी प्रकार यह शरीर पड़ा रहता है और यह शरीर रहित अमृत प्राण ब्रह्म ही है, तेज स्वरुप है। तब विदेहराज जनकने कहा, 'मैं जनक भगवन को सहस्र गौएँ देता हूँ' ॥७॥ तदेते श्लोका भवन्ति । अणुः पन्था विततः पुराणो मा स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव । तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्ग लोकमित ऊर्ध्वं विमुक्ताः ॥ ८॥ उस विषयमें ये मन्त्र हैं-यह ज्ञानमार्ग सूक्ष्म, अत्यंत वृहद् और पुरातन है। वह मुझे स्पर्श किये हुए है और मैंने ही उसका फल साधक ज्ञान प्राप्त किया है। धीर ब्रह्मवेत्ता पुरुष इस लोक में जीते-जी ही मुक्त होकर शरीर त्यागके बाद उसी मार्ग से स्वर्गलोक अर्थात् मोक्षको प्राप्त होते हैं। ॥८॥ तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गल हरितं लोहितं च । एष पन्था ब्रह्मणा हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्पुण्यकृत्तैजसश्च ॥ ९॥ उस मार्ग के विषय में मतभेद है। कोई उसे सफ़ेद अथवा नीले रंग का बताते है तथा कोई अन्य पीले रंग का, कोई कहते हैं वह हरे रंग है और कोई कहते हैं वह लाल रंग का है। किंतु यह मार्ग साक्षात् ब्रह्म द्वारा अनुभव किया गया है। उस मार्ग से पुण्य करनेवाला परमात्मतेजः स्वरूप ब्रह्म को जानने वाले ही जाते हैं। ॥९॥ अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥ १०॥ जो अविद्या (कर्म) की उपासना करते हैं, वे अज्ञानसंज्ञक अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या कर्म काण्ड रूप त्रयीविद्या में संलग्न हैं, वह तो उनसे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं। ॥१०॥ अनन्दा नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्त्यविद्वाः सोऽबुधो जनाः ॥ ११॥ वह अमुख नाम के लोक गहरे अँधेरे से व्याप्त हैं, वह अविद्वान् और अज्ञानीलोग मर कर उन्हीं को प्राप्त होते हैं। ॥ ११ ॥ आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसञ्ज्वरेत् ॥ १२॥ यदि पुरुष आत्मा को 'मैं यह हूँ' इस प्रकार विशेष प्रकार से पहचान ले तो फिर क्या इच्छा करता हुआ और किस कामना से शरीर के पीछे संतप्त हो? ॥१२॥ यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्माऽस्मिन्सन्देह्ये गहने प्रविष्टः । स विश्वकृत् स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव ॥ १३॥ इस अनेकों अनर्थों से पूर्ण और विवेक विज्ञान के विरोधी दुर्गम शरीर में प्रविष्ट हुआ आत्मा जिस को प्राप्त और ज्ञात हो गया है, वही विश्वकृत् - संतुष्ट तथा प्रसन्न है। वही सबका कर्ता है, उसी का लोक है और स्वयं वही लोक भी है। ॥१३॥ इहैव सन्तोऽथ विद्मस्तद्वयं न चेदवेदिर्महती विनष्टिः । ये तद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥ १४॥ हम इस शरीर में रहते हुए ही यदि उसे जान लेते हैं तो कृतार्थ हो गय, परन्तु यदि उसे नहीं जान पाए तो बड़ी हानि है। जो उसे जान लेते हैं, वह अमर हो जाते हैं; किंतु अन्य लोग तो दुःख को ही प्राप्त होते हैं। ॥१४॥ यदैतमनुपश्यत्यात्मानं देवमञ्जसा । ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ॥ १५॥ जब भूत और भविष्य के स्वामी इस प्रकाशमान अथवा कर्मफल दाता आत्मा को मनुष्य साक्षात् जान लेता है तो यह उससे अपनी रक्षा करने की इच्छा नहीं करता। ॥१५॥ यस्मादर्वाक्संवत्सरोऽहोभिः परिवर्तते । तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिरायुर्होपासतेऽमृतम् ॥ १६॥ जिसके नीचे संवत्सर चक्र, दिन-रात आदि सभी घटकों के साथ चक्कर लगाता रहता है, उस सूर्य आदि ज्योतियों के ज्योति स्वरूप अमृत की देवगण आयु इस प्रकार उपासना करते हैं । ॥१६॥ यस्मिन्पञ्च पञ्चजना आकाशश्च प्रतिष्ठितः । तमेव मन्य आत्मानं विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम् ॥ १७॥ जिसमें पाँच पञ्चजन और आकाश भी प्रतिष्ठित है, उस आत्मा को ही मैं अमृत ब्रह्म मानता हूँ। उस ब्रह्म को जानने वाला मैं अमृत ही हूँ। ॥१७॥ प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो ये मनो विदुः । ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्यम् ॥ १८॥ जो उसे प्राण का प्राण, नेत्र का नेत्र, श्रोत्र का श्रोत्र तथा मन का मन जानते हैं वे उस पुरातन और सर्वप्रथम ब्रह्म को जानते हैं। ॥ १८ ॥ मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानाऽस्ति किं चन । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १९॥ ब्रह्म को आचार्य के आदेश अनुसार मन से ही देखना चाहिये। इसमें नया कुछ भी नहीं है। जो उसको नए के समान देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। ॥१९॥ एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम् । विरजः पर आकाशादज आत्मा महान्धुवः ॥ २०॥ उस ब्रह्म को आचार्य के उपदेश के पश्च्यात एक प्रकार से ही देखना चाहिये। यह ब्रह्म अप्रमेय, ध्रुव, निर्मल, अव्याकृत रूप आकाशसे भी सूक्ष्म, अजन्मा, आत्मा, महान् और अविनाशी है ॥ २० ॥ तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः । नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान् वाचो विग्लापन हि तदिति ॥ २१॥ बुद्धिमान् ब्राह्मण को उसे ही जानकर उसी में प्रज्ञा करनी चाहिये। बहुत शब्दों का अनुध्यान (निरन्तर चिन्तन) न करे; वह तो वाणीका श्रम ही है। ॥२१॥ स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तहृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः स न साधुना कर्मणा भूयान्नो एवासाधुना कनीयानेष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसम्भेदाय । तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेनैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्विदित्वा मुनिस्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्त्येतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वासः प्रजां न कामयन्ते किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्माऽयं लोक इति । ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे होते एषणे एव भवतः । स एष नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते ऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्येतमु हैवैते न तरत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उ हैवैष एते तरति नैनं कृताकृते तपतः ॥ २२॥ वह यह महान् अजन्मा आत्मा, जो कि यह प्राणों से घिरा हुआ है, जो यह हृदय के अन्दर आकाश में शयन करता है। वह सबको वशमें रखनेवाला, सबका शासन करनेवाला और सबका अधिपति है। वह शुभ कर्म से बढ़ता नहीं और अशुभ कर्म से छोटा नहीं होता। यह सबका ईश्वर है; यह प्राणियों का अधिपति और उनका पालन करनेवाला है। इन लोकों की मर्यादा भंग न हो-इस प्रयोजन से वह इनको धारण करनेवाला सेतु है। उपनिषदों में जिसके स्वरूप का दर्शन कराया गया है, उसी आत्मा को ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय, यज्ञ, दान और निष्काम तप के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं। इसी को जानकर मुनि होता है। इस आत्मलोक की ही इच्छा करते हुए त्यागी पुरुष सब कुछ त्यागकर मुक्त हो जाते हैं संन्यासी हो जाते हैं। इस संन्यास में कारण यह है- पूर्ववर्ती विद्वान् संतान तथा सकाम कर्म आदि की इच्छा नहीं करते थे। वह सोचते थे- हमें प्रजासे क्या लेना है? हमको हो यह यह आत्मलोक ही अभीष्ट है। अतः वे पुत्रों की इच्छा से, धन की इच्छा से और लोकों की इच्छा से ऊपर उठ कर भिक्षाचर्या करते थे। जो भी पुत्रों की इच्छा है, वही धन की इच्छा है और जो धन की इच्छा है, वही नवीन लोकों की इच्छा है। ये दोनों इच्छाएं ही हैं। वह आत्मा जिका 'नेति नेति' इस प्रकार निर्देश किया गया है अगृह्य है, वह ग्रहण नहीं किया जाता, अशीर्य है, उसका नाश नहीं होता, असङ्ग है, वह कहीं आसक्त नहीं होता, बँधा नहीं है, इसलिये व्यथित नहीं होता तथा अक्षय है उसका क्षय नहीं होता। इस आत्मज्ञ को यह पाप-पुण्य सम्बन्धी शोक अथवा हर्ष दोनों ही प्राप्त नहीं होते। अतः इस कारण से मैंने पाप किया है और इस कारण से मैंने पुण्य किया है इन दोनों अवस्थाओं से वह ऊपर उठ जाता है। इसे किया हुआ और किया हुआ नित्यकर्म फल प्रदान नहीं करता और न किया हुआ नित्य कर्म ताप नहीं देता। ॥२२॥ तदेतदृचाभ्युक्तम् । एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा नो कनीयान् । तस्यैव स्यात् पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति । तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वाऽऽत्मन्येवाऽऽत्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्वं पाप्मानं तपति विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवति एष ब्रह्मलोकः सम्राड् इति होवाच याज्ञवल्क्यः । सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि माम् चापि सह दास्यायेति ॥ २३॥ यही बात ऋचा द्वारा कही गयी है। यह नेति नेति से वर्णित महिमा - ब्रह्मवेत्ता की नित्य महिमा है, जो न शुभ कर्म से बढ़ती है और न पाप कर्म से घटती ही है। उस महिमा के ही स्वरूप को जाननेवाला होना चाहिये, उसे जानकर पापकर्म से लिप्त नहीं होता। अतः इस प्रकार जाननेवाला शान्त, दान्त, विरक्त, सहनशील और एकाग्र होकर आत्मा में ही आत्मा को देखता है, सभी को आत्मा देखता है। उसे पुण्य- पाप रूप पाप की प्राप्ति नहीं होती, यह सम्पूर्ण पापों को पार कर जाता है। इसे पाप ताप नहीं पहुँचाता, यह सारे पापोंको संतप्त करता है। यह पापरहित, निष्काम, निःसंशय ब्राह्मण हो जाता है। हे सम्राट् ! यह ब्रह्मलोक है, तुम इसमें पहुँचा दिये गये हो-ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा। तब जनकने कहा- भगवन! मैं आपको विदेह देश देता हूँ, साथ ही आपकी दासता (सेवा) करने के लिये अपने आप को भी समर्पित करता हूँ। ॥२३॥ स वा एष महानज आत्माऽन्नादो वसुदानो विन्दते वसु य एवं वेद ॥२४॥ वह महान् अजन्मा आत्मा अन्न भक्षण करनेवाला और कर्मफल देनेवाला है। जो ऐसा जानता है, उसे सम्पूर्ण कर्मों का फल प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ स वा एष महानज आत्माऽजरोऽमरोऽमृतोऽभयो ब्रह्माभयं वै ब्रह्माभय हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद ॥ २५॥ वही महान् अजन्मा आत्मा, अजर, अमर, अमृत एवं अभय ब्रह्म है। अभय ही ब्रह्म है, जो ऐसा जानता है वह अभय ब्रह्म ही हो जाता है। ॥२५॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चतुर्थ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - पञ्चमं ब्राह्मणम् पांचवां ब्राह्मण अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुमैत्रेयी च कात्यायनी च तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञैव तर्हि कात्यायन्यथ ह याज्ञवल्क्योऽन्यद्वृत्तमुपाकरिष्यन् ॥ १॥ यह प्रसिद्ध है कि याज्ञवल्क्य की मैत्रेयी और कात्यायनी ये दो पत्नियाँ थीं। उनमें मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी और कात्यायनी तो स्त्रियों की-सी बुद्धिवाली ही थी। तब याज्ञवल्क्यने दूसरे प्रकारकी चर्या प्रारम्भ करनेकी इच्छा से कहाः ॥१॥ मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्यः प्रव्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि । हन्त तेऽनया कत्यायान्याऽन्तं करवाणीति ॥ २॥ हे मैत्रेयि ! 'मैं इस स्थान (गार्हस्थ्यआश्रम) से अन्यत्र सब कुछ त्याग कर जानेवाला हूँ, अर्थात् संन्यास लेनेका विचार है। इसलिये मैं तेरी अनुमति लेता हूँ और चाहता हूँ इस कात्यायनी के साथ तेरा बँटवारा कर दूँ। ॥ २॥ सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् स्यां न्वहं तेनामृताऽऽ हो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितः स्यादमृतत्वस्य तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति ॥ ३॥ मैत्रेयी ने कहाः भगवन् ! यदि यह धन से सम्पन्न सारी पृथिवी भी मेरी हो जाय तो क्या मैं उससे अमर हो सकती हूँ, अथवा नहीं ? याज्ञवल्क्य ने कहा: नहीं, भोग सामग्रियों से सम्पन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है वैसा ही तेरा जीवन हो जायगा, धन से अमृतत्व की आशा तो की ही नहीं जा सकती । ॥३॥ सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहीति ॥ ४॥ मैत्रेयी ने कहा: जिससे मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करूँगी? श्रीमान् जो कुछ अमृतत्व का साधन जानते हों, वही मुझे बताएं। ॥ ४॥ स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया वै खलु नो भवती सती प्रियमवृधद् धन्त तर्हि भवत्येतद् व्याख्यास्यामि ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ॥ ५॥ याज्ञवल्वय ने कहाः निश्चय ही तू पहले भी हमारी प्रिया रही है और इस समय भी तूने हमारे प्रसन्नता को ही बढ़ाया है। अतः हे देवि! मैं प्रसन्नतापूर्वक तेरे प्रति इस अमृतत्व के साधन की व्याख्या करूँगा। तू मेरे व्याख्या किये हुए विषय का ध्यानपूर्वक चिन्तन करना। ॥५॥ स होवाच न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति । न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति । न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति ॥ न वा अरे पशूनां कामाय पशवः प्रिया भवन्ति आत्मनस्तु कामाय पशवः प्रिया भवन्ति । न वा अरे ब्रह्मणः कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति । न वा अरे क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियं भवति । न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय वेदाः प्रिया भवन्ति । न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति । न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मावा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इद सर्वं विदितम् । ॥६॥ याज्ञवल्वय ने कहा: हे मैत्रेयी! यह निश्चय है की पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती, अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। पुत्रों के प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय होते हैं। धन के प्रयोजन के लिये धन प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिये धन प्रिय होता है। ब्राह्मण के प्रयोजन के लिये ब्रह्मण प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिये ब्राह्मण प्रिय होता हैं। क्षत्रिय के प्रयोजन के लिये क्षत्रिय प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए क्षत्रिय प्रिय होता है। लोकों के प्रयोजन के लिये लोक प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये लोक प्रिय होते हैं। देवताओं के प्रयोजन के लिये देवता प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये देवता प्रिय होते है। प्राणियों के प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये प्राणी प्रिय होते है। तथा सबके प्रयोजन के लिये सब प्रिय नहीं होते, अपने ही प्रयोजन के लिये सब प्रिय होते है। हे मैत्रेयी! यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जाने योग्य है। इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन और जानने से यह सब कुछ जाना जाता है। ॥६॥ ब्रह्म तं परादाद् योऽन्यत्राऽऽत्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद् योऽन्यत्राऽऽत्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुः योऽन्यत्राऽऽत्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुः योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद वेदास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो वेदान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्राऽऽत्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्राऽऽत्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमे वेदा इमानि भूतानीद सर्वं यदयमात्मा ॥ ७॥ ब्राहाण जाति उसे परास्त कर देती है, जो ब्रह्म को आत्मा से भिन्न जानता है। क्षत्रिय जाति उसे परास्त कर देती है, जो क्षत्रिय जाति को आत्मा से भिन्न देखता है। लोक उसे परास्त कर देते है, जो लोकों को आत्मा से भिन्न देखता है। देवगण उसे परास्त कर देते हैं, जो देवताओं को आत्मा से भिन्न देखता है। भूतगण उसे परास्त कर देते है, जो भूतों को आत्मा से भिन्न देखता है। सभी प्राणधारी उसे परास्त कर देते हैं, जो सभी प्राणधारियों को आत्मा से भिन्न देखता है। यह ब्रह्म, यह क्षत्र, यह लोक, यह देवगण, यह भूतगण और यह सब जो कुछ भी है, सब आत्मा ही हैं। ॥७॥ स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ८॥ यह इस तरह है कि जिस प्रकार बजती हुई दुन्दुभि के बाह्य शब्दों को कोई पकड नहीं सकता, किंतु दुन्दुभि के आघात को पकड़ लेने से उसका शब्द भी पकड़ लिया जाता है । ॥८॥ स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद् ग्रहणाय शङ्खस्य तु ग्रहणेन श‌ङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ ९॥ यह ऐसा है, जैसे कोई बजाये जाते हुए शंख के बाह्म शब्दों को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, कितु शंख को अथवा शंख के बजाने वाले को पकड़ लेने से उसका शब्द भी पकड़ लिया जाता है। ॥९॥ स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्छब्दाञ्छक्नुयाद्ब्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः ॥ १०॥ यह ऐसा है, जैसे कोई बजायी जाती हुई वीणा के बाह्य शब्दों को ग्रहण प्राण काने में समर्थ नहीं होता; किंतु वीणा अथवा वीणा को बजाने वाले को पकड़ लेने पर उस शब्द को भी पकड़ लिया जाता है। ॥ १० ॥ स यथाऽऽर्दै धाग्नेर भ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्वरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि इष्ट हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निःश्वसितानि ॥ ११॥ वह ऐसा है, जिस प्रकार गीले ईंधन से प्रदीप्त अग्नि से अलग धुंए के बादल निकलते हैं। हे मैत्रेयी! इसी प्रकार यह जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, मन्त्रविवरण और अर्थवाद हैं, वह सब इस परमात्मा के ही निःश्वास हैं। ॥ ११ ॥ स यथा सर्वासामपा समुद्र एकायनमेव सर्वेषा स्पर्शानां त्वगेकायनमेव सर्वेषां गन्धानां नासिकैकायनं एव सर्वेषा रसानां जिद्वैकायनमेव सर्वेषा रूपाणां चक्षुरेकायनमेव सर्वेषं शब्दानां श्रोत्रमेकायनं एव सर्वेषा सङ्कल्पानां मन एकायनमेव सर्वासां विद्याना हृदयमेकायनमेव सर्वेषां कर्मणा हस्तावेकायनमेव सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनमेव सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेव सर्वेषामध्वनां पादावेकायनमेव सर्वेषां वेदानां वागेकायनम् ॥ १२॥ यह ऐसा है, जैसे समस्त जलों का समुद्र एक अयन (आश्रय स्थान) है, इसी प्रकार समस्त स्पर्शों का त्वचा एक अयन है, इसी प्रकार समस्त गन्धों की दोनों नासिकाएँ एक अयन है, इसी प्रकार समस्त रसों की जिह्वा एक अयन है, इसी प्रकार समस्त रूपों का चक्षु एक अयन है, इसी प्रकार समस्त शब्दों का श्रोत एक अयन है, डसी प्रकार समस्त संकल्पों का मन एक अयन है, इसी प्रकार समस्त विद्याओं का हृदय एक अयन है, इसी प्रकार समस्त कर्मों का हस्त एक अयन है, इसी प्रकार समस्त आनंदों का उपस्थ एक अयन है और इसी प्रकार समस्त विसर्गों का पायु एक अयन है, इसी प्रकार समस्त मार्गों का चरण एक अयन है और इसी प्रकार समस्त वेदों का वाणी एक अयन है। ॥१२॥ स यथा सैन्धवघनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एवै वं वा अरेऽयमात्मानन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनयष्यतिति प्रज्ञानघनसेव एतेभ्यस्भूतेभ्यस्समुत्थाय तानि एव अनुविनयति न प्रेत्य सञ्ज्ञाऽस्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः ॥ १३॥ यह ऐसा है, जैसे जल में डाला हुआ नमक का टुकड़ा जल में ही घुल मिल जाता है, उसे किसी भी प्रकार जल से प्रथक नहीं निकाला जा सकता। चाहे जहाँ से भी जल लिया जाए वह नमकीन ही जान पड़ता है, हे मैत्रेयी! उसी प्रकार यह परमात्मत्तत्त्व अनन्त; अपार और विज्ञानघन ही हैं। यह इन भूतों से प्रकट होकर, इन्ही के साथ नाश को प्राप्त हो जाता है। देह-इन्द्रिय भाव से मुक्त होने पर इसकी कोई विशेष संज्ञा नहीं रहती। हे मैत्रेयी! ऐसा मैं तुझसे कहता हूँ - ऐसा याज्ञवल्क ने कहा।॥ १३ ॥ सा होवाच मैत्रेय्यत्रैव मा भगवान्मोहान्तमापीपिपन् न वा अहमिमं विजानामीति स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यविनाशी वा अरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा ॥ १४॥ मैत्रेयी ने कहा: 'मृत्यु के उपरांत कोई संज्ञा नहीं रहती ऐसा कहकर ही श्रीमान ने मुझे मोह में डाल दिया है। याज्ञवल्क्यने कहा, हे मैत्रेयी! मैं मोह का उपदेश नहीं कर रहा हूँ, हे मैत्रेयी! आत्मा निश्चय ही अविनाशी और अनुच्छेदरूप धर्मवाला है। ॥१४॥ यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतर रसयते तदितर इतरमभिवदति तदितर इतर शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतर स्पृशति तदितर इतरं विजानाति । यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत् तत्केन कं जिघेत् तत्केन क रसयेत् तत्केन कमभिवदेत् तत्केन कः शृणुयात् तत्केन कं मन्वीत तत्केन कः स्पृशेत् तत्केन कं विजानीयाद्येनेद सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् स एष नेति नेत्याऽत्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यते ऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यति । विज्ञातारमरे केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रेय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा याज्ञवल्क्यो विजहार ॥ १५॥ जहाँ अविद्यावस्था में द्वैत सा होता है, वहीं अन्य अन्य को सूंघता है, वही अन्य अन्य को देखता है, अन्य अन्य को सुनता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है, अन्य अन्य का मनन करता है तथा अन्य अन्य को जानता है। किंतु जहाँ इसके लिये सब आत्मा ही हो गया है वहाँ किसके द्वारा किसे सूंघे, किसके द्वारा किसे देखे, किसके द्वारा किसे सुने, किसके द्वारा किसका अभिवादन करे, किसके द्वारा किसका मनन करे और किसके द्वारा किसे जाने? जिसके द्वारा इस सबको जानता है, उसे किसके द्वारा जाने ? हे मैत्रेयी! जानने वाले को किसके द्वारा जाने ? जिसके द्वारा पुरुष इन सबको जानता है, उसे किस साधनसे जाने ? वह यह 'नेति नेति' इस प्रकार निर्देश किया गया आत्मा अगृह्य है- उसका ग्रहण नहीं किया जाता, अशीर्य है-उसका विनाश नहीं होता, असङ्ग है-आसक्त नहीं होता, अबद्ध है-वह व्यथित और क्षीण नहीं होता। हे मैत्रेयि ! विज्ञाताको किसके द्वारा जाने ? इस प्रकार तुझे उपदेश कर दिया गया। हे मैत्रेयि! निश्चय जान, इतना ही अमृतत्व है, ऐसा कहकर याज्ञवल्क्य जी परिव्राजक (संन्यासी) हो गये। ॥१२॥ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः - षष्ठं ब्राह्मणम् छठा ब्राह्मण अथ वशः पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः पौतिमाष्यात् पौतिमाष्यो गौपवनाद् गौपवनः कौशिकात् कौशिकः कौण्डिन्यात् कौण्डिन्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कौशिकाच्च गौतमाच्च गौतमः ॥१॥ अब याज्ञवल्कीय काण्ड का वंश बतलाया जाता है-पौतिमाय ने गौपवन से, गौपवन ने पौतिमाष्य से, पौतिमाष्य ने गौपवन से, गौपवन ने कौशिक से, कौशिक ने कौण्डिन्य से, कौण्डिन्य ने शाण्डिल्य से, शाण्डिल्य ने कौशिक से और गौतम से तथा गौतम ने। ॥ १ ॥ आग्निवेश्यादग्निवेश्यो गार्य्याद् गार्यो गार्ग्यद् गार्यो गौतमाद् गौतमः सैतवात् सैतवः पाराशर्यायणात् पाराशार्यायणो गार्यायणाद् गार्यायण उद्दालकायनादुद्दालकायनो जाबालायनाजु जाबालायनो माध्यन्दिनायनान् माध्यन्दिनायनः सौकरायणात् सौकरायणः काषायणात् काषायणः सायकायनात् सायकायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिः ॥ २॥ आग्निवेश्य से, आग्निवेश्य ने गार्ग्य से, गाये ने गार्ग्य से, गार्य ने गौतम से, गौतम ने सैतव से, सैतव ने पाराशर्यायण से, पारा शर्यायण ने गाायण से, गाायण ने उद्दालका यनसे, उद्दालकायन ने जाबालायन से, जाबालायन ने माध्यन्दिनायन से, माध्यन्दिनायन ने सोकरायण से, सौकरायण ने काषायण से, काषायण ने सायकायन से, सायकायन ने कौशिकायनि से, कौशिकायनि ने। ॥ २ ॥ घृतकौशिकाद् घृतकौशिकः पाराशर्यायणात् पाराशर्यायणः पाराशर्यात् पाराशर्यो जातूकर्ण्यज् जातूकर्ण्य आसुरायणाच्च यास्काच्चाऽऽ सुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरेरासुरि र्भारद्वाजाद् भारद्वाज आत्रेयादात्रेयो माण्टेर्माण्टिर्गौतमाद् गौतमो गौतमाद् गौतमो वात्स्याद् वात्स्यः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात् कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात् कुमारहारितो गालवाद् गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद् विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो बाभ्रवाद् वत्सनपाद्वाभ्रव पथः सौभरात् पन्थाः सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद् विश्वरूपस्त्वाष्टोऽव्श्विभ्यामश्विनौ दधीच आथर्वणाद् दध्यङ्‌ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः प्राध्वसनान् मृत्युः प्राध्वसनः प्रध्वसनात् प्रध्वसन एकर्षेरेकर्षिर्विप्रचित्तेः विप्रचित्तिव्र्व्यष्टव्र्व्यष्टिः सनारोः सनारुः सनातनात् सनातनः सनगात् सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः ॥ ३॥ घृतकौशिक से, घृतकौशिकने पाराशर्यायण से, पाराशर्यायण ने पाराशर्य से, पाराशर्य ने जातूकर्ण्य से, जातूकर्ण्य ने आसुरायण से और यास्क से, आसुरायण ने त्रैवणि से, त्रैवणि ने औपजन्वनि से, औपजन्धनि ने आसुरि से, आसुरि ने भारद्वाज से, भारद्वाज ने आत्रेयले, आत्रेय ने माण्टि से, माण्टि ने गौतम से, गौतम ने गौतम से, गौतम ने वात्स्य से, वात्स्य ने शाण्डिल्य से, शाण्डिल्य ने कैशोर्य काप्य से, कैशोर्य काप्य ने कुमारहारित से, कुमारहारित ने गालव से, गालब ने विदर्भाकौण्डिन्य से, विदर्भीकौण्डिन्य ने वत्सनपाद् बाभ्रव से, वत्सनपाद् बाभ्रव ने पन्था सौभर से, पन्था सौभर ने अयास्य आङ्गिरस से, अयास्य आङ्गिरस ने आभूति त्वाष्ट्र से, आभूति त्वाष्ट्र ने विश्वरूप त्वाष्ट्र से, विश्वरूप वाष्ट्र ने अश्विनीकुमारों से, अश्विनीकुमारों ने दध्य‌ङाथर्वण से, दध्यङ्‌ङाथर्वण ने अथर्वा देव से, अथर्वा देव ने मृत्यु प्राध्वंसन से, मृत्यु प्राध्वंसन ने प्रध्वंसन से, प्रध्वंसन ने एकर्षि से, एकर्षि ने विप्रचित्ति से, विप्रचित्ति ने व्यष्टि से, व्यष्टि ने सनारु से, सनारु ने सनातन से, सनातन ने सनग से, सनग ने परमेष्ठी से, परमेष्ठी ने ब्रह्मा से यह विद्या प्राप्त की। ब्रह्म स्वयम्भू है, ब्रह्म को नमस्कार है। ॥३॥ ॥ इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ बृहदारण्य उपनिषद का चौथा अध्याय समाप्त ॥

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