Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 4 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) चतुर्थ अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ ॐ ततस्तस्मान्निर्विशेषमतिनिर्मलं भवति । अविद्यापादमतिशुद्धं भवति । शुद्धबोधानन्द- लक्षणकैवल्यं भवति । ब्रह्मणः पादचतुष्टयं निर्विशेषं भवति । अखण्डलक्षणाखण्डपरिपूर्ण- सच्चिदानन्दस्वप्रकाशं भवति । अद्वितीयमनीश्वरं भवति । अखिलकार्यकारणस्वरूपमखण्डचिद्घनानन्द- स्वरूपमतिदिव्यमङ्गलाकारं निरतिशयानन्दतेजोराशि- विशेषं सर्वपरिपूर्णानन्तचिन्मयस्तग्भाकारं शुद्धबोधानन्दविशेषाकारमनन्तचिद्विलासविभूति- समष्ट्याकारमद्भुतानन्दाश्चर्यविभूतिविशेषाकारमनन्त- परिपूर्णानन्ददिव्यसौदामिनीनिचयाकारम् । एवमाकारमद्वितीयाखण्डानन्दब्रह्मस्वरूपं निरूपितम् । ॐ। उपाधि का नाश हो जाने के कारण ब्रह्म का निर्विशेष रूप अत्यन्त निर्मल होता है। वह अविद्या से परे, अतः अत्यन्त शुद्ध है। शुद्ध बोधानन्दमय कैवल्यस्वरूप है। ब्रह्म के चारों पाद निर्विशेष हैं। वह अखण्डस्वरूप, सर्वतः परिपूर्ण, स्वयंप्रकाश सच्चिदानन्द है। अद्वितीय तथा ईश्वररहित है-अर्थात् उसका कोई स्वामी, नियन्ता नहीं है। वह ब्रह्म समस्त कार्यकारणस्वरूप, अखण्ड चिङ्घनानन्दरूप, अतिदिव्य मङ्गलाकार, निरतिशय आनन्दरूप तेजोराशिविशेष, सर्वपरिपूर्ण, अनन्त चिद्विलासमय विभूति का समष्टिरूप, अद्भुत आनन्दमय आश्चर्य पूर्ण विभूति विशेष स्वरूप, अनन्त चिन्मय स्तम्भाकार, शुद्ध ज्ञानानन्द विशेष स्वरूप, अनन्त परिपूर्णानन्दमय दिव्य विद्युन्माला स्वरूप है। इस प्रकार ब्रह्म का अद्वितीय अखण्डानन्दमय स्वरूप वर्णित हुआ ॥ १ ॥ अथ छात्रो वदति । भगवन्पादभेदादिकं कथं कथमद्वैतस्वरूपमिति निरूपितम् । देशिकः परिहरति । फिर शिष्य कहता है- भगवन् ! ब्रह्म के पाद भेदादि कैसे सम्भव हैं और यदि हैं तो वह अद्वैतस्वरूप है यह किस प्रकार कहा गया?' ॥२॥ विरोधो न विद्यते ब्रह्माद्वितीयमेव सत्यम् । तथैवोक्तं च । ब्रह्मभेदो न कथितो ब्रह्मव्यतिरिक्तं न किंचिदस्ति । पादभेदादिकथनं तु ब्रह्मस्वरूपकथनमेव । तदेवोच्यते । पादचतुष्टयात्मकं ब्रह्म तत्रैकमविद्यापादम् । पादत्रयममृतं भवति । शाखान्तरोपनिषत्स्वरूपमेव निरूपितम् । तमसस्तु परं ज्योतिः परमानन्दलक्षणम् । पादत्रयात्मकं ब्रह्म कैवल्यं शाश्वतं परमिति । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेवंविद्वानमृतैह भवति । नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं परंज्योतिस्तमस उपरि विभाति । यदेकमव्यक्तमनन्तरूपं विश्वं पुराणं तमसः परस्तात् । तदेवर्तं तदु सत्यमाहुस्तदेव सत्यं तदेव ब्रह्म परमं विशुद्धं कथ्यते । तमश्शब्देनाविद्या । गुरु शंका का समाधान करते हैं-'इसमें विरोध नहीं है। ब्रह्म अद्वैत है, यही सत्य है और यही कहा गया है। ब्रह्म में भेद नहीं बताया गया है; क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। पादभेदादि का वर्णन तो ब्रह्म के स्वरूप का ही वर्णन है। वही कहा जा रहा है। ब्रह्म चार पादवाला (चतुःपादात्मक) है। इन (चारों पादों) में एक अविद्यापाद है और तीन पाद अमृत (नित्य) हैं। दूसरी शाखाओं के उपनिषदों में वर्णित स्वरूप का ही यहाँ वर्णन किया गया है। शाखान्तरीय उपनिषदोंमें इस प्रकारके वचन मिलते हैं- त्रिपाद स्वरूप ब्रह्म अविद्या रूप अन्धकार से परे, ज्योतिर्मय, परमानन्द स्वरूप एवं सनातन परम कैवल्यरूप है। मैं इस आदित्य के समान प्रकाशमय, तमस् के परे स्थित महान् पुरुष को जानता हूँ। उसको इस प्रकार तमस् से परे तेजोमय रूप में जाननेवाला यहाँ संसार में अमृतस्वरूप अर्थात मुक्त हो जाता है। मोक्षप्राप्ति के लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं है। सम्पूर्ण ज्योतियों की ज्योति तमस् से परे कही गयी है। सबकी आधारभूत, अचिन्त्यस्वरूप, आदित्यवर्ण, प्रकाशस्वरूप परम ज्योति तमस् से ऊपर (परे) प्रकाशित है। जो एक, अव्यक्त, अनन्तस्वरूप, विश्वरूप पुरातन तत्त्व तमस से परे अवस्थित है, वही ऋत (समस्त काम्य कर्मो का फल-स्वर्गादि) है। उसी को सत्य (निष्काम भाव का प्राप्य) कहा गया है। वही सत्य (नित्यसत्ता) है। वही परम विशुद्ध ब्रह्म है। (इन मन्त्रों में) तमस-शब्द के द्वारा अविद्या कही जाती है' ॥ ३-८॥ पादोऽस्य विश्वा भूतानि । त्रिपादस्यामृतं दिवि । त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः । पादोऽस्येहाभवत्पुनः । ततो विश्वङ् व्यक्रामत् । साशनाऽनशने अभि । विद्यानन्दतुरीयाख्यपादत्रयममृतं भवति । अवशिष्टमविद्याश्रयमिति । 'समस्त भूत इन ब्रह्म-को एक पाद (भाग) हैं। इनके शेष तीन पाद अमृतस्वरूप (नित्य) हैं, जो परम व्योम में प्रतिष्ठित हैं। तीन पादों वाला पुरुष सबसे ऊपर प्रकाशित है और इसको अवशिष्ट एक पाद सम्पूर्ण जीवों के रूप में इस जगत में प्रकट हुआ। इसके बाद वह जड़-चेतनात्मक विश्व में चारों ओर व्याप्त हो गया। विद्या, आनन्द एवं तुरीय नामक तीन पाद शाश्वत हैं। शेष चौथा पाद अविद्याके आश्रित है॥९-१० ॥ आत्मारामस्यानादिनारायणस्य कीदृशावुन्मेषनिमेषौ तयोः स्वरूपं कथमिति । (शिष्य पूछता है-) आत्माराम श्रीआदिनारायण के उन्मेष-निमेष (नेत्रोन्मीलन-निमीलन) कैसे होते हैं? उनका स्वरूप क्या है?' ॥ ११ ॥ गुरुर्वदति । पराग्दृष्टिरुन्मेषः । प्रत्यग्दृष्टिर्निमेषः । प्रत्यग्दृष्ट्या स्वस्वरूपचिन्तनमेव निमेषः । पराग्दृष्ट्या स्वस्वरूपचिन्तनमेवोन्मेषः । यावदुन्मेषकालस्तावन्निमेषकालो भवति । अविद्यायाः स्थितिरुन्मेषकाले निमेषकाले तस्याः प्रलयो भवति । े यथा उन्मेषो जायते तथा चिरन्तनातिसूक्ष्मवासनाबलात्पुनरविद्याया उदयो भवति । यथापूर्वमविद्याकार्याणि जायन्ते । कार्यकारणोपाधिभेदाज्जीवेश्वरभेदोऽपि दृश्यते । कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः । ईश्वरस्य महामाया तदाज्ञावशवर्तिनी । तत्संकल्पानुसारिणी विविधानन्तमहामाया- शक्तिसंसवेतिनानन्तमहामाया जालजननमन्दिरा महाविष्णोः क्रीडाशरीररूपिणी ब्रह्मादीनामगोचरा । एतां महामायां तरन्त्येव ये विष्णुमेव भजन्ति नान्ये तरन्ति कदाचन । विविधोपयैरपि अविद्याकार्याण्यन्तःकरणान्यतीत्य कालाननु तानि जायन्ते । ब्रह्मचैतन्यं तेषु प्रतिबिम्बितं भवति । प्रतिबिम्बा एव जीवा इति कथ्यन्ते । अन्तःकरणोपाधिकाः सर्वे जीवा इत्येवं वदन्ति । महाभूतोत्थसूक्ष्माङ्गोपाधिकाः सर्वे जीवा इत्येके वदन्ति । बुद्धिप्रतिबिम्बितचैतन्यं जीवा इत्यपरे मन्यन्ते । एतेषामुपाधीनामत्यन्तभेदो न विद्यते । सर्वपरिपूर्णो नारायणस्त्वनया निजया क्रीडति स्वेच्छ्या सदा । तद्वदविद्यमानफल्गुविषयसुखाशयाः सर्वे जीवाः प्रभावन्त्यसारसंसारचक्रे । एवमनादिपरम्परा वर्ततेऽनादिसंसारविपरीतभ्रमादित्युपनिषत् ॥ गुरु बतलाते हैं-'बाह्य-दृष्टि उन्मेष (पलक खोलना) है और आन्तरिक दृष्टि निमेष (पलक बंद करना) है। अन्तर्दृष्टि से अपने स्वरूप का चिन्तन करना ही निमेष (पलक बंद करना) है। बाह्य- दृष्टि से अपने स्वरूप का चिन्तन करना ही उन्मेष (पलक खोलना) है। जितने परिमाण को उन्मेषकाल होता है, उतने ही परिमाण का निमेषकाल भी होता है। उन्मेषकाल में अविद्या की स्थिति होती है। निमेषकाल में उस अविद्या को लय होता है। जैस उन्मेष होता है, वैसे ही चिरंतन अत्यन्त सूक्ष्म वासना के प्रभाव से फिर अविद्या का उदय हो जाता है। पहले की भाँति ही अविद्या के कार्य उत्पन्न हो जाते हैं। फिर कार्य तथा कारणरूप उपाधि के भेद से जीव एवं ईश्वर का भेद भी दिखायी देने लगता है। यह जीव कार्यरूप उपाधि से युक्त है और ईश्वर कारणरूप उपाधि से युक्त हैं। ईश्वर की महामाया उन्हीं की आज्ञा के अधीन रहती हैं। वह महा माया उन ईश्वर के संकल्प के अनुसार कार्य करनेवाली, विविध प्रकार की अनन्त महामायाशक्तियों से भली प्रकार सेवित, अनन्त महामायाजाल की उत्पत्ति का स्थान, महाविष्णु की लीलाशरीर रूपिणी तथा ब्रह्मादि के लिये भी अगोचर हैं। जो भगवान् विष्णु का ही भजन करते हैं, वे इन महामाया को अवश्य पार कर जाते हैं। दूसरे लोग जो भगवान् विष्णु का भजन नहीं करते अनेक उपायों का अवलम्बन करके भी कभी नहीं तरते। अविद्याके कार्यरूप अन्तःकरणों का आश्रय लेकर वे अनन्तकाल तक जन्मते रहते हैं; क्योंकि उन अन्तःकरणों में ब्रह्मचैतन्य प्रतिबिम्बित होता है। प्रतिबिम्ब ही जीव कहलाते हैं। सभी जीव अन्तःकरण की उपाधि से युक्त हैं, ऐसा कुछ लोग कहते हैं। समस्त जीव महाभूतों से उत्पन्न सूक्ष्म शरीर रूप उपाधि से युक्त हैं, इस प्रकार दूसरे लोग कहते हैं। बुद्धि में प्रतिबिम्बित चैतन्य ही जीव है, ऐसा दूसरों का मत है। इन सब (जीवों) में उपाधि को लेकर ही भेद है, अत्यन्त भेद नहीं है। सर्वतः परिपूर्ण श्रीनारायण तो अपनी इस इच्छाशक्ति से सदा लीला किया करते हैं। इसी प्रकार सब जीव अज्ञानवश उन तुच्छ विषयों में, जिनमें सुख नहीं है, सुखप्राप्ति की आशा से असार संसार चक्र में दौड़ते रहते हैं। इस प्रकार अनादि संसार-वासना रूप विपरीत-भ्रम के कारण ही जीवों की संसार-चक्र में घूमने की अनादि-परम्परा चलती रहती है' ॥ १२-१४॥ ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ॥

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