ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३८

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३८ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- सविता । छंद- त्रिष्टुप उदु ष्य देवः सविता सवाय शश्वत्तमं तदपा वह्निरस्थात् । नूनं देवेभ्यो वि हि धाति रत्नमथाभजद्वीतिहोत्रं स्वस्तौ ॥१॥ सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाले, प्रकाशक तथा तेजस्वी सवितादेव सभी (प्राणियों) को कर्म की प्रेरणा देते हुए प्रतिदिन उदित होते हैं। देवत्व धारियों (स्तोताओं) के लिए ये सवितादेव रत्न धारण करते हैं। अतः वे स्तोता अपने मंगल की कामना से यज्ञ करें ॥१॥ विश्वस्य हि श्रुष्टये देव ऊर्ध्वः प्र बाहवा पृथुपाणिः सिसर्ति । आपश्चिदस्य व्रत आ निमृग्रा अयं चिद्वातो रमते परिज्मन् ॥२॥ ये तेजस्वी सवितादेव उदित होकर सम्पूर्ण विश्व के सुख के लिए अपनी विशाल (किरणों रूपी) भुजाओं को फैलाते हैं। सवितादेव के अनुशासन में ही अत्यन्त पवित्र जल प्रवाहित होता है तथा उन्हीं के नियमों में आबद्ध वायु भी प्रवाहित होते हुए आनन्दित होती है॥२॥ आशुभिश्चिद्यान्वि मुचाति नूनमरीरमदतमानं चिदेतोः । अह्यषूणां चिन्ययाँ अविष्यामनु व्रतं सवितुर्मोक्यागात् ॥३॥ अस्त होते हुए सवितादेव अपनी द्रुतगामी रश्मियों को समेट कर चलते हुए यात्रियों को रोक देते हैं। शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले वीरों को रोक देते हैं उनके इस कर्म की समाप्ति के बाद ही रात्रि का आगमन होता है॥३॥ पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोर्यधाच्छक्म धीरः । उत्संहायास्थाद्व्यूतूरदर्धररमतिः सविता देव आगात् ॥४॥ अन्धकार रूपी रात्रि वस्त्र बुनने की तरह सम्पूर्ण प्रकाश को आबद्ध कर लेती है। ज्ञानीजन (ऐसी स्थिति में) करने योग्य कार्यों को बीच में ही रोक देते हैं तथा कभी न रुकने वाले ऋतु विभाग कर्ता सवितादेव के उदित होते ही सम्पूर्ण जगत् निद्रा को त्याग देता है ॥४॥ नानौकांसि दुर्यो विश्वमायुर्वि तिष्ठते प्रभवः शोको अग्नेः । ज्येष्ठं माता सूनवे भागमाधादन्वस्य केतमिषितं सवित्रा ॥५॥ जिस प्रकार अग्नि का तेज़ घरों तथा समस्त जीवन में व्याप्त है, उसी प्रकारे सवितादेव का तेज सम्पूर्ण लोकों में व्याप्त है। उषा माता सवितादेव द्वारा प्रदत्त यज्ञ के श्रेष्ठ भाग को अपने पुत्र अग्नि के लिए धारण करती हैं॥५॥ समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वषां कामश्चरताममाभूत् । शश्वाँ अपो विकृतं हिव्यागादनु व्रतं सवितुर्दैव्यस्य ॥६॥ सवितादेव के अस्त हो जाने पर विजयाकांक्षी वीर योद्धा आक्रमण को बीच में ही रोक देता है। गतिमान् प्राणी घर जाने की इच्छा करते हैं तथा सतत कार्य करने वाले भी अधूरे काम को रोककर घर लौट आते हैं॥६॥ त्वया हितमप्यमप्सु भागं धन्वान्वा मृगयसो वि तस्थुः । वनानि विभ्यो नकिरस्य तानि व्रता देवस्य सवितुर्मिनन्ति ॥७॥ हे सवितादेव ! अन्तरिक्ष में आपने जो जल भाग स्थापित किया है, उसे प्राणी मरुप्रदेशों में भी प्राप्त करते हैं। आपने ही पक्षियों के (आश्रय) के लिए जंगल प्रदान किये हैं। ऐसे तेजस्वी सविता देव के कर्म को कोई नष्ट नहीं कर सकता ॥७॥ याद्राध्यं वरुणो योनिमप्यमनिशितं निमिषि जर्भुराणः । विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुर्गात्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः ॥८॥ सविता देव के अस्त हो जाने पर सतत गमनशील वरुण देव सभी को सुखकारी तथा वांछनीय आश्रयं प्रदान करते हैं। इस प्रकार सवितादेव के अस्त होते ही पक्षी तथा जानवर अपने-अपने स्थान पर पहुँचकर अलग-अलग हो जाते हैं॥८ ॥ न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रतमर्यमा न मिनन्ति रुद्रः । नारातयस्तमिदं स्वस्ति हुवे देवं सवितारं नमोभिः ॥९॥ जिन सवितादेव के अनुशासन को इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा तथा रुद्रदेव भी नहीं तोड़ सकते हैं और न ही शत्रु तोड़ सकते हैं- ऐसे तेजस्वी सवितादेव को हम अपने मंगल की कामना से नमस्कार पूर्वक आवाहित करते हैं ॥९॥ भगं धियं वाजयन्तः पुरंधिं नराशंसो ग्नास्पतिर्नो अव्याः । आये वामस्य संगथे रयीणां प्रिया देवस्य सवितुः स्याम ॥१०॥ समस्त जगत् को धारण करने वाले, सुखदाता, स्तुत्य, भजनीय, ज्ञानदाता तथा प्रज्ञा पालक सविता देव हमारी रक्षा करें। उत्तम ऐश्वर्य तथा पशु आदि सम्पदाओं के प्राप्त होने पर भी हम सवितादेव के प्रिय होकर रहें ॥१०॥ अस्मभ्यं तद्दिवो अद्भयः पृथिव्यास्त्वया दत्तं काम्यं राध आ गात् । शं यत्स्तोतृभ्य आपये भवात्युरुशंसाय सवितर्जरित्रे ॥११॥ हे सवितादेव ! आपके द्वारा प्रदत्त ऐश्वर्य स्तोताओं तथा उनके वंशजों के लिए कल्याणकारी हैं, अतः द्युलोक, भूलोक तथा अन्तरिक्षलोक का कान्तियुक्त ऐश्वर्य में प्रदान करें। हम आपकी स्तुति करते हैं॥११॥

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