Mandal Brahman Upanishad Fourth Brahman (मण्डल ब्राह्मण उपनिषद) चतुर्थ ब्राह्मण

॥ श्री हरि ॥ ॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद ॥ चतुर्थं ब्राह्मणम्-चतुर्थ ब्राह्मण अथ ह याज्ञवल्क्यो मण्डलपुरुषं पप्रच्छ व्योमपञ्चकलक्षणं विस्तरेणानुब्रूहीति । स होवाचाकाशं पराकाशं महाकाशं सूर्याकाशं परमाकाशमिति पञ्च भवन्ति । बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम् । बाह्यस्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशम् । सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशम् । सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशम् । अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापकं निरतिशयानन्दलक्षणं परमाकाशम् । एवं तत्तल्लक्ष्यदर्शनात्तत्तद्रूपो भवति । नवचक्रं षडाधारं त्रिलक्ष्यं व्योमपञ्चकम् । सम्यगेतन्न जानाति स योगी नामतो भवेत् ॥ १॥ इसके बाद ऋषि याज्ञवल्क्य ने मण्डल पुरुष (सूर्यमण्डल स्थित पुरुष) से प्रश्न किया कि अब आप मुझे 'आकाश पञ्चक' का लक्षण सविस्तार बताएँ। उन्होंने कहा कि आकाश के पाँच प्रकार हैं- आकाश, पराकाश, महाकाश, सूर्याकाश और परमाकाश ॥ जो बाहर और भीतर से अन्धकारमय है, वह आकाश है। जो बाहर और भीतर से कालाग्नि सदृश है, वह पराकाश है। जो बाहर और अन्दर से अपरिमित कान्ति के समान है, वह तत्त्व महाकाश है। जो बाहर और भीतर से सूर्य सदृश है, वह सूर्याकाश है तथा जो अनिर्वचनीय ज्योति वाला सर्वव्यापक और अतिशय आनन्द के लक्षण से युक्त है, वह परमाकाश है। इस प्रकार मनुष्य जिस-जिस लक्ष्य का दर्शन करता है, वह उसी-उसी की तरह हो जाता है। जो नवचक्र (षड्चक्र तथा तालु, आकाश एवं भूचक्र), षड्‌आधार (मूलाधार आदि षड्‌आधार), त्रिलक्ष्य (अन्तर्लक्ष्य, बहिर्लक्ष्य एवं मध्यलक्ष्य) और व्योम पञ्चक (आकाश, पराकाश, महाकाश, सूर्याकाश और परमाकाश) को सम्यक् प्रकार से नहीं जानता है, वह नाममात्र का योगी है (अर्थात् योगी को इन सभी का ज्ञान होना आवश्यक है) ॥१॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ४॥ ॥ चतुर्थ ब्राह्मण समाप्त ॥

Recommendations