ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४१

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४१ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - विश्वेदेवा, । छंद त्रिष्टुप, १६-१७ अतिजगती, २० एकपदा विराट् को नु वां मित्रावरुणावृतायन्दिवो वा महः पार्थिवस्य वा दे । ऋतस्य वा सदसि त्रासीथां नो यज्ञायते वा पशुषो न वाजान् ॥१॥ हे मित्रावरुण देव ! कौन यजमान आपके यजन में समर्थ होता है ? हम आपका यजन करने वाले हैं। आप द्युलोक, पृथिवी लोक और अन्तरिक्ष लोक के स्थान से हमारी रक्षा करें। हमें पशु, अन्न, धन आदि से युक्त करें ॥१॥ ते नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतो जुषन्त । नमोभिर्वा ये दधते सुवृक्तिं स्तोमं रुद्राय मीळ्हुषे सजोषाः ॥२॥ हे मित्र, वरुण, अर्यमा, आयु (वायु), इन्द्र, ऋभुक्षा और मरुत् देवो ! आप सब देवगण हमारे शुभ्र स्तोत्रों को ग्रहण करें । आप सब मंगलकारी रुद्रदेव के साथ मिलकर हमारे नमस्कार और अभिवादन युक्त स्तोत्रों को प्रीतियुक्त मन से स्वीकार करें ॥२॥ आ वां येष्ठाश्विना हुवध्यै वातस्य पत्मत्रथ्यस्य पुष्टौ । उत वा दिवो असुराय मन्म प्रान्धांसीव यज्यवे भरध्वम् ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! वायु के सदृश वेगवान् अश्वों को रथ के मजबूत स्थान से आप भली प्रकार नियंत्रित करते हैं। आपका हम यज्ञ- सेवनार्थ आवाहन करते हैं। हे अंत्वजो ! आप दीप्तिमान्, अतिशय पूज्य और प्राण-प्रदाता रुद्रदेव के लिए उत्तम स्तोत्र और हविष्यान्न प्रस्तुत करें ॥३॥ प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः । पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥ मेधावी जन जिनका आवाहन करते हैं, जो अत्यन्त दिव्य हैं, शत्रुविनाशक हैं, वे वायु, अग्नि, पूषा और भगदेव सम्मिलित होकर तीनों लोकों में व्याप्त होने वाले सूर्यदेव के साथ मिलकर प्रीतिपूर्वक यज्ञ में आएँ। सभी देवगण यज्ञ में सम्पूर्ण हविरूप भोज्य पदार्थ ग्रहण करने के लिए युद्ध क्षेत्र में जाते हुए वेगवान् अश्व की भाँति अतिशीघ्र आगमन करें ॥४॥ प्र वो रयिं युक्ताश्वं भरध्वं राय एषेऽवसे दधीत धीः । सुशेव एवैरौशिजस्य होता ये व एवा मरुतस्तुराणाम् ॥५॥ हे मरुतो ! उत्तम अश्वों से युक्त ऐश्वर्य को हमारे निमित्त स्थापित करें । हम स्तोतो धन प्राप्ति के निमित्त और रक्षा के निमित्त उत्तम बुद्धि से आपका स्तवन करते हैं। हे मरुतो! आपके जो वेगवान् अश्व हैं, उन अश्वों को पाकर 'औशिज' के होतागण सुखी हों ॥५॥ प्र वो वायुं रथयुजं कृणुध्वं प्र देवं विप्रं पनितारमकैः । इषुध्यव ऋतसापः पुरंधीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः ॥६॥ हे ऋत्विजो ! आप अत्यन्त द्युतिमान्, ज्ञानी, स्तुति योग्य वायुदेव को अर्चनीय स्तोत्रों द्वारा रथ से संयुक्त करें। सर्वत्र गमन करने वाली, यज्ञ ग्रहण करने वाली रूपवती देवपलियाँ हमारी स्तुतियों को धारण कर यज्ञ में आगमन करें ॥६॥ उप व एषे वन्द्येभिः शूषैः प्र यह्वी दिवश्चितयद्भिरकैः । उषासानक्ता विदुषीव विश्वमा हा वहतो मर्त्याय यज्ञम् ॥७॥ हे उषा और रात्रि देवियो ! आप दोनों अत्यन्त महान् हैं। हम वन्दनीय स्वर्ग के देवों के साथ आप दोनों को श्रेष्ठ हवि प्रदान करते हैं। आप दोनों विदुषियों की तरह मनुष्य को सम्पूर्ण यज्ञादि कर्मों में प्रेरित करती हैं ॥७॥ अभि वो अर्चे पोष्यावतो नृन्वास्तोष्पतिं त्वष्टारं रराणः । धन्या सजोषा धिषणा नमोभिर्वनस्पतीँरोषधी राय एषे ॥८॥ धन प्राप्ति के लिए हम मनुष्यों के पोषक वास्तोष्पति और त्वष्टा देव की उत्तम स्तोत्रों द्वारा अर्चना करते हैं। हव्यादि द्वारा उन्हें संतुष्ट करते हैं। धन देने वाली, आनन्द देने वाली धिषणा (वाणी) की स्तुति करते हैं। वनस्पतियों और ओषधियों की हम स्तुति करते हैं ॥८॥ तुजे नस्तने पर्वताः सन्तु स्वैतवो ये वसवो न वीराः । पनित आप्त्यो यजतः सदा नो वर्धान्नः शंसं नर्यो अभिष्टौ ॥९॥ वीरों के सदृश जगत् के आश्रय-भूत मेघ, स्वेच्छा से सर्वत्र विहार करते हैं। वे विपुल दान के विषय में हमारे प्रति अनुकूल हों। वे हमारे द्वारा स्तुत्य, ज्ञानी, यजनीय और मनुष्यों के हितैषी हैं। वे हम लोगों की स्तुति से तुष्ट होकर अभीष्ट फल प्रदान कर हमें समृद्ध करें ॥९॥ वृष्णो अस्तोषि भूम्यस्य गर्भ त्रितो नपातमपां सुवृक्ति । गृणीते अग्निरेतरी न शूषैः शोचिष्केशो नि रिणाति वना ॥१०॥ वृष्टि द्वारा भूमि को सींचने में समर्थ मेघ के गर्भ में स्थित जल के रक्षक अग्निदेव की हम उत्तम स्तोत्रों द्वारा स्तुति करते हैं। तीनों लोकों में व्याप्त होने वाले वे अग्निदेव जाते हुए अपनी सुखकर रश्मियों से हमें प्रताड़ित नहीं करते; किन्तु अपनी प्रदीप्त ज्वालाओं रूपी केशों से वनों को जलाकर भस्मीभूत कर देते हैं ॥१०॥ कथा महे रुद्रियाय ब्रवाम कद्राये चिकितुषे भगाय । आप ओषधीरुत नोऽवन्तु द्यौर्वना गिरयो वृक्षकेशाः ॥११॥ हम महान् रुद्र-पुत्र मरुद्गणों की किस प्रकार स्तुति करें ? धन प्राप्त करने की आकांक्षा से ज्ञान सम्पन्न भगदेव का स्तवन कैसे करें ? जलदेव, ओषधियाँ, आकाशदेव, वन और वृक्ष रूप केश वाले पर्वतदेव हमारी सब प्रकार से रक्षा करें ॥११॥ शृणोतु न ऊर्जा पतिर्गिरः स नभस्तरीयाँ इषिरः परिज्मा । शृण्वन्त्वापः पुरो न शुभ्राः परि सुचो बबृहाणस्याद्रेः ॥१२॥ अन्तरिक्ष में सर्वत्र संचरित होने वाले, पृथ्वी के चतुर्दिक परिभ्रमणशील, बलों के अधिपति वायुदेव हमारी स्तुतियों का श्रवण करें । नगरों के सदृश उज्ज्वल, विशाल पर्वत के चतुर्दिक निस्सृत जल-धारा हमारे वचनों का श्रवण करे ॥१२॥ विदा चिन्नु महान्तो ये व एवा ब्रवाम दस्मा वार्यं दधानाः । वयश्चन सुभ्व आव यन्ति क्षुभा मर्तमनुयतं वधस्तैः ॥१३॥ हे महान् मरुतो ! आप हमारे स्तोत्रों को जानें। हे दर्शनीय मरुतो ! हम लोग वरणीय हविष्यान्न को धारण करते हुए उत्तम स्तोत्रों से आपकी स्तुति करते हैं। आप क्षुब्ध होकर आने वाले शत्रुओं को आयुधों से मारकर हम लोगों के सम्मुख आयें ॥१३॥ आ दैव्यानि पार्थिवानि जन्मापश्चाच्छा सुमखाय वोचम् । वर्धन्तां द्यावो गिरश्चन्द्राग्रा उदा वर्धन्तामभिषाता अर्णाः ॥१४॥ हम द्युलोक और पृथिवी लोक से जल की उत्तम स्तुतियाँ करके यज्ञ को भली प्रकार सम्पादित करते हैं। सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह-नक्षत्र भी हमारी स्तुतियों को प्रवृद्ध करें। जल से परिपूर्ण नदियाँ जल से हमें संवर्द्धित करें ॥१४॥ पदेपदे मे जरिमा नि धायि वरूत्री वा शक्रा या पायुभिश्च । सिषक्तु माता मही रसा नः स्मत्सूरिभिऋजुहस्त ऋजुवनिः ॥१५॥ माता भूमि के प्रति प्रत्येक पद में हमारी स्तुतियाँ समाहित हैं। वे माता अपने रक्षण-साधनों और सामथ्र्यो से हमारी रक्षा करने वाली हों। वे हमारी स्तुतियों को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करें और प्रसन्न होकर अनुकूल हाथों से कल्याणकारी दान करने वाली हों। वे माता अपने दिव्य रसों से हमारा सिंचन करें ॥१५॥ कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ । मा नोऽहिर्बुध्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः ॥१६॥ हम लोग उत्तम दानशील मरुतों का स्तवन किस प्रकार करें ? स्तोत्रों के उच्चारण द्वारा हम किस प्रकार मरुतों की सेवा करें ? हविष्यान्न देकर हम किस प्रकार मरुतों की सेवा करें? हे अहिर्बुध्य देव ! हमें हिंसकजन अपने वश में न कर सकें। आप हमारे शत्रुओं को विनष्ट करने वाले हों ॥१६॥ इति चिन्नु प्रजायै पशुमत्यै देवासो वनते मर्यो व आ देवासो वनते मर्यो वः । अत्रा शिवां तन्वो धासिमस्या जरां चिन्मे निर्ऋतिर्जग्रसीत ॥१७॥ हे देवो ! यजमान, सन्तान और पशुओं की प्राप्ति के लिए हम आपकी उपासना करते हैं। हे देवो! सभी मनुष्य आपकी उपासना करते हैं । निर्वातिदेव कल्याणकारी अन्न देकर हमारे शरीर का पोषण करें और हमारे बुढ़ापे को निगलकर दूर करें ॥१७॥ तां वो देवाः सुमतिमूर्जयन्तीमिषमश्याम वसवः शसा गोः । सा नः सुदानुर्मृळयन्ती देवी प्रति द्रवन्ती सुविताय गम्याः ॥१८॥ हे प्रकाशवान् वसुओ ! हम उत्तम स्तुतियों द्वारा आपकी सुमतिरूप गौ से बल प्रदायक अन्न (पोषण) प्राप्त करें। वे दानवती, सुखदायिनी देवी हमें सुख देती हुई हमारे पास आएँ ॥१८॥ अभि न इळा यूथस्य माता स्मन्नदीभिरुर्वशी वा गृणातु । उर्वशी वा बृहद्दिवा गृणानाभ्यूर्वाना प्रभृथस्यायोः ॥१९॥ गौ समूह की पोषणकत्र इला और उर्वशी, नदियों की गर्जना से संयुक्त होती हमारी स्तुतियों को सुनें। अत्यन्त दीप्तिमती उर्वशी हमारी स्तुतियों से प्रशंसित होकर हमारे यज्ञादि कर्म को सम्यक्रूप से आच्छादित कर हमारी हवियों को ग्रहण करें ॥१९॥ सिषक्तु न ऊर्जव्यस्य पुष्टेः ॥२०॥ बल वृद्धि और सम्यक् पोषण के लिए देवगण हमारी स्तुतियों को स्वीकार करें ॥२०॥

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