Swetasvatara Upanishad Chapter 6 (श्वेताश्वतरोपनिषद) छठा अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ॥ छठा अध्याय स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः । देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥१॥ कितने ही बुद्धिमान् लोगः स्वभाव को जगत का कारण बताते हैं। तथा उसी प्रकार अन्ये कुछ दूसरे लोग, काल को जगत का कारण बतलाते हैं। वास्तव में यह लोग मोहग्रस्त हैं अतः वास्तविक कारण को नहीं जानते। वास्तव में तो यह परमदेव परमेश्वर की समस्त जगत में फैली हुई महिमा है, जिसके द्वारा यह ब्रह्मचक्र घुमाया जाता है। ॥१॥ येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद् यः । तेनेशितं कर्म विवर्तते ह पृथिव्यप्तेजोनिलखानि चिन्त्यम् ॥२॥ जिस परमेश्वर से यह सम्पूर्ण जगत् सदा व्याप्त है। जो ज्ञानस्वरुप परमेश्वर निश्चय ही काल का भी महाकाल सर्वगुण सम्पन्न और सबको जाननेवाला है। उससे ही शासित हुआ यह जगतरूप कर्म विभिन्न प्रकार से यथायोग्य चल रहा है और यह पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश भी उसी के द्वारा शासित होते हैं); [इति इस प्रकार, चिन्त्यम् चिन्तन करना चाहिये ॥२॥ तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य भूयस्तत्त्वस्य तावेन समेत्य योगम् । एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः ॥३॥ परमात्मा ने ही उस जड तत्वों की रचना रूप कर्म को करके, उसका निरीक्षण कर फिर चेतन तत्त्व का जड़ तत्व से संयोग कराके अथवा एक-अविद्या से दो-पुण्य और पापरूप कर्मों से, तीन गुणों से और आठ प्रकृतियों के साथ तथा काल के साथ और आत्म सम्बन्धी सूक्ष्म गुणों के साथ भी, इस जीव का सम्बन्ध कराके इस जगत्की रचना की है। अर्थात इस प्रकार समझना चाहिये कि उस परमपिता परमेश्वर ने ही एक अविद्या, दो पुण्य और पापरूप सचित कर्म-संस्कार, सत्व, रज और तम इन तीन गुणों और एक काल तथा मन, बुद्धि, अहंकार, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन प्रकृतिभेद, इन सबसे तथा अहंकार, ममता, आसक्ति आदि आत्म सम्बन्धी सूक्ष्म गुणोंसे जीवात्माका सम्बन्ध कराके इस जगत्की रचना की। ॥३॥ आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः । तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः ॥४॥ जो साधक सत्त्वादि गुणों से व्याप्त कर्मों को आरम्भ करके, उनको तथा समस्त भावों को परमात्मा में लगा देता है-उसी को समर्पण कर देता है। उसके इस समर्पण से उन कर्मों का अभाव हो जाने पर उस साधक के पूर्वसंचित कर्म-समुदाय का भी सर्वथा नाश हो जाता है। इस प्रकार कर्मों का नाश हो जाने पर वह साधक परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह जीवात्मा वास्तव में, अन्य समस्त जड- समुदाय से भिन्न चेतन है ॥४॥ आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः । तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम् ॥५॥ वह आदि कारण परमात्मा, तीनों कालों से सर्वथा अतीत एवं कलारहित होने पर भी प्रकृति के साथ जीव का संयोग कराने में कारणों का भी कारण देखा गया है। अपने अन्तःकरण में स्थित उस सर्वरूप और जगत रूप में प्रकट, स्तुति करने योग्य, पुराणपुरुष परम देव (परमेश्वर) की उपासना करके उसे प्राप्त करना चाहिये।॥५॥ स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम् । धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वात्मस्थममृतं विश्वधाम ॥६॥ जिससे यह संसार निरन्तर चलता रहता है। वह परमात्मा इस संसार वृक्ष काल और आकृति आदि से सर्वथा अतीत एवं भिन्न है, उस धर्म की वृद्धि करने वाले पाप का नाश करनेवाले, सम्पूर्ण ऐश्वर्य के अधिपति तथा समस्त जगत के आधारभूत परमात्मा को अपने हृदय में स्थित जानकर, साधक अमृतस्वरूप परब्रह्म को प्रात हो जाता है ॥ ६॥ तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् । पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥७॥ उस ईश्वरों के भी परम महेश्वर सम्पूर्ण देवताओं के भी परम देवता, पतियों के भी परम पति तथा समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी एवं स्तुति करने योग्य उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। अर्थात उनसे पर अर्थात् श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत्के सर्वश्रेष्ठ कारण हैं और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक हैं। ॥७॥ न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥८॥ उसके शरीर रूप कार्य और करण अन्तःकरण तथा इन्द्रिय रूप करण नहीं हैं। उससे बड़ा और उसके समान भी नहीं दिखाई देता तथा इस परमेश्वर की ज्ञान, बल और क्रियारूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति अनेक प्रकार की सुनी जाती है। ॥८॥ न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् । स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥९॥ जगत में कोई भी उस परमात्मा का स्वामी नही है। उसका शासक भी नही है और उसका चिह्न विशेष भी एक नहीं है। वह सबका परम कारण तथा समस्त कारणों के अधिष्ठाताओं का भी अधिपति है। कोई भी न तो इसका जनक है और स्वामी ही है अर्थात इन परब्रह्म परमात्माका न तो कोई जनक इन्हें उत्पन्न करनेवाला पिता है और न कोई इनका अधिपति ही है। यह अजन्मा, सनातन, सर्वथा स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान है। ॥९॥ यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः । देव एकः स्वमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माप्ययम् ॥१०॥ तन्तुओं द्वारा, मकड़ी की भाँति जिस एक देव परमात्मा ने अपनी स्वरूपभूत मुख्य शक्ति से उत्पन्न कार्यों द्वारा स्वाभाव से ही अपने को आच्छादित कर रक्खा है। वह परमेश्वर हमलोगों को अपने परब्रह्मरूप में आश्रय दे। ॥१०॥ एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥११॥ वह देव ही सब प्राणियों में छिपा हुआ सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा है। वहीं सबके कर्मों का अधिष्ठाता, सम्पूर्ण भूतोंका निवास स्थान, सबका साक्षी, चेतन स्वरुप, केवलासर्वथा विशुद्धा और निर्गुण अर्थात प्रकृति के गुणों से अतीत है। ॥११॥ एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२॥ जो अकेला बहुत से अक्रिय जीवों का शासक है। और एक प्रकृति रूप बीज को अनेक रूपों में परिणत, कर देता है। उस हृदय स्थित परमेश्वर को जो धीर पुरुष निरन्तर देखते रहते हैं, उन्ही को सदा रहने वाला परमानन्द प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं। ॥१२॥ नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् । तत्कारणं सा‌ङ्ख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥ जो एक नित्य चेतन परमात्मा बहुत से नित्य चेतन आत्माओं के कर्म फल भोगों का विधान करता है। उस ज्ञानयोग और कर्मयोग से प्राप्त करने योग्य, सब के कारणरूप परमदेव परमात्मा को जानकर मनुष्य समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता हैअर्थात वह कभी किसी भी कारण से जन्म-मरण के बन्धनमे नहीं पड़ता। ॥१३॥ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१४॥ वहाँ न तो सूर्य प्रकाश फैला सकता है, न चन्द्रमा और तारागण का समुदाय ही प्रकाश फैला सकता है। और न यह बिजलियाँ ही वहाँ प्रकाशित हो सकती हैं। फिर यह लौकिक अग्नि तो कैसे प्रकाशित हो सकता है, क्योंकि उसके प्रकाशित होने पर ही (उसी के प्रकाश से) बतलाये हुए सूर्य आदि सब उसके पीछे प्रकाशित होते हैं। उसके प्रकाश से यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है। ॥१४॥ एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः । तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥१५॥ इस ब्रह्माण्ड के बीच में जो एक प्रकाशम्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है, वही जल में स्थित अग्नि है। उसे जानकर ही मनुष्य मृत्युरूप संसार-समुद्रसे सर्वथा पार हो जाता है। दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिये कोई अन्य दूसरा मार्ग नहीं है। ॥१५॥ स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनिज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद् यः। परधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः ॥ १६॥ वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा सर्वस्रष्टा, सर्वज्ञ स्वयं ही अपने प्राकट्य का हेतु काल का भी महाकाल, सम्पूर्ण दिव्यगुणों से सम्पन्न और सबको जाननेवाला है। जो प्रकृति और जीवात्मा का स्वामी, समस्त गुणों का शासक तथा जन्म-मृत्युरूप संसार में बॉधने, स्थिर रखने और उससे मुक्त करनेवाला है। ॥१६॥ स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थोज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता । य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥ १७॥ वही तन्मय अमृतस्वरूप ईश्वरों-लोकपालों में भी आत्मरूप से स्थित सर्वज्ञ, सर्वत्र परिपूर्ण और इस ब्रह्माण्ड के रक्षक हैं। जो इस सम्पूर्ण जगत का सदा ही शासन करता है क्योंकि इस जगत पर शासन करने के लिये, दूसरा कोई भी हेतु नही है। ॥१७॥ यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥१८॥ जो परमेश्वर निश्चय ही सबसे पहले ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और जो निश्चय ही उस ब्रह्मा को समस्त वेदोंका ज्ञान प्रदान करता है। उस परमात्म ज्ञानविषयक बुद्धि को प्रकट करनेवाले, प्रसिद्ध देव परमेश्वर को मैं मोक्ष की इच्छावाला साधक शरण रूप मे ग्रहण करता हूँ। ॥ १८ ॥ निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् । अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम् ॥१९॥ कलाओं से रहित, क्रियारहित सर्वथा शान्त, निर्दोष, निर्मल, अमृत के परम सेतुरूप तथा जले हुए ईंधन से युक्त अग्निकी भॉति, निर्मल ज्योतिः स्वरुप उन परमात्माका मैं चिन्तन करता हूँ। ॥१९॥ यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः । तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥२०॥ जब मनुष्य गण आकाश को चमड़े की भाँति लपेट सकेंगे. तब उन परमदेव परमात्मा को बिना जाने भी दुःख समुदाय का अन्त हो सकेगा। अर्थ यह है कि जिस प्रकार आकाश को चमड़े की भाँति लपेटना मनुष्य के लिये सर्वथा असम्भव है, उसी प्रकार परमात्मा को बिना ना जाने कोई भी जीव इस दुःख समुद्रसे पार नहीं हो सकता। ॥२०॥ तपःप्रभावाद् देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान् । अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम् ॥ २१॥ यह प्रसिद्ध है कि श्वेताश्वतर नामक ऋषि तप के प्रभाव से और परमदेव परमेश्वर की कृपा से ब्रह्म को विद्वान जान सके तथा उन्होंने ऋषि-समुदाय से सेवित परम पवित्र इस ब्रह्मतत्व का आश्रम के अभिमान से अतीत अधिकारियों को उत्तमरूप से उपदेश किया था। ॥ २१॥ वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम् । नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः ॥ २२॥ यह परम रहस्यमय ज्ञान पूर्वकल्प में वेद के अन्तिम भाग-उपनिष में भलीभाँति वर्णित हुआ। जिनका अंतःकरण सर्वथा शान्त न हो गया हो, ऐसे मनुष्य को इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। तथा जो अपना पुत्र न हो अथवा जो शिष्य न हो उसे भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। ॥२२॥ यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥२३॥ जिसकी परमदेव परमेश्वर में परम भक्ति है तथा जिस प्रकार परमेश्वर में है उसी प्रकार गुरु में भी है। उस महात्मा-मनस्वी पुरुष के हृदय में ही यह बताये हुए रहस्यमय प्रकाशित होते हैं। उसी महात्मा के हृदय में प्रकाशित होते हैं। ॥२३॥ ॥ इति षष्ठोऽध्यायः ॥ ॥ षष्ठ अध्याय समाप्त ॥ ॥ कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद् समाप्त ॥ ॥ कृष्ण यजुर्वेद वर्णित श्वेताश्वतरोपनिषद् समाप्त ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो।

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