ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त १

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त १ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप सोमस्य मा तवसं वक्ष्यग्ने वह्निं चकर्थ विदथे यजध्यै । देवाँ अच्छा दीद्यद्‌युज्ने अद्रिं शमाये अग्ने तन्वं जुषस्व ॥१॥ हे अग्निदेव ! आपने यज्ञ में यज्ञादि कार्य के लिए हमें सोमरस का वाहक बनाया है, अतएव हमें समुचित बल भी प्रदान करें । हे अग्निदेव ! हम तेजस्विता पूर्वक, देव शक्तियों के लिए सोमरस निकालने के कार्य में, कूटने वाले पाषाण को नियोजित करके आपकी स्तुतियाँ करते हैं। आप शरीर को पुष्ट करने के लिए इसे ग्रहण करें ॥१॥ प्राञ्चं यज्ञं चकृम वर्धतां गीः समिद्भिरग्निं नमसा दुवस्यन् । दिवः शशासुर्विदथा कवीनां गृत्साय चित्तवसे गातुमीषुः ॥२॥ हे अग्निदेव ! समिधाओं और हव्यादि द्वारा आपको पुष्ट करते हुए हमने भली प्रकार यज्ञ सम्पन्न किया हैं। हमारी वाणी द्वारा स्तुतियों के प्रभाव का संवर्द्धन हो। देवों ने हम स्तोताओं को यज्ञादि कर्म सिखाया है। अतः हम स्तोता अग्निदेव की स्तुति करने की इच्छा करते हैं॥२॥ मयो दधे मेधिरः पूतदक्षो दिवः सुबन्धुर्जनुषा पृथिव्याः । अविन्दन्नु दर्शतमप्स्वन्तर्देवासो अग्निमपसि स्वसृणाम् ॥३॥ ये अग्निदेव मेधावी, विशुद्ध, बल-सम्पन्न और जन्म से ही उत्कृष्ट बन्धुत्व भाव से युक्त हैं। ये द्युलोक और पृथ्वी लोक में सर्वत्र सुख स्थापित करते हैं। प्रवमान धाराओं के जल में गुप्त रूप से स्थित दर्शनीय अग्निदेव को देवों ने यज्ञार्थ खोज निकाला ॥३॥ अवर्धयन्त्सुभगं सप्त यह्वीः श्वेतं जज्ञानमरुषं महित्वा । शिशुं न जातमभ्यारुरश्वा देवासो अग्निं जनिमन्वपुष्यन् ॥४॥ शुभ्र धन-सम्पदा से युक्त, उत्पन्न अग्नि रूपी ऊर्जा को प्रवाहशील महान् नदियों ने प्रवर्धित किया। जैसे घोड़ी नवजात शिशु को विकसित करती है, उसी प्रकार अग्नि के उत्पन्न होने के बाद देवों ने उसे विकसित-संवर्धित किया ॥४॥ शुक्रेभिरङ्ग रज आततन्वान्क्रतुं पुनानः कविभिः पवित्रैः । शोचिर्वसानः पर्यायुरपां श्रियो मिमीते बृहतीरनूनाः ॥५॥ शुभ्रवर्ण तेज के द्वारा अन्तरिक्ष को व्याप्त करके ये अग्निदेव यज्ञ-कर्म सम्पादक यजमान को पवित्र और स्तुत्य तेजों से परिशुद्ध करते हैं। प्रदीप्त ज्वाला रूप आच्छादन को ओढ़कर ये अग्निदेव स्तोताओं को विपुल अन्न और पर्याप्त ऐश्वर्य-सम्पदा से समृद्धि प्रदान करते हैं॥५॥ वव्राजा सीमनदतीरदब्धा दिवो यह्वीरवसाना अनग्नाः । सना अत्र युवतयः सयोनीरेकं गर्भ दधिरे सप्त वाणीः ॥६॥ स्वयं नष्ट न होने वाले तथा (जल को हानि न पहुँचाने वाले ये अग्निदेव सब ओर विचरण करते हैं। वस्त्रों से आच्छादित न होने पर भी नग्न न रहने वाली सनातन काल से तरुण, एक ही दिव्य स्रोत से उत्पन्न प्रवहमान जलधाराएँ एक ही गर्भ (अग्नि) को धारण करती हैं॥६॥ स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा घृतस्य योनौ स्रवथे मधूनाम् । अस्थुरत्र धेनवः पिन्वमाना मही दस्मस्य मातरा समीची ॥७॥ इस (अग्नि) की नाना रूपों वाली संगठित किरणें जब फैलती हैं, तब पोषक रस के उत्पत्ति स्थान से मधुर वर्षा होती है। सबको तृप्ति देने वाली किरणें यहाँ विद्यमान रहती हैं। इस अग्नि के माता-पिता पृथ्वी और अंतरिक्ष हैं॥७॥ बभ्राणः सूनो सहसो व्यद्यौद्दधानः शुक्रा रभसा वपूंषि । श्चोतन्ति धारा मधुनो घृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन ॥८॥ हे बल के पुत्र अग्निदेव ! सबके द्वारा धारण किये जाने योग्य आप उज्ज्वल और वेगवान् किरणों द्वारा प्रकाशमान हों। जिस समय स्तोतागण स्तोत्रों से आपको प्रवर्धित करते हैं, उस समय वे मधुर घृत धारायें सिंचित करती हैं अथवा पुष्टिकारक जल धाराएँ बरसती हैं॥८॥ पितुश्चिदूधर्जनुषा विवेद व्यस्य धारा असृजद्वि धेनाः । गुहा चरन्तं सखिभिः शिवेभिर्दिवो यह्वीभिर्न गुहा बभूव ॥९॥ अग्निदेव ने जन्म से ही अपने पिता (अन्तरिक्ष) के निचले स्तर जल प्रदेश को ज्ञान लिया। अन्तरिक्ष की जलधारा ने बिजली को उत्पन्न किया। अग्निदेव अपने कल्याणकर मित्रों और द्युलोक की जलराशि के साथ गुह्य रूप में विचरते हैं। (गुह्य रूप में स्थित) उस अग्नि को कोई भी प्राप्त नहीं कर सका ॥९॥ पितुश्च गर्भ जनितुश्च बभ्रे पूर्वरिको अधयत्पीप्यानाः । वृष्णे सपत्नी शुचये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये नि पाहि ॥१०॥ ये अग्निदेव पिता (आकाश) और माता (पृथ्वी) के गर्भ को पुष्ट करते हैं। एक मात्र अग्निदेव अभिवद्भुति ओषधि का भक्षण करते हैं। अभीष्ट वर्षा करने वाले ये अग्निदेव पत्नी सहित याजक के पवित्रकर्ता बन्धु सदृश हैं। हे अग्निदेव ! द्यावा-पृथिवी में हम यजमानों को रक्षित करें ॥१०॥ उरौ महाँ अनिबाधे ववर्धापो अग्निं यशसः सं हि पूर्वीः । ऋतस्य योनावशयद्दमूना जामीनामग्निरपसि स्वसृणाम् ॥११॥ महान् अग्निदेव अबाध और विस्तीर्ण पृथ्वी में प्रवर्धित होते हैं। वहाँ बहुत अन्नवर्द्धक जल समूह अग्नि को संवर्धित करते हैं। जल के उत्पत्ति स्थान में स्थित अनिदेव परस्पर बहिन रूप नदियों के जल में शान्तिपूर्वक शयन करते हैं॥११॥ अक्रो न बभ्रिः समिथे महीनां दिदृक्षेयः सूनवे भाऋजीकः । उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गर्भो नृतमो यह्नो अग्निः ॥१२॥ ये अग्निदेव सबके पिता रूप जल के गर्भ में गुह्य-स्थित, मनुष्यों के हितकारी, संग्राम में युद्ध कुशल, अपनी सेना के पोषक, सर्व दर्शनीय तथा अपने तेज से दीप्तिमान् हैं। उन्होंने अपने पुत्र रूप यजमान के लिए पोषण की क्षमता उत्पन्न कीं ॥१२॥ अपां गर्भ दर्शतमोषधीनां वना जजान सुभगा विरूपम् । देवासश्चिन्मनसा सं हि जग्मुः पनिष्ठं जातं तवसं दुवस्यन् ॥१३॥ उत्तम ऐश्वर्ययुक्त अरणी ने दर्शनीय, विशिष्ट रूपवान् तथा जलों और ओषधियों के गर्भभूत अग्निदेव को उत्पन्न किया है। सम्पूर्ण देवगण भी उस स्तुत्य, बलशाली और नवजात अग्निदेव के पास स्तुतियाँ करते हुए पहुँचे। उन्होंने अग्नि की सम्यक् सेवा की ॥१३॥ बृहन्त इन्द्भानवो भाऋजीकमग्निं सचन्त विद्युतो न शुक्राः । गुहेव वृद्धं सदसि स्वे अन्तरपार ऊर्वे अमृतं दुहानाः ॥१४॥ विद्युत् की भाँति अत्यन्त कान्तिमान् महान् सूर्यदेव की किरणे अगाध समुद्र के बीच अमृत रूप जल का दोहन करती हैं। वे किरणें गुहा के समान अपने सदन अन्तरिक्ष में बढ़ती हुई, प्रभायुक्त अग्नि का आश्रय प्राप्त करती हैं॥१४॥ ईळे च त्वा यजमानो हविर्भिरीळे सखित्वं सुमतिं निकामः । देवैरवो मिमीहि सं जरित्रे रक्षा च नो दम्येभिरनीकैः ॥१५॥ हे अग्ने ! हम यजमान हव्यादि द्वारा आपकी सम्यक् स्तुति करते हैं। हम उत्तम बुद्ध की कामना करते हुए आपसे मित्रता के लिए प्रार्थना करते हैं। देवों के साथ आप, हम स्तुति करने वालों की रक्षा करें और दुर्दम्यों से हमारी रक्षा करें ॥१५॥ उपक्षेतारस्तव सुप्रणीतेऽग्ने विश्वानि धन्या दधानाः । सुरेतसा श्रवसा तुञ्जमाना अभि ष्याम पृतनायूँरदेवान् ॥१६॥ हे उत्तम नियामक देव अग्ने! आपके आश्रय में रहने वाले हम सम्पूर्ण धनों को धारण करते हुए, आपके अनुग्रह से पुष्ट (समृद्ध होते रहें । हम उत्तम पुष्टिदायक अन्नों से युक्त होकर देव विरोधी शत्रुओं को पराजित कर सकें ॥१६॥ आ देवानामभवः केतुरग्ने मन्द्रो विश्वानि काव्यानि विद्वान् । प्रति मर्ता अवासयो दमूना अनु देवात्रथिरो यासि साधन् ॥१७॥ हे अग्निदेव ! आप देव कार्यों के प्रतीक रूप में अत्यन्त मनोहर दिखाई देते हैं। आप सम्पूर्ण स्तोत्रों के ज्ञाता हैं। आप मनुष्यों को उनके अपने घरों में आश्रय देने वाले हैं। उत्तम रथों से गमन करने वाले आप देवों के कार्य में उनका अनुगमन करते हैं ॥१७॥ नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन् । घृतप्रतीक उर्विया व्यद्यौदग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान् ॥१८॥ अविनाशी और दीप्तिमान् अग्निदेव यज्ञ के साधन रूप में प्रयुक्त होते हैं और मनुष्यों के घरों में अधिष्ठित होते हैं। ये सम्पूर्ण स्तोत्रों के ज्ञाता हैं। धृत द्वारा प्रदीप्त काया से अग्निदेव विशेष प्रकाशित होते हैं॥१८॥ आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन् । अस्मे रयिं बहुलं संतरुत्रं सुवाचं भागं यशसं कृधी नः ॥१९॥ सर्वत्र विचरणशील हे महान् अग्ने! आप अपनी मंगलमयी मैत्री और महती रक्षण-सामथ्र्यों के साथ हमारे पास आयें और हमें उपद्रवरहित, उत्तम स्तुति के योग्य, यशस्वी धन विपुल मात्रा में प्रदान करें ॥१९॥ एता ते अग्ने जनिमा सनानि प्र पूर्व्याय नूतनानि वोचम् । महान्ति वृष्णे सवना कृतेमा जन्मज्ञ्जन्मन्निहितो जातवेदाः ॥२०॥ हे अग्ने ! पुरातन पुरुष रूप में, सनातन और नूतन स्तोत्रों से आपकी स्तुति की जाती है। सभी जन्म लेने वाले प्राणियों में सन्निहित हे शक्तिशाली अग्निदेव ! हमने आपके निमित्त महान् यज्ञों को सम्पन्न किया है॥२०॥ जन्मज्ञ्जन्मन्निहितो जातवेदा विश्वामित्रेभिरिध्यते अजस्रः । तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ॥२१॥ सम्पूर्ण प्राणियों में निहित, सर्वभूत-ज्ञाता अग्निदेव, विश्वामित्र वंशजों द्वारा सर्वदा प्रदीप्त होते रहे हैं। हम उस यजनीय अग्नि के कल्याणकारी अनुग्रहों के अनुगत बने रहें ॥२१॥ इमं यज्ञं सहसावन्त्वं नो देवत्रा धेहि सुक्रतो रराणः । प्र यंसि होतबृहतीरिषो नोऽग्ने महि द्रविणमा यजस्व ॥२२॥ हैं बलवान् और उत्तमकर्मा अग्निदेव ! आप हमारे हव्यादि से हर्षित होकर हमारे यज्ञ को सब देवों तक पहुँचायें । हे देवों के आह्वाता अग्निदेव ! आप हमें विपुल अत्रादि प्रदान करें। हमें प्रभूत धनों से युक्त करें ॥२२॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥२३॥ हे अग्निदेव ! आप यज्ञादि कार्य के लिए अनेक सत्कर्मों के लिए और गौओं के पोषण आदि के लिए उत्तम भूमि हमें प्रदान करें । हमारे पुत्र वंश की वृद्धि करने वाले हों। आपकी वह सुमति हमें भी प्राप्त हो ॥२३॥

Recommendations