ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३५ ऋषि - हिरण्यस्तूप अंगीरसः देवता- अग्नि, मित्रवरुण, रात्रि सविता। छंद- २-११ सविता, त्रिष्टुप, १,९ - जगती हृयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे । ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥ कल्याण की कामना से हमें सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं । जगत् को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते हैं॥१॥ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥ सवितादेव गहन तमिस्रा युक्त अन्तरिक्ष पथ में भ्रमण करते हुए, देवों और मनुष्यों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित करते हैं। वे समस्त लोकों को देखते (प्रकाशित करते हुए स्वर्णिम (किरणों से युक्त) रथ से आते हैं॥२॥ याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥ स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हुए निरन्तर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट करते हुए अतिदूर से इस यज्ञशाला में श्वेत अश्वों के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥ अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् । आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥ सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपों में सुशोभित, पूजनीय, अद्भुत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आते हैं ॥४॥ वि जनाङ्ख्यावाः शितिपादो अख्यत्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः । शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥ सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले हैं, वे स्वर्णरथ को वहन करते हैं और मानवों को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोकों के प्राणी सवितादेव के अंक में स्थित हैं, अर्थात् उन्हीं पर आश्रित हैं॥५॥ तिस्रो द्यावः सवितुर्दा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् । आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥ तीनों लोकों में द्यावा और पृथिवीं ये दोनों लोक सूर्य के समीप हैं, अर्थात् सूर्य से प्रकाशित हैं। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धुरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित हैं। जो यह रहस्य जानें, वे सबको बतायें ॥६॥ वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥ गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर, दीप्तिमान् सूर्यदेव अन्तरिक्षादि को प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहाँ रहते हैं? उनकी रश्मियाँ किस आकाश में होंगी? यह रहस्य कौन जानता है ? ॥७॥ अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् । हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥ हिरण्य दृष्टि युक्त (सुनहली किरणों से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठों दिशाओं, उनसे युक्त तीनों लोकों, सप्त सागरों आदि को आलोकित करते हुए दाता (हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियाँ लेकर यहाँ आएँ ॥८॥ हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥ स्वर्णिम रश्मियों रूपीं हाथों से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते हैं। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥ हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् । अपसेधत्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥ हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणों से युक्त) प्राणदाता, कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव, सम्पूर्ण मनुष्यों के समस्त दोषों को, असुरों और दुष्कर्मयों को नष्ट करते (दूर भगाते हुए उदित होते हैं। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिये अनुकूल हों ॥१०॥ ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे । तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥ हे सवितादेव ! आकाश में आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित हैं। उन सुगम मार्गों से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें ॥११॥

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