ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १०

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १० ऋषि - गय आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद - अनुष्टुप, ४, ७ पंक्ति अग्न ओजिष्ठमा भर द्युम्नमस्मभ्यमध्रिगो । प्र नो राया परीणसा रत्सि वाजाय पन्थाम् ॥१॥ हे निर्बाध गति वाले अग्निदेव ! ओजस्विता प्रदान करने वाली सम्पदा हमें प्रदान करें। हे देव! हमें प्रशंसनीय धन और शक्ति प्राप्ति के मार्ग का दिग्दर्शन करायें ॥१॥ त्वं नो अग्ने अद्भुत क्रत्वा दक्षस्य मंहना । त्वे असुर्यमारुहत्क्राणा मित्रो न यज्ञियः ॥२॥ हे अग्ने ! आप अत्यन्त विलक्षण कर्मों का सम्पादन करने वाले हैं। हमारे उत्तम यज्ञादि कर्मों से प्रसन्न होकर आप हमें श्रेष्ठ बल प्रदान करें। आप असुरों को पराभूत करने में समर्थ हैं। आप सूर्य सदृश चारों ओर व्याप्त हों ॥२॥ त्वं नो अग्न एषां गयं पुष्टिं च वर्धय । ये स्तोमेभिः प्र सूरयो नरो मघान्यानशुः ॥३॥ हे अग्निदेव ! उत्तम स्तोत्रों से आपकी स्तुति करने वाले मनुष्यों को आप श्रेष्ठ धनादि प्राप्त कराते हैं। आपकी स्तुति करने वाले हम भी उत्तम धनादि की वृद्धि करते हुए पुष्टि को प्राप्त हों ॥३॥ ये अग्ने चन्द्र ते गिरः शुम्भन्त्यश्वराधसः । शुष्मेभिः शुष्मिणो नरो दिवश्चिद्येषां बृहत्सुकीर्तिर्बोधति त्मना ॥४॥ हे आह्लाद प्रदायक अग्निदेव! जो मनुष्य उत्तम वाणियों से आपका स्तवन करते हैं, वे अश्वयुक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं। आपके उत्तम बलों से वे बलवान् होते हैं। उनकी उत्तम कीर्ति स्वर्ग से भी अधिक विस्तृत होती है, ऐसे लोगों को आप निश्चय ही जानते हैं ॥४॥ तव त्ये अग्ने अर्चयो भ्राजन्तो यन्ति धृष्णुया । परिज्मानो न विद्युतः स्वानो रथो न वाजयुः ॥५॥ हे अग्निदेव ! आपकी अत्यन्त चंचल और दीप्तिमती रश्मियाँ सर्वत्र व्याप्त होती हैं। वे विद्युत् के समान शब्द करती और अन्न की कामना से गमनशील मनुष्यों और वेगवान् रथ के समान सर्वत्र संचरित होती हैं ॥५॥ नू नो अग्न ऊतये सबाधसश्च रातये । अस्माकासश्च सूरयो विश्वा आशास्तरीषणि ॥६॥ हे अग्निदेव ! आप शीघ्र ही हमारी रक्षा करें। हमें धनादि ऐश्वर्य से युक्त करके हमारी आपत्तियों का निवारण करें । हमारे पुत्र-बन्धु आदि आपकी स्तुतियाँ करते हुए सम्पूर्ण अभिलाषाओं को प्राप्त करने वाले हों ॥६॥ त्वं नो अग्ने अङ्गिरः स्तुतः स्तवान आ भर । होतर्विभ्वासहं रयिं स्तोतृभ्यः स्तवसे च न उतैधि पृत्सु नो वृधे ॥७॥ हे अंगिराओं में श्रेष्ठ अग्निदेव ! पुरातन ऋषियों ने आपकी स्तुतियाँ की हैं, आप उपास्य रहे हैं। वैभवशाली शत्रुओं का ऐश्वर्य आप हमें प्रदान करें। हम यज्ञादि कार्यों में होता रूप में आपकी स्तुति करने वाले हैं। हमारी स्तुतियों को बल दें। युद्ध में भी अपने बलों से हमारी वृद्धि करें ॥७॥

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