ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २८

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र, इन्द्रसोमौ । छंद - त्रिष्टुप, त्वा युजा तव तत्सोम सख्य इन्द्रो अपो मनवे सस्रुतस्कः । अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धूनपावृणोदपिहितेव खानि ॥१॥ हे सोम ! आपसे मित्रत करके तथा आपका सहयोग प्राप्त करके इन्द्रदेव ने प्रवाहित जल को मनु के लिए उत्पन्न किया। उन्होंने 'अहि' का संहार करके सप्त-सरिताओं को प्रवाहित किया तथा वृत्र द्वारा अवरुद्ध किये हुए द्वारों को खोला ॥१॥ त्वा युजा नि खिदत्सूर्यस्येन्द्रश्चक्रं सहसा सद्य इन्दो । अधि ष्णुना बृहता वर्तमानं महो द्रुहो अप विश्वायु धायि ॥२॥ हे सोम ! इन्द्रदेव ने आपके सहयोग से, विस्तृत चुलोक में गमन करने वाले सूर्य चक्र को अपने सामर्थ्य के द्वारा अपने नियन्त्रण में किया था। उन्होंने ही सर्वत्र गमन करने वाले महान् द्रोह शक्ति सम्पन्न (नष्ट- भ्रष्ट करने की शक्ति) से सूर्य-चक्र पर अधिकार किया था ॥२॥ अहन्निन्द्रो अदहदग्निरिन्दो पुरा दस्यून्मध्यंदिनादभीके । दुर्गे दुरोणे क्रत्वा न यातां पुरू सहस्रा शर्वा नि बर्दीत् ॥३॥ हे सोम ! आपकी सहायता से इन्द्रदेव ने मध्याह्न से पूर्व ही (युद्ध में) रिपुओं का विनाश कर दिया तथा अग्निदेव ने उन्हें भस्मसात् कर दिया। जिस प्रकार रक्षारहित दुर्गम प्रदेश से गमन करने वाले मनुष्य को चोर मार डालते हैं, उसी प्रकार इन्द्रदेव ने अपने बल के द्वारा अनेकों सहस्र शत्रु सेनाओं को विनष्ट कर दिया ॥३॥ विश्वस्मात्सीमधमाँ इन्द्र दस्यून्विशो दासीरकृणोरप्रशस्ताः । अबाधेथाममृणतं नि शत्रूनविन्देथामपचितिं वधत्रैः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप ने इन दस्युओं को पतित किया तथा हीनभाव वाले मनुष्यों को निन्दित किया। हे इन्द्रदेव तथा सोमदेव ! आप दोनों उन रिपुओं को अवरुद्ध करते हैं तथा उन्हें आयुधों द्वारा विनष्ट करते हैं और उसके बाद सम्मान प्राप्त करते हैं ॥४॥ एवा सत्यं मघवाना युवं तदिन्द्रश्च सोमोर्वमव्यं गोः । आदर्हतमपिहितान्यश्ना रिरिचथुः क्षाश्चित्ततृदाना ॥५॥ हे सोमदेव ! यह सच है कि आप और इन्द्रदेव ने महान् अश्वों तथा गौओं के झुण्ड का दान किया था। हे धनवान् सोम तथा इन्द्रदेवो ! आप दोनों ने पाषाणों द्वारा अवरुद्ध गौ-समूहों तथा धरती को बल द्वारा मुक्त किया था और रिपुओं का संहार किया था ॥५॥

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