Shandilyopanishad Chapter 1 Part 4 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय – चतुर्थ खण्ड)

प्रथमाध्याये–चतुर्थः खण्डः प्रथम अध्याय–चतुर्थ खण्ड अथ हैनमथर्वाणं शाण्डिल्यः पप्रच्छ केनोपायेन नाड्यः शुद्धाः स्युः। नाड्यः कतिसंख्या काः। तासामुत्पत्तिः कीदृशी। ता सु कति वायवस्तिष्ठन्ति । तेषां कानि स्थानानि। तत्कर्माणि कानि। देहे यानि यानि विज्ञातव्यानि तत्सर्वं मे ब्रूहीति ॥१॥ तत्पश्चात् महात्मा शाण्डिल्य ने अथर्वा मुनि से पूछा-किस उपाय से नाड़ियाँ शुद्ध होती हैं ? नाड़ियों की संख्या कितनी होती है? उनकी उत्पत्ति किस तरह से हुई? उसमें कितने प्रकार के वायु रहते हैं ? उनका स्थान कौन सा है? उनके कार्य क्या-क्या होते हैं ? इस शरीर में जो भी कुछ जानने के लिए आवश्यक है, वह सभी कुछ आप मुझे बताने की कृपा करें ॥१॥ स होवाचाथर्वा । अथेदं शरीरं षण्णवत्यङ्ग‌लात्मकं भवति। शरीरात्प्राणो द्वादशाङ्गला धिको भवति ॥२॥ शरीरस्थं प्राणमग्रिना सह योगाभ्यासेन समं न्यूनं वा यः करोति स योगिपुङ्गवो भवति ॥३॥ ऐसा पूछने पर अथर्वा ऋषि ने कहा कि यह शरीर छियानबे (९६) अंगुल का प्रमाण स्वरूप है। यह प्राण-शरीर की अपेक्षा बारह अंगुल और अधिक होता है। इस शरीर में उपस्थित रहने वाले प्राण को योग के अभ्यास द्वारा जो भी मनुष्य अग्नि के साथ सम अवस्था में स्थिर करता है या फिर उससे भी कम करता है, वह श्रेष्ठ योगी कहलाता है ॥ २-३॥ देहमध्ये शिखिस्थानं त्रिकोणं तप्तजाम्बूनदप्रभं मनुष्याणाम्। चतुष्पदां चतुरश्रम्। विहङ्गानां वृत्ताकारम् । तन्मध्ये शुभा तन्वी पावकी शिखा तिष्ठति ॥४॥ मनुष्यों को देह में अग्नि का स्थान त्रिकोण की भाँति तप्तस्वर्ण के सदृश प्रकाश युक्त होता है। चौपायों का आयताकार तथा पक्षियों का गोलाकार होता है। इस अग्नि स्थान में क्षीणकाय, शुभ अग्निशिखा रहती है ॥ ४॥ गुदाद्यङ्ग‌लादूर्ध्वं मेढ़ावयङ्ग‌लादधो देहमध्यं मनुष्याणां भवति। चतुष्पदां हन्मध्यम्। विहगानां तुन्दमध्यम्। देहमध्यं नवाङ्गलं चतुरङ्गलमुत्सेधायतमण्डाकृति ॥५॥ गुदामार्ग से दो अ‌ङ्गुल ऊर्ध्व की ओर तथा लिङ्ग से दो अ‌ङ्गुल नीचे की ओर मनुष्य के शरीर का मध्यस्थल होता है। चौपायों के हृदय का मध्य एवं पक्षियों के पेट का मध्य ही उनके शरीरों के बीच का मध्य स्थल होता है। शरीर का वह बीच का भाग नौ अंगुल ऊँचा तथा चार अंगुल विस्तार वाला होता है। उसकी आकृति अण्डे के सदृश होती है ॥५॥ तन्मध्ये नाभिः। तत्र द्वादशारयुतं चक्रम् । तच्चक्रमध्ये पुण्यपापप्रचोदितो जीवोभ्रमति ॥६॥ तन्तुपञ्जरमध्यस्थलूतिका यथा भ्रमति तथा चा सौ तत्र प्राणश्चरति। देहेऽस्मिञ्जीवः प्राणारूढो भवेत् ॥७॥ उसके मध्य में नाभि है तथा उसमें बारह अरों से युक्त चक्र स्थित है। उस चक्र के मध्य में पुण्य-पाप से प्रेरणा प्राप्त करता हुआ जीव यत्र- तत्र भ्रमण करता रहता है। जिस प्रकार से मकड़ी अपने द्वारा निर्मित तन्तु (जाल) के अन्दर भ्रमण करती रहती है, उसी तरह से यह जीव भी वहीं पर विचरण करता रहता है। इस देह में जीव प्राण के ऊपर सतत आरूढ़ रहता है ॥६-७॥ नाभेस्तिर्यगध ऊर्ध्वं कुण्डलिनीस्थानम् । अष्टप्रकृतिरूपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्ड लिनी शक्तिर्भवति । यथावद्वायुसंचारं जलान्नादीनि परितः स्कन्धपार्श्वेषु निरुध्यैनं मुखेनैव समावेष्ट्य ब्रह्मरन्धं योगकाले चापानेनाग्निना च स्फुरति। हृदयाकाशे महोज्ज्वला ज्ञानरूपा भवति ॥८॥ नाभि के समीप नीचे एवं ऊपर की ओर कुण्डलिनी का क्षेत्र स्थित है। कुण्डलिनी शक्ति आठ प्रकार की प्रकृति से युक्त एवं आठ कुण्डली (घुमाव) बनाये हुए है। यह शक्ति योग की अवस्था में वायु के संचार को यथावत् करके जल एवं अन्न आदि को चारों ओर से कन्धों के पार्श्व में स्थिर करके पुनः मुख से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक अपान तथा अग्नि के द्वारा जाग्रत् होती है। यह स्फुरणयुक्ता शक्ति हृदयाकाश में महान् उज्ज्वल एवं ज्ञानरूपा होती है॥ ८॥ मध्यस्थकुण्डलिनीमाश्रित्य मुख्या नाड्यश्चतुर्दश भवन्ति । इडा पिङ्गला सुषुम्ना सरस्वती वारुणी पूषा हस्तिजिह्वा यशस्विनी विश्वोदरी कुहूःश‌ङ्खिनी पयस्विनी अलम्बुसा गान्धारीति नाड्यश्चतुर्दश भवन्ति ॥९॥ कुण्डलिनी का आश्रय प्राप्त करके मध्य में स्थित रहने वाली चौदह मुख्य नाड़ियाँ हैं। यह क्रमशः इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, सरस्वती, वारुणी, पूषा, हस्तजिह्वा, यशस्विनी, विश्वोदरी, कुहू, शंखिनी, पयस्विनी, अलंबुसा एवं गान्धारी नामवाली हैं ॥ ९॥ तत्र सुषुम्ना विश्वधारिणी मोक्षमार्गेति चाचक्षते। गुदस्य पृष्ठभागे वीणादण्डाश्रिता मूर्धपर्यन्तं ब्रह्मरन्धे विज्ञेया व्यक्ता सूक्ष्मा वैष्णवी भवति ॥१०॥ इन समस्त नाड़ियों में सुषुम्ना नाड़ी विश्व को धारण करने में समर्थ तथा मोक्षमार्ग को प्रदान करने वाली है, ऐसा योगीजन कहते हैं । गुदा के पृष्ठ भाग में वह नाड़ी मेरुदण्ड के आश्रित रहती है तथा मस्तक में ब्रह्मरन्ध्र तक पहुंचती है। यह स्पष्ट, सूक्ष्म एवं वैष्णवी रूपा होती है ॥१०॥ सुषुम्नायाः सव्यभागे इडा तिष्ठति। दक्षिणभागे पिङ्गला। इडायां चन्द्रश्चरति। पिङ्गलायां रविः। तमोरूपश्चन्द्रः । रजोरूपो रविः। विषभागो रविः। अमृतभागश्चन्द्रमाः। तावेव सर्वकालं धत्तः । सुषुम्रा कालभोक्त्री भवति । सुषुम्रापृष्ठपार्श्वयोः सरस्वतीकुहू भवतः । यशस्विनी कुहूमध्ये वारुणी प्रतिष्ठिता भवति। पूषासरस्वतीमध्ये पयस्विनी भवति। गान्धारीसरस्वतीमध्ये यशस्विनी भवति। कन्दमध्येऽलम्बुसा भवति। सुषुम्नापूर्वभागे मेदान्तं कुहूर्भवति। कुण्ड लिन्या अधश्चोर्ध्वं वारुणी सर्वगामिनी भवति। यशस्विनी सौम्या च पादाङ्गष्ठान्तमिष्यते। पिङ्गला चोर्ध्वगा याम्यनासान्तं भवति। पिङ्ग‌लायाः पृष्ठतो याम्यनेत्रान्तं पूषा भवति । इस सुषुम्ना नाड़ी के बायीं ओर इड़ा नामक नाड़ी है तथा दायीं ओर पिंगला नाड़ी स्थित है। इड़ा में चन्द्रमा चलायमान रहता है और पिंगला में सूर्य विचरण करता है। चन्द्रमा तमोगुण के स्वरूप वाला एवं सूर्य रजोगुण के स्वरूप से युक्त है। चन्द्रमा अमृत का क्षेत्र है तथा सूर्य विष का प्रभाग है। ये दोनों सम्पूर्ण काल को धारण करते हैं। सुषुम्ना नाड़ी काल का उपभोग करने वाली है। सुषुम्ना के पृष्ठ भाग की तरफ सरस्वती नाड़ी विद्यमान है तथा उसके बगल के क्षेत्र में कुहू नाड़ी स्थित है। यशस्विनी एवं कुहू के मध्य में वारुणी नाड़ी प्रतिष्ठित है। याम्यकर्णान्तं यशस्विनी भवति। जिह्वाया ऊर्ध्वान्तं सरस्वती भवति। आसव्यकर्णान्तमूर्ध्वगा श‌ङ्खिनी भवति । इडापृष्ठभागात्सव्यनेत्रान्तगा गान्धारी भवति। पायुमूलाद धोवंगाऽलम्बुसा भवति। एतासु चतुर्दशसु नाडीष्वन्या नाड्यः संभवन्ति। तास्वन्यास्तास्वन्या भवन्तीति विज्ञेयाः। यथाऽश्वत्थादिपत्रं सिराभिर्व्याप्तमेवं शरीरं नाडीभिर्व्याप्तम् ॥११॥ पूषा और सरस्वती के मध्य में यशस्विनी नाड़ी स्थित है। गान्धारी और सरस्वती के मध्य में यशस्विनी नाड़ी विद्यमान है। कन्द के बीच में अलम्बुसा नाड़ी है। सुषुम्ना नाड़ी के पूर्व भाग में लिंग क्षेत्र तक कुहू नाड़ी फैली हुई है। कुण्डलिनी के नीचे एवं ऊपर की ओर वारुणी नाड़ी चारों तरफ गयी हुई है। यशस्विनी और सौम्या पैर के अंगूठे तक फैली हुई है। पिङ्गला नाड़ी ऊपर की तरफ चलकर के दायीं नासिका तक पहुँचती है। पिंगला के पृष्ठ भाग की तरफ से दायीं आँख तक पूषा नाड़ी फैली हुई है। दायें कान तक यशस्विनी स्थित है। जिह्वा के ऊपरी भाग तक सरस्वती नाड़ी प्रतिष्ठित है। बायें कान तक ऊपर की ओर गमन करती हुई शंखिनी नाड़ी स्थित है। इड़ा नाड़ी के पृष्ठ भाग की ओर से बायें नेत्र तक गमन करने वाली गांधारी नाड़ी कहलाती है। गुदा क्षेत्र के मूल से नीचे-ऊपर की ओर जाने वाली अलम्बुसा नाड़ी कहलाती है। इन चौदह प्रकार की नाड़ियों में अन्य और दूसरी नाड़ियाँ भी स्थित हैं। उन नाड़ियों के अन्दर भी अन्य इस प्रकार की बहुत सी नाड़ियाँ हैं। जिस प्रकार से पीपल आदि के पत्ते शिराओं से संव्याप्त होते हैं, उसी तरह शरीर भी तरह-तरह की नाड़ियों से संव्याप्त है ॥११॥ प्राणापानसमानोदानव्याना नागकूर्मकृकरदेवदत्तधनञ्जया एते दश वायवः सर्वासुनाडीषु चरन्ति ॥१२॥ प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त एवं धनञ्जय- ये दस तरह के वायु इन समस्त नाड़ी-संस्थानों में विचरण करते रहते हैं ॥१२॥ आस्यनासिकाकण्ठनाभिपादाङ्‌गुष्ठद्वयकुण्डल्यधश्चोर्ध्वभागेषु प्राणः संचरति । मुख, नासिका, गला, नाभि, पैर के दोनों अँगूठे तथा कुण्डलिनी के नीचे एवं ऊर्ध्व के भागों में प्राणतत्त्व विचरण करता रहता है। श्रोत्राक्षि कटिगुल्फघ्राणगलस्फिग्देशेषु व्यानः संचरति । कर्णेन्द्रिय, नेत्र, कमर, गुल्फ, नासिका, गला एवं कूल्हे के क्षेत्रों में व्यान भ्रमण करता रहता है। गुदमेढ़ोरुजानूदरवृषणकटिजङ्घानाभिगु दाग्यगारेष्वपानः संचरति । गुदा, लिंग, जानु, पेट, वृषण, कटि प्रदेश, नाभि और अग्निसंस्थान में अपान संव्याप्त रहता है। सर्वसंधिस्थ उदानः। समस्त संधि अर्थात् जोड़ के संस्थानों में उदान सतत विचरण करता रहता है। पादहस्तयोरपि सर्वगात्रेषु सर्वव्यापी समानः। पैर, हाथ एवं अन्य सभी अंग-अवयवों में समान संव्यात रहता है। भुक्तानरसादिकं गात्रेऽग्निना सह व्यापयन्द्विसप्ततिसहस्त्रेषु नाडीमार्गेषु चरन्समानवायुरग्निना सह साङ्गोपाङ्ग‌कलेवरं व्याप्नोति । खाये हुए अन्न के रस को शरीर की अग्नि के साथ संव्याप्त करके समान वायु बहत्तर हजार नाड़ियों के मार्ग में विचरण करता रहता है एवं अग्नि के साथ सांगोपांग शरीर में विद्यमान रहता है। नागादिवायवः पञ्च त्वगस्थ्यादिसंभवाः। नाग आदि पाँच प्रकार की वायु त्वचा, अस्थि आदि में प्रतिष्ठित रहते हैं। तुन्दस्थं जलमन्नं च रसादिषु समीरितं तुन्दमध्यगतः प्राणस्तानि पृथक्कुर्यात् । उदर में रहने वाले जल तथा अन्न को रस आदि के रूप में ले जाकर पेट में रहने वाला प्राण-वायु पृथक् पृथक् करता है। अग्नेरुपरि जलं स्थाप्य जलोपर्य नादीनि संस्थाप्य स्वयमपानं संप्राप्य तेनैव सह मारुतः प्रयाति देहमध्यगतं ज्वलनम्। आग के ऊपर जल रखकर तथा जल के ऊपर अन्न आदि प्रतिष्ठित कर स्वयं अपान के पास पहुँचकर वायु तत्त्व इसी अपान के साथ शरीर में स्थित अग्नि की ओर गमन करता है। वायुना पालितो वह्निरपानेन शनैर्देहमध्ये ज्वलति। ज्वलनो ज्वालाभिः प्राणेन कोष्ठमध्यगतंजलमत्यु ष्णमकरोत्। जलोपरि समर्पितव्यञ्जनसंयुक्तमन्नं वह्निसंयुक्तवारिणा पक्कमकरोत्। तेन स्वेदमूत्रजलरक्तवीर्यरूपरसपुरीषादिकं प्राणः पृथक्कुर्यात्। अपान वायु से रक्षित अग्नि शरीर के मध्य में मन्द-मन्द प्रज्वलित रहता है। यह अग्नि अपनी ज्वाला एवं प्राण-वायु के द्वारा कोठे के मध्य में स्थित रहने वाले जल को खूब गर्म करता है और उस पानी के ऊपर रखे शाक-दाल के सहित अन्न को प्राणवायु, अग्नियुक्त जल के द्वारा पकाता अर्थात् पचाता है तथा उसी में से पसीना, मूत्र, खून, वीर्य, रस, विष्ठा (मल) आदि को पृथक् पृथक् करता है। समानवायुना सह सर्वासु नाडीषु रसं व्यापयञ्वासरूपेण देहे वायुश्चरति । तदनन्तर समान वायु के साथ-साथ समस्त नाड़ियों में रस को प्रसारित करता हुआ प्राण-वायु श्वास के रूप में शरीर में विचरण करता रहता है। नवभिॉमरन्धैः शरीरस्य वायवः कुर्वन्ति विण्मूत्रादिविसर्जनम्। शरीर के नौ व्योमरन्ध्रों (घटाकाश के छिद्रों) के द्वारा वायु, मल, मूत्र आदि को बाहर निष्कासित करता है। निश्वासोच्छ्वासकासश्च प्राणकर्मोच्यते। श्वासोच्छ्वास तथा खाँसी यह दोनों ही प्राण तत्त्व के कर्म कहलाते हैं। विण्मूत्रादिविसर्जनमपानवा युकर्म। मल मूत्र का बहिर्गमन कराना अपान वायु का कार्य कहलाता है। हानोपादानचेष्टादि व्यानकर्म। देहस्योन्नयनादिकमुदानकर्म। त्याग करना एवं स्वीकार करना आदि चेष्टाएँ व्यान का कार्य कहलाती हैं, शरीर का उन्नयन उदान का कार्य कहलाता है। शरीरपोषणादिकं समानकर्म। उद्गारादि नागकर्म। निमीलनादि कूर्मकर्म। क्षुत्करणं कृकरकर्म। तन्द्रा देवदत्त कर्म। श्रेष्मादि धनञ्जयकर्म ॥१३॥ शरीर को पोषण प्रदान करना समान का कार्य कहलाता है। डकार आदि नाग का कार्य है। पलक झपकाना कूर्म का कार्य है, भूख लगना कृकर का कार्य है। आलस्य देवदत्त का कार्य है तथा कफ आदि का उत्पन्न करना धनञ्जय का कार्य कहलाता है ॥१३॥ एवं नाडीस्थानं वायुस्थानं तत्कर्म च सम्यग्ज्ञात्वा नाडीसंशोधनं कुर्यात् ॥१४॥ इस तरह से नाड़ी-संस्थान, वायु-संस्थान एवं उन सभी के कार्यों को ठीक तरह से जान-समझ कर नाड़ी को शुद्ध करना चाहिए ॥ १४॥

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