ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५२ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- मित्र वरुणौ । छंद - त्रिष्टुप युवं वस्त्राणि पीवसा वसाथे युवोरच्छिद्रा मन्तवो ह सर्गाः । अवातिरतमनृतानि विश्व ऋतेन मित्रावरुणा सचेथे ॥१॥ हे मित्र-वरुणदेवो ! आप दोनों परिपुष्ट होकर तेजस्वी वस्त्रों को धारण करते हैं। आप के द्वारा रचित सभी वस्तुएँ दोषरहित और विचारणीय हैं। आप दोनों असत्यों का निवारण कर मनुष्यों को सत्यमार्ग से जोड़ देते हैं॥१॥ एतच्चन त्वो वि चिकेतदेषां सत्यो मन्त्रः कविशस्त ऋघावान् । त्रिरथिं हन्ति चतुरश्रिरुग्रो देवनिदो ह प्रथमा अजूर्यन् ॥२॥ मित्र और वरुण देवों में से कोई एक देव भी विशेष ज्ञानवान्, सत्य के प्रति सुदृढ़, क्रान्तदर्शियों द्वारा स्तुत्य और सामर्थ्य सम्पन्न हैं। द्रष्टा- अंध इससे भली प्रकार परिचित हैं। वह पराक्रमी वीर त्रिधारा और चतुर्धारा युक्त शस्त्रों को विनष्ट कर देते हैं। दैवीं अनुशासनों की अवहेलना करने वाले प्रारम्भ में सामर्थ्यशाली प्रतीत होते हुए भी अन्ततोगत्वा अपनी प्रभाव क्षमता खोकर विनाश को प्राप्त होते हैं॥२॥ अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत । गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत् ॥३॥ हे मित्र और वरुणदेव ! (दिन और रात्रिरूप आप दोनों की सामर्थ्य से) बिना पैरवाली उषा; पैरवाले प्राणियों से पहले पहुँच जाती हैं । (आप दोनों के गर्भ से उत्पन्न होकर शिशु सूर्य, संसार के पालन पोषण रूपी दायित्व का निर्वाह करते हैं। यही सूर्यदेव असत्यरूप अन्धकार को दूर करके सत्यरूप आलोक को फैलाते हैं॥३॥ प्रयन्तमित्परि जारं कनीनां पश्यामसि नोपनिपद्यमानम् । अनवपृग्णा वितता वसानं प्रियं मित्रस्य वरुणस्य धाम ॥४॥ सूर्यदेव सर्वत्र व्यापक, तेजस्वी प्रकाश को धारण करके, पत्नीरूप उषाओं की कान्ति को धूमिल करते हुए, मित्र और वरुण देवों के प्रिय धाम की ओर सदैव गतिशील होते हुए दिखाई देते हैं वे कभी भी विराम नहीं लेते ॥४॥ अनश्वो जातो अनभीशुरर्वा कनिक्रदत्पतयदूर्ध्वसानुः । अचित्तं ब्रह्म जुजुषुर्युवानः प्र मित्रे धाम वरुणे गृणन्तः ॥५॥ अश्व और लगाम आदि साधनों से रहित होकर भी ये सूर्यदेव गतिमान होते हैं। वे अपने उदित होने के साथ शब्द करते हुए सभी ऊँचे शिखरों पर रश्मियाँ बिखेरते हैं। मित्र और वरुण देवों की तेजस्विता का गुणगान करते हुए युवा साधक सूर्यदेव की विशेष रूप से स्तुति करते हैं॥५॥ आ धेनवो मामतेयमवन्तीर्ब्रह्मप्रियं पीपयन्त्सस्मिन्नूधन् । पित्वो भिक्षेत वयुनानि विद्वानासाविवासन्नदितिमुरुष्येत् ॥६॥ रक्षक गौएँ (गायें, वाणी, किरणे) अपने स्रोतों से ममतायुक्त उपासकों को पोषण प्रदान करें। सज्ञान के ज्ञाता आप (मित्रावरुण) से उचित पोषण (आहार एवं विचार) माँगें। आपकी उपासना से साधक मृत्यु को जीत लें ॥६॥ आ वां मित्रावरुणा हव्यजुष्टिं नमसा देवाववसा ववृत्याम् । अस्माकं ब्रह्म पृतनासु सह्या अस्माकं वृष्टिर्दिव्या सुपारा ॥७॥ हे दीप्तिमान् मित्रावरुण देव ! हमारे द्वारा विनम्रतापूर्वक गाये गये स्तोत्रों को सुनकर आप दोनों यहाँ पधारें, आहुतियों को ग्रहण करके आप हमें संग्रामों में विजयी बनायें तथा दिव्य वृष्टि द्वारा हमें अकाल और दुःख-दारिद्रय से विमुक्त करें ॥७॥

Recommendations