ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७३ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप रयिर्न यः पितृवित्तो वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषो न शासुः । स्योनशीरतिथिर्न प्रीणानो होतेव सद्म विधतो वि तारीत् ॥१॥ ये अग्निदेव पैतृक सम्पत्ति की तरह अन्न देने वाले तथा ज्ञानी पुरुष के उपदेश की तरह उत्तम प्रेरणा देने वाले हैं। घर में आए अतिथि के समान प्रिय और होता के समान यजमान को घर (आवास) प्रदान करने वाले हैं ॥१॥ देवो न यः सविता सत्यमन्मा क्रत्वा निपाति वृजनानि विश्वा । पुरुप्रशस्तो अमतिर्न सत्य आत्मेव शेवो दिधिषाय्यो भूत् ॥२॥ देदीप्यमान सूर्यदेव के सदृश सत्यदर्शी ये अग्निदेव अपने श्रेष्ठ कर्मों से सभी को पापों से रक्षित करते हैं। असंख्यों द्वारा प्रशंसित होने वाले ये उन्नति करते हुए सत्यमार्ग पर चलते हैं। ये आत्मा के सदृश आनन्दप्रद और सबके द्वारा धारण किये जाने योग्य हैं॥२॥ देवो न यः पृथिवीं विश्वधाया उपक्षेति हितमित्रो न राजा । पुरःसदः शर्मसदो न वीरा अनवद्या पतिजुष्टेव नारी ॥३॥ दीप्तिमान् सूर्यदेव के सदृश सम्पूर्ण संसार को धारण करने वाले, राजा के सदृश प्रजा के हितैषी, मित्र रूप अग्निदेव पृथिवी पर आसीन हैं। पिता के आश्रय में पुत्रों के रहने के समान लोग इनके आश्रय को पाते हैं। ये अग्निदेव पतिव्रता स्त्री की तरह पवित्र और वन्दनीय हैं॥३॥ तं त्वा नरो दम आ नित्यमिद्धमग्ने सचन्त क्षितिषु ध्रुवासु । अधि द्युम्नं नि दधुर्भूर्यस्मिन्भवा विश्वायुर्धरुणो रयीणाम् ॥४॥ हे अग्निदेव ! उपद्रवरहित घरों में लोग नित्य समिधायें प्रज्वलित कर आपकी परिचर्या करते हैं। आकाशीय देवों ने आपको प्रचण्ड तेज़ से अभिपूरित किया है। आप सबके प्राणरूप हैं, हमारे लिये आप धन-वैभव प्रदान करें ॥४॥ वि पृक्षो अग्ने मघवानो अश्युर्वि सूरयो ददतो विश्वमायुः । सनेम वाजं समिथेष्वर्यो भागं देवेषु श्रवसे दधानाः ॥५॥ हे अग्निदेव ! धन सम्पन्न यजमान आपकी अनुकम्पा से अन्नों को प्राप्त करें । विद्वान् हविदाता दीर्घ आयु को प्राप्त करें। हम यश के निमित्त देवों को हवि का भाग देते हुए युद्धों में शत्रु के वैभव को जीतें ॥५॥ ऋतस्य हि धेनवो वावशानाः स्मदूनीः पीपयन्त युभक्ताः । परावतः सुमतिं भिक्षमाणा वि सिन्धवः समया ससुरद्रिम् ॥६॥ सतत दूध (पोषण) देने वाली तेजस्वी गौएँ (किरणें) यज्ञ को पयपान कराती हैं। सुदूर पर्वतों से प्रवाहित नदियाँ (रस प्रवाह) यज्ञ से सद्बुद्धि की याचना करती हैं॥६॥ त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः । नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः ॥७॥ हे अग्निदेव ! यज्ञ में कल्याणकारी बुद्धि की याचना करते हुए पूज्य देवों ने वि समर्पित करके अन्न को धारण किया। अनन्तर रात्रि और विभिन्न रूपों वाली देवी उषा को स्थापित किया। रात्रि में कृष्ण वर्ण को तथा उषा में अरुणिम वर्ण को धारण कराया ॥७॥ यात्राये मर्तान्त्सुषूदो अग्ने ते स्याम मघवानो वयं च । छायेव विश्वं भुवनं सिसक्ष्यापप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम् ॥८॥ हे अग्निदेव ! जिन मनुष्यों को आपने धन प्राप्ति के निमित्त प्रेरित किया हैं, वे और हम धनवान् हों। आपने आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को प्रकाश से अभिपूरित किया है। समस्त जगत् छाया के सदृश आपके साथ संयुक्त है॥८॥ अर्वद्भिरग्ने अर्वतो नृभिर्नान्वीरैर्वीरान्वनुयामा त्वोताः । ईशानासः पितृवित्तस्य रायो वि सूरयः शतहिमा नो अश्युः ॥९॥ हे अग्निदेव ! आपके संरक्षण में रहते हुए हम अपने अश्यों से शत्रुओं के अश्वों को, अपने योद्धाओं से शत्रु योद्धाओं को, अपने पुत्रों से शत्रु पुत्रों को दूर करें। पैतृक सम्पदा को प्राप्त कर हम स्तोतागण शत वर्ष की आयु का पूर्ण उपयोग करें ॥९॥ एता ते अग्न उचथानि वेधो जुष्टानि सन्तु मनसे हृदे च । शकेम रायः सुधुरो यमं तेऽधि श्रवो देवभक्तं दधानाः ॥१०॥ हे मेधावी अग्निदेव ! ये हमारे स्तोत्र आपके मन और हृदय को भली प्रकार सन्तुष्ट करें । हम देवों द्वारा प्रदत्त धन, वैभव और यश को धारण करते हुए सुख को प्राप्त करें ॥१०॥

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