ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ८ ऋषि - इष आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद - जगती त्वामग्न ऋतायवः समीधिरे प्रत्नं प्रत्नास ऊतये सहस्कृत । पुरुश्चन्द्रं यजतं विश्वधायसं दमूनसं गृहपतिं वरेण्यम् ॥१॥ हे बल से उत्पन्न अग्निदेव! यज्ञ कर्म करने वाले पुरातन श्रेषगण अपने संरक्षण के निमित्त आपको भली प्रकार प्रज्वलित करते हैं। आप चिर पुरातन, आनन्ददायक, जगत् को धारण करने वाले, पूज्य, श्रेष्ठ गृह- पालक हैं ॥१॥ त्वामग्ने अतिथिं पूर्वं विशः शोचिष्केशं गृहपतिं नि षेदिरे । बृहत्केतुं पुरुरूपं धनस्पृतं सुशर्माणं स्ववसं जरद्विषम् ॥२॥ हे अग्निदेव ! यजमानों ने आपको यज्ञ-वेदी में स्थापित किया है। आप अतिथि के समान पूजनीय और गृह स्वामी हैं। आप दीप्तिमान् ज्वालाओं वाले, उच्च केतु रूप ज्वालाओं वाले, अनेक रूप वाले, धन देने वाले, अतीव सुखकारी, समिधाओं को जलाने वाले और हमें सब प्रकार से उत्तम संरक्षण देने वाले हैं ॥२॥ त्वामग्ने मानुषीरीळते विशो होत्राविदं विविचिं रत्नधातमम् । गुहा सन्तं सुभग विश्वदर्शतं तुविष्वणसं सुयजं घृतश्रियम् ॥३॥ हे उत्तम धनों के स्वामी अग्निदेव! मनुष्यगण आपकी स्तुति करते हैं। आप यज्ञ-कर्मों को जानने वाले, सत्य-विवेचक, रत्न-दान करने वालों में श्रेष्ठ, गुह्य रूप में रहने वाले, सबके लिए दर्शनीय, अति शब्दवान्, उत्तम रूप से पूजनीय और घृत-सिञ्चन से अति शोभायमान होते हैं ॥३॥ त्वामग्ने धर्णसिं विश्वधा वयं गीर्भिर्गुणन्तो नमसोप सेदिम । स नो जुषस्व समिधानो अङ्गिरो देवो मर्तस्य यशसा सुदीतिभिः ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप सबको धारण करने वाले हैं। हम प्रचुर स्तोत्रों से स्तुति करते हुए, नमस्कारपूर्वक अभिवादन करते हुए आपके सम्मुख आते हैं। हे अंगिराओं में श्रेष्ठ देव! आप भली प्रकार प्रदीप्त होकर उत्तम दीप्तिमान् ज्वालाओं से हमारी वियों को ग्रहण करें । हम मनुष्यों को कीर्ति प्रदान करें ॥४॥ त्वमग्ने पुरुरूपो विशेविशे वयो दधासि प्रत्नथा पुरुष्टुत । पुरूण्यन्ना सहसा वि राजसि त्विषिः सा ते तित्विषाणस्य नाधृषे ॥५॥ हे अग्निदेव ! विविध रूपों वाले आप सभी यजमानों को पहले के समान अन्नों से अभिपूरित करते हैं। आप बारम्बार सभी कर्मों में पूजित होते हैं। आप अपनी सामर्थ्य से विविध अन्नों के स्वामी हैं । आपकी तेजस्वी दीप्तियों को कोई दबा सकने में समर्थ नहीं है ॥५॥ त्वामग्ने समिधानं यविष्ठ्य देवा दूतं चक्रिरे हव्यवाहनम् । उरुज्रयसं घृतयोनिमाहुतं त्वेषं चक्षुर्दधिरे चोदयन्मति ॥६॥ हे युवा अग्निदेव ! आप उत्तम प्रकार से प्रज्वलित होने वाले हैं। देवों ने आपको हवि वहन करने वाले दूत रूप में प्रतिष्ठित किया है। घृत आधार से प्रदीप्त होकर हवि ग्रहण करने वाले हे अग्निदेव ! अत्यन्त वेगवान् और तेजस्वीरूप आपको लोगों ने बुद्धि का प्रेरक और चक्षुरूप मानकर धारण किया है ॥६॥ त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतैः सुम्नायवः सुषमिधा समीधिरे । स वावृधान ओषधीभिरुक्षितोऽभि ज्रयांसि पार्थिवा वि तिष्ठसे ॥७॥ हे अग्निदेव ! सुख की अभिलाषा करने वाले पुरातन यजमान आपको उत्तम समिधाओं से, आहुतियों और घृत से प्रदीप्त करते हैं । ओषधियों आदि से सिञ्चित होकर वृद्धि को प्राप्त हुए, आप पृथ्वी की सतहों पर अन्नों में व्याप्त होकर अवस्थित हैं ॥७॥

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