ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५०

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ५० ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - बृहस्पति, १०-११ इन्द्र बृहस्पति। छंद- त्रिष्टुप, १० जगती यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण । तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥१॥ तीनों लोकों में निवास करने वाले जिन बृहस्पतिदेव ने धरती की दशों दिशाओं को स्तम्भित किया, उन मीठी बोली वाले बृहस्पतिदेव को पुरातन ऋषियों तथा तेजस्वी विद्वानों ने पुरोभाग में स्थापित किया ॥१॥ धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे । पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम् ॥२॥ हे बृहस्पतिदेव ! जिनकी गति रिपुओं को प्रकम्पित करने वाली है, जो आपको आनन्दित करते हैं तथा आपकी प्रार्थना करते हैं, उनके लिए आप फल प्रदान करने वाले, वृद्धि करने वाले तथा हिंसा न करने वाले होते हैं। आप उनके विस्तृत यज्ञ को सुरक्षा प्रदान करते हैं ॥२॥ बृहस्पते या परमा परावदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः । तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्वः श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ॥३॥ हे बृहस्पतिदेव ! दूरवर्ती प्रदेश में जो अत्यधिक श्रेष्ठ स्थान हैं, वहाँ से आपके अश्व यज्ञ में पधारते हैं। जिस प्रकार गहरे जलकुण्ड से जल श्रवित होता है, उसी प्रकार आपके चारों ओर प्रार्थनाओं के साथ पत्थरों द्वारा निचोड़ा गया सोम, मधुर रस का अभिषिंचन करता है ॥३॥ बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन् । सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ॥४॥ सप्त छन्दोमय मुख वाले, बहुत प्रकार से पैदा होने वाले तथा सप्त रश्मियों वाले बृहस्पतिदेव, महान् सूर्यदेव के परम आकाश में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर अपनी ज्योति के द्वारा तमिस्रा को नष्ट करते हैं ॥४॥ स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण । बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद्वावशतीरुदाजत् ॥५॥ बृहस्पतिदेव ने तेजस्वी तथा प्रार्थना करने वाले अंगिरागणों के साथ ध्वनि के द्वारा मेघ और वल नामक राक्षस का वध किया। उन्होंने हवि प्रेरित करने वाली तथा भाने वाली गौओं को ध्वनि करते हुए बाहर निकाला ॥५॥ एवा पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे यज्ञैर्विधम नमसा हविर्भिः । बृहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥ इस प्रकार सबके पालनकर्ता, समस्त देवों के स्वामी तथा बलशाली बृहस्पतिदेव की हम लोग यज्ञों, आहुतियों तथा प्रार्थनाओं के द्वारा सेवा करेंगे। है बृहस्पतिदेव ! उनके प्रभाव से हम लोग श्रेष्ठ सन्तानों तथा पराक्रम से सम्पन्न ऐश्वर्य के स्वामी हो सकें ॥६॥ स इद्राजा प्रतिजन्यानि विश्वा शुष्मेण तस्थावभि वीर्येण । बृहस्पतिं यः सुभृतं बिभर्ति वल्गूयति वन्दते पूर्वभाजम् ॥७॥ जो शासक सर्वप्रथम श्रेष्ठ, पोषक वस्तुओं के द्वारा बृहस्पतिदेव का सत्कार करते हैं, प्रार्थना करते हैं तथा नमन करते हैं। वे शासक समस्त शत्रुओं के बल को अपनी सामर्थ्य के द्वारा जीत लेते हैं ॥७॥ स इत्क्षेति सुधित ओकसि स्वे तस्मा इळा पिन्वते विश्वदानीम् । तस्मै विशः स्वयमेवा नमन्ते यस्मिन्ब्रह्मा राजनि पूर्व एति ॥८॥ जिस शासक के शासन में ब्रह्मज्ञानी पुरोहित सबसे वंदनीय होकर अग्रगमन करते हैं, वहीं शासक भली-प्रकार तुष्ट होकर अपने घर में निवास करता है। उसके लिए धरती सभी समय में फल उत्पन्न करती है। उसके सामने प्रजाएँ स्वयं ही सम्मानपूर्वक नमन करती हैं ॥८॥ अप्रतीतो जयति सं धनानि प्रतिजन्यान्युत या सजन्या । अवस्यवे यो वरिवः कृणोति ब्रह्मणे राजा तमवन्ति देवाः ॥९॥ जो राजा सुरक्षा की कामना करने वाले ब्रह्मज्ञानी को ऐश्वर्य आदि प्रदान करके उसकी सुरक्षा करते हैं, उस राजा को देवता लोग संरक्षित करते हैं तथा वे अप्रतिहत रूप से रिपुओं तथा प्रजाओं के ऐश्वर्य को विजित करते हुए महान् बनते हैं ॥९॥ इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पतेऽस्मिन्यज्ञे मन्दसाना वृषण्वसू । आ वां विशन्त्विन्दवः स्वाभुवोऽस्मे रयिं सर्ववीरं नि यच्छतम् ॥१०॥ हे बृहस्पतिदेव ! आप तथा इन्द्रदेव इस यज्ञ में हर्षित होकर याजकों को ऐश्वर्य प्रदान करें। सब जगह विद्यमान रहने वाले सोमरस आप दोनों के अन्दर प्रवेश करें। आप हमें पराक्रमी सन्तानों से सम्पन्न धन प्रदान करें ॥१०॥ बृहस्पत इन्द्र वर्धतं नः सचा सा वां सुमतिर्भूत्वस्मे । अविष्टं धियो जिगृतं पुरंधीर्जजस्तमर्यो वनुषामरातीः ॥११॥ हे बृहस्पति और इन्द्रदेवो! आप दोनों हमें संवर्धित करें। आप दोनों ही हमारे यज्ञ का संरक्षण करें तथा हमारी मेधा को जाग्रत् करें। आपकी प्रार्थना करने वाले हम याजकों के रिषुओं का आप विनाश करें ॥११॥

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