ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३४

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३४ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- मरुत । छंद - जगती, १५ त्रिष्टुप धारावरा मरुतो धृष्ण्वोजसो मृगा न भीमास्तविषीभिरर्चिनः । अग्नयो न शुशुचाना ऋजीषिणो भूमिं धमन्तो अप गा अवृण्वत ॥१॥ मेघ की जलधारा को आवृत्त करने वाले, शत्रुओं के संहारक बल से युक्त, सिंह की भाँति भय उत्पन्न करने वाले, अग्नि जैसे तेजस्वी, सन्मार्गगामी, गति पैदा करने वाले पूज्य मरुद्गण सूर्य-रश्मियों को प्रकट करते हैं॥१॥ द्यावो न स्तृभिश्चितयन्त खादिनो व्यभ्रिया न द्युतयन्त वृष्टयः । रुद्रो यद्वो मरुतो रुक्मवक्षसो वृषाजनि पृश्न्याः शुक्र ऊधनि ॥२॥ हे सुवर्ण आभूषणों से अलंकृत मरुतो! जिस प्रकार द्युलोक, नक्षत्रों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार आप मेघ में विद्यमानं विद्युत् से शोभायमान हों। आपको रुद्रदेव ने पृथिवीं के पवित्र उदर से उत्पन्न किया है, आप ही शत्रुभक्षक तथा जल की वृष्टि करने वाले हैं॥२॥ उक्षन्ते अश्वाँ अत्याँ इवाजिषु नदस्य कर्णैस्तुरयन्त आशुभिः । हिरण्यशिप्रा मरुतो दविध्वतः पृक्षं याथ पृषतीभिः समन्यवः ॥३॥ मरुद्गण अपने घोड़ों को घुड़दौड़ के घोड़ों के समान बलवान् बनाते हैं। ये शब्द करने वाले द्रुतगामी घोड़े युद्ध में वेग से जाते हैं। हे सुवर्णाभूषणों से अलंकृत मरुद्गण ! आप शत्रुओं को कम्पित करने वाले हैं। आप अन्न आदि (पोषक पदार्थों) के समीप वर्षण करने वाली मेघ मालाओं के माध्यम से जाते हैं॥३॥ पृक्षे ता विश्वा भुवना ववक्षिरे मित्राय वा सदमा जीरदानवः । पृषदश्वासो अनवभ्रराधस ऋजिप्यासो न वयुनेषु धूर्षदः ॥४॥ ये मरुद्गण मित्र के समान सभी भुवनों को आश्रय प्रदान करते हैं । धब्बे वाले घोड़ों से युक्त, अक्षय अन्न प्रदान करने वाले ये दानशील मरुद्गण धर्मानुकूल मार्ग पर चलने वाले याजकों को उन्नति पथ पर ले जाते हैं ॥४॥ इन्धन्वभिर्धेनुभी रप्शदूधभिरध्वस्मभिः पथिभिर्भाजदृष्टयः । आ हंसासो न स्वसराणि गन्तन मधोर्मदाय मरुतः समन्यवः ॥५॥ हे दीप्तिमान् आयुध वाले मन्युयुक्त मरुद्गण ! जिस तरह हंस अपने निवास स्थान की ओर जाते हैं, उसी प्रकार आप बरसने वाले मेघों के साथ धेनु युक्त होकर विघ्न रहित मार्ग से सोम रस का पान करने और आनन्दित होने के लिए यज्ञ में आये ॥५॥ आ नो ब्रह्माणि मरुतः समन्यवो नरां न शंसः सवनानि गन्तन । अश्वामिव पिप्यत धेनुमूधनि कर्ता धियं जरित्रे वाजपेशसम् ॥६॥ हे मन्यु युक्त मरुतो ! जिस प्रकार शूरवीर आते हैं, उसी प्रकार आप हमारे शोधित सोम के पास आयें। हमारी गौओं के अधोभाग को घोड़ी की तरह पुष्ट बनायें तथा याजकों के यज्ञ को अन्न युक्त करें ॥६॥ तं नो दात मरुतो वाजिनं रथ आपानं ब्रह्म चितयद्दिवेदिवे । इषं स्तोतृभ्यो वृजनेषु कारवे सनिं मेधामरिष्टं दुष्टरं सहः ॥७॥ हे वीर मरुद्गण ! आप हमें अन्न युक्त सन्तति प्रदान करें। वह सन्तति आपके आगमन के समय आपका यशोगान करें। आप स्तोताओं को अन्न प्रदान करें। युद्ध के समय पराक्रमी स्तोताओं को दानवृत्ति, युद्ध - कौशल, सद्बुद्धि और अभय तथा अजेय सहनशीलता प्रदान करें ॥७॥ यद्युञ्जते मरुतो रुक्मवक्षसोऽश्वात्रथेषु भग आ सुदानवः । धनुर्न शिश्वे स्वसरेषु पिन्वते जनाय रातहविषे महीमिषम् ॥८॥ ऐश्वर्यशाली, दानशील मरुद्गणों के वक्षस्थल में सुवर्णाभूषण सुशोभित हैं। जिस प्रकार गाय बछड़े को दूध देती है, उसी प्रकार मरुद्गण घोड़ों को रथ में जोतते हुए, हवि प्रदान करने वाले याजक के घर में भरपूर मात्रा में अन्न प्रदान करते हैं॥८॥ यो नो मरुतो वृकताति मर्यो रिपुर्दधे वसवो रक्षता रिषः । वर्तयत तपुषा चक्रियाभि तमव रुद्रा अशसो हन्तना वधः ॥९॥ हे आश्रय प्रदाता मरुद्गण! जो मनुष्य भेड़िये की तरह हमसे शत्रुता करता है, उस हिंसक मनुष्य से हमारी रक्षा करें। उसे संताप जनक चक्र द्वारा चारों ओर से हरायें। हे रुद्रदेव! आप शत्रुओं के आयुधों को दूर करके उन्हें नष्ट करें ॥९॥ चित्रं तद्वो मरुतो याम चेकिते पृश्न्या यदूधरप्यापयो दुहुः । यद्वा निदे नवमानस्य रुद्रियास्त्रितं जराय जुरतामदाभ्याः ॥१०॥ हे मरुद्गणो ! आप गाय के दुग्धाशय का दोहन करके दूध पीते और सबके प्रति मित्रभाव रखते हैं। आपने स्तोताओं के निन्दकों की हत्या की थी तथा वित नामक ऋषि के शत्रुओं का संहार किया था । आपका यह आश्चर्यजनक पराक्रम सर्वविदित है ॥१०॥ तान्वो महो मरुत एवयाव्नो विष्णोरेषस्य प्रभृथे हवामहे । हिरण्यवर्णान्ककुहान्यतस्रुचो ब्रह्मण्यन्तः शंस्यं राध ईमहे ॥११॥ हे द्रुतगामी मरुद्गणो ! आपको हम अपने व्यापक हितों की पूर्ति की कामना से आवाहित करते हैं। हे सुवर्ण के समान तेजस्वी मरुद्गणो ! पुण्य कार्य में निरत हम याजकगण आपसे प्रशंसनीय धन की याचना करते हैं॥११॥ ते दशग्वाः प्रथमा यज्ञमूहिरे ते नो हिन्वन्तूषसो व्युष्टिषु । उषा न रामीररुणैरपोर्णेते महो ज्योतिषा शुचता गोअर्णसा ॥१२॥ दसों इन्द्रियों को अपने वश में करने वाले अद्वितीय वीरों (मरुतों) ने पहले यज्ञ किया। उषाकाल आरंभ होते ही वे हमें प्रेरित करें। जिस प्रकार उषा की अरुणाभ किरणें अंधेरी रात्रि को हटाती हैं, उसी तरह मरुद्गण अपनी तेजस्वी किरणों से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करते हैं॥१२॥ ते क्षोणीभिररुणेभिर्नाञ्जिभी रुद्रा ऋतस्य सदनेषु वावृधुः । निमेघमाना अत्येन पाजसा सुश्चन्द्रं वर्णं दधिरे सुपेशसम् ॥१३॥ रुद्रपुत्र ये मरुद्गण अरुणाभ वस्त्रालंकारों से अलंकृत होकर जल के निवास स्थल मेघ में विस्तार पाते हैं। ये मरुद्गण परस्पर मिलकर वेगयुक्त बल से जल लाते समय हर्षदायक तथा मनोहर सौन्दर्य धारण करते हैं॥१३॥ ताँ इयानो महि वरूथमूतय उप घेदेना नमसा गृणीमसि । त्े रितो न यान्पञ्च होतॄनभिष्टय आववर्तदवराञ्चक्रियावसे ॥१४॥ हम याजकगण उन मरुद्गणों से प्रशंसनीय धन की याचना करते हुए अपने संरक्षण के लिए स्तोत्रों के द्वारा उनकी स्तुतियाँ करते हैं। इन अत्यन्त श्रेष्ठ मरुद्गणों ने पाँच (पाँचों वर्ण) याजकों को चक्र रूपी हथियार से संरक्षण प्रदान करने के लिए त्रित नामक ऋषि को बुलाया था ॥१४॥ यया रधं पारयथात्यंहो यया निदो मुञ्चथ वन्दितारम् । अर्वाची सा मरुतो या व ऊतिरो षु वाश्रेव सुमतिर्जिगातु ॥१५॥ हे मरुद्गणो ! आप जिस समर्थ संरक्षण से याजक को पाप से बचाते हैं, जिस संरक्षण से स्तोताओं को निन्दा करने वालों से मुक्त करते हैं, वहीं समर्थ संरक्षण हमें भी प्रदान करें ॥१५॥

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