Mandal Brahman Upanishad Fifth Brahman (मण्डल ब्राह्मण उपनिषद) पांचवां ब्राह्मण

॥ श्री हरि ॥ ॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद ॥ पंचमं ब्राह्मणम्-पांचवां ब्राह्मण सविषयं मनो बन्धाय निर्विषयं मुक्तये भवति । अतः सर्वं जगच्चित्तगोचरम् । तदेव चित्तं निराश्रयं मनोन्मन्यवस्थापरिपक्कं लययोग्यं भवति । तल्लयं परिपूर्ण मयि समभ्यसेत् । मनोलयकारणमहमेव । अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः । ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिज्र्योतिरन्तर्गतं मनः । यन्मनस्त्रिजगत्सृष्टिस्थितिव्यसनकर्मकृत् । तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् । तल्लयाच्छुद्धाद्वैतसिद्धिर्भेदाभावात् । एतदेव परमतत्त्वम् । स तज्ज्ञो बालोन्मत्त- पिशाचवज्जडवृत्त्या लोकमाचरेत् एवममनस्काभ्यासेनैव नित्यतृप्तिरल्पमूत्रपुरीषमितभोजनदृढाङ्गा- जाड्यनिद्रादृग्वायुचलनाभावब्रह्मदर्शनाज्ज्ञात- सुखस्वरूपसिद्धिर्भवति । एवं चिरसमाधिजनित- ब्रह्मामृतपानपरायणोऽसौ संन्यासी परमहंस अवधूतो भवति । तद्दर्शनेन सकलं जगत्पवित्रं भवति । तत्सेवापरोऽज्ञोऽपि मुक्तो भवति । तत्कुलमेकोत्तरशतं तारयति । तन्मातृपितृजायापत्यवर्गं च मुक्तं भवतीत्युपनिषत् ॥ ॥१॥ सविषय मन बन्धन का और निर्विषय मन मुक्ति का कारण होता है। अतः समस्त जगत् चित्तगोचर है। वही चित्त यदि निराश्रय हो जाए, तो मन उन्मनी अवस्था से परिपक्व होकर (ईश्वर में) लय होने योग्य बन जाता है। इस लय का परिपूर्ण 'मैं' में अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि मनोलय का कारण 'मैं' ही हूँ। अनाहत शब्द और उस शब्द के अन्दर जो ध्वनि होती है, उस ध्वनि के अन्तर्गत ज्योति रहती है और ज्योति के अन्तर्गत मन होता है। जो मन त्रिजगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार रूप कर्म सम्पादन करता है, वही मन जिसमें विलय होता है, वह विष्णु का परम पद है॥ विष्णु के परमपद में लय होने से शुद्ध अद्वैत तत्त्व की सिद्धि होती है; क्योंकि उसमें भेद का अभाव रहता है। यही परमतत्त्व है। इस (परमतत्त्व) को जानने वाला बालकवत्, उन्मत्तवत् या पिशाचवत् जड़ वृत्ति से लोक (संसार) में आचरण करता है। इस प्रकार अमनस्क स्थिति के अभ्यास से नित्य तृप्ति का अनुभव होने लगता है। मल-मूत्र की मात्रा भी अल्प हो जाती है तथा स्वल्प आहार से काम चल जाता है। अङ्गों में दृढ़ता आ जाती है, शरीर में जड़ता नहीं रहती, निद्रा, नेत्र (आँख झपकने), वायु (श्वास) की (चंचल) गति समाप्त हो जाती है, जिसके फलस्वरूप) ब्रह्म दर्शन तथा अज्ञात सुखमय स्वरूप की सिद्धि हो जाती है। इस प्रकार दीर्घ काल तक समाधि की स्थिति के अभ्यास से उत्पन्न ब्रह्मामृत पान करने में परायण रहता हुआ संन्यासी अवधूत हो जाता है। उसके दर्शन से सम्पूर्ण जगत् पवित्र हो जाता है। उसकी सेवा में परायण रहने वाला अज्ञानी भी बन्धन से मुक्त हो जाता है। वह अपने कुल की एक सौ एक पीढ़ियाँ तार देता है। उसके माता-पिता, पत्नी और सन्तति वर्ग भी मुक्त हो जाते हैं। ऐसा यह उपनिषद् है ॥१॥ ॥ इति पंचमं ब्राह्मणम् ॥ ४॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ इति मण्डलब्राह्मणोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद समात ॥

Recommendations