Shivasankalp Upanishad (शिवसंकल्प उपनिषद)

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्रीशिवसङ्कल्पोपनिषत् ॥ शिवसंकल्प उपनिषद यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदुं सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषं ज्योतिरें तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ १॥ परमात्मन् ! जो मन जाग्रत् अवस्था में दूर-दूर तक गमन करता है और उसी प्रकार सुप्तावस्था में भी दूर-दूर तक जाता है; वही (मन) निश्चित रूप से इन्द्रियों का प्रकाशक है, जीवात्मा का एकमात्र माध्यम है, ऐसा हमारा वह मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ १॥ येन कर्माण्य॒पसों मनीषिणों यज्ञे कृण्वन्तिं विदर्थेषु धीराः । यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ २॥ हे परमेश्वर ! जिस मन के द्वारा मनीषीगण यज्ञ आदि सत्कर्मों का सम्पादन करते हैं। जो सबके शरीर में विद्यमान है तथा यज्ञादिकों में अपूर्व एवं आदरणीय भाव से सुशोभित रहता है, वह हमारा मन श्रेष्ठकल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ २ ॥ यत्प्रज्ञानंमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृत प्रजासु । यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ ३॥ हे प्रभो ! जो मन प्रखर ज्ञान से सम्पन्न, चेतनशील, धैर्य सम्पन्न है, जो समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अमर प्रकाश-ज्योतिः रूप में स्थित है, जिसके बिना कोई भी कार्य किया जाना सम्भव नहीं हो पाता; वह हमारा मन श्रेष्ठ- कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ ३ ॥ येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिंगृहीतममृतेन सर्वम् । येन यज्ञस्तायते सप्तहर्होता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ ४॥ जिस अविनाशी मन की सामर्थ्य से सभी कालों का ज्ञान किया जाता है तथा जिसके द्वारा सप्त होतागण यज्ञ का विस्तार करते हैं, ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ ४ ॥ यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथननाभाववा । यस्मिंश्चित सर्वमोतँ प्रजानं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ ५॥ जिस (मन) में वैदिक ऋचाएँ प्रतिष्ठित हैं, जिसमें साम और यजुर्वेद के मन्त्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित हैं, जिस प्रकार रथ के पहिये में 'अरे' स्थित होते हैं तथा जिस मन में प्रजाजनों के समस्त ज्ञान समाहित हैं, ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ ५ ॥ सुषारथिरश्वांनिव॒ यन्मनुष्यान्नेनीयते ऽभीशभिर्वाजिनं इव । हृत्प्रतिष्ठं यदंजिरं जर्विष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ ६॥ जिस प्रकार कुशल 'सारथि' लगाम के नियन्त्रण से गतिमान् अश्वों को गन्तव्य पथ पर अभीष्ट दिशा में ले जाता है, उसी प्रकार जो मन मनुष्यों को लक्ष्य तक पहुँचाता है, जो जरारहित, अतिवेगशील (मन) इस हृदय स्थान में स्थित है; ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ॥ ६ ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति श्रीशिवसङ्कल्पोपनिषत् ॥ ॥ शिवसंकल्प उपनिषद समात ॥

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