ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३७

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः । छंद - त्रिष्टुप ५-८ अनुष्टुप उप नो वाजा अध्वरमृभुक्षा देवा यात पथिभिर्देवयानैः । यथा यज्ञं मनुषो विश्वासु दधिध्वे रण्वाः सुदिनेष्वह्नाम् ॥१॥ हे मनोहर ऋभुगण ! आप जिस प्रकार दिनों की श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए याजकों के यज्ञों को धारण, करते हैं। उसी प्रकार देवताओं के मार्गों द्वारा आप हमारे यज्ञ में पधारें ॥१॥ ते वो हृदे मनसे सन्तु यज्ञा जुष्टासो अद्य घृतनिर्णिजो गुः । प्र वः सुतासो हरयन्त पूर्णाः क्रत्वे दक्षाय हर्षयन्त पीताः ॥२॥ आज आपके मन तथा हृदय को ये यज्ञ, हर्ष प्रदान करने वाले हों । घृत मिला हुआ प्रचुर सोमरस आपकी ओर गमन करे । उत्साह से पूर्ण अभिषुत सोमरस आपकी अभिलाषा करता है। सोमरस पीकर आप सत्कर्म करने की स्फूर्ति प्राप्त करें ॥२॥ त्र्युदायं देवहितं यथा वः स्तोमो वाजा ऋभुक्षणो ददे वः । जुह्वे मनुष्वदुपरासु विक्षु युष्मे सचा बृहद्दिवेषु सोमम् ॥३॥ हे वाजगण तथा ऋभुगण! जिस प्रकार आपको स्तुतियाँ समर्पित की जाती हैं, उसी प्रकार हम आपके लिए, तीनों सवनों में अभिषुत किया जाने वाला तथा देवताओं का कल्याण करने वाला सोमरस समर्पित करते हैं। श्रेष्ठ मनुष्यों के बीच तेजस्वी जीवन जीने वाले हम आपके लिए सोमरस प्रदान करते हैं ॥३॥ पीवोअश्वाः शुचद्रथा हि भूतायः शिप्रा वाजिनः सुनिष्काः । इन्द्रस्य सूनो शवसो नपातोऽनु वश्चेत्यग्रियं मदाय ॥४॥ हे ऋभुओ ! आप बलिष्ठ अश्वों वाले, तेजोयुक्त रथों वाले तथा लौह- कवचों को धारण करने वाले हैं। आप अन्नवान् तथा श्रेष्ठ धन वाले हैं। इन्द्रदेव के पुत्र तथा बल से उत्पन्न हे ऋभुओ! आप सबके हर्ष के लिए यह उत्तम सोमरस प्रदान किया जाता है ॥४॥ ऋभुमृभुक्षणो रयिं वाजे वाजिन्तमं युजम् । इन्द्रस्वन्तं हवामहे सदासातममश्विनम् ॥५॥ हे वागण ! हे ऋभुगण ! हे अश्विनीकुमारो तथा हे इन्द्रदेव ! आप सब हम स्तोताओं को प्रचुर ऐश्वर्य तथा अश्वों (शक्ति) की प्राप्ति के लिए आशीर्वाद प्रदान करें ॥८॥

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