Maitreya Upanishad Fifth Chapter (मैत्रायणी उपनिषद) पंचम प्रपाठक

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रायण्युपनिषत् ॥ ॥ मैत्रायणी उपनिषद ॥ पंचमः प्रपाठकः पंचम प्रपाठक द्विधा वा एष आत्मानं बिभर्त्ययं यः प्राणो यश्चासावादित्योऽथ द्वौ वा एतावास्तां पञ्चधा नामान्तर्बहिश्चाहोरात्रे तौ व्यावर्तेते असौ वा आदित्यो बहिरात्मान्तरात्मा प्राणो बहिरात्मा गत्यान्तरात्मनानुमीयते । गतिरित्येवं ह्याह यः कश्चिद्विद्वानपहतपाप्माध्यक्षोऽवदातमनास्तन्निष्ठ आवृत्तचक्षुः सोऽन्तरात्मागत्या बहिरात्मनोऽनुमीयते गतिरित्येवं ह्याहाथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो यः पश्यति मां हिरण्यवत्स एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर एवाश्रितोऽन्नमत्ति ॥ १॥ वह परमात्मा दो प्रकार की आत्माओं (स्वरूपों) को ग्रहण करता है। यह जो प्राण है तथा जो सूर्य है, यही दोनों सर्वप्रथम उत्पन्न हुए हैं। यह सूर्य बाह्य आत्मा है और प्राण अन्तः की आत्मा है। इसकी गति को देखकर यह अनुमान लगाया जाता है कि यह अन्तरात्मा ही है। वेदों में कहा गया है कि यह आत्मा गतिरूप ही है। जिस विद्वान् के पापों का शमन हो चुका है, वह सभी का अध्यक्ष होता है। उसका मन पवित्र होता है तथा उसकी स्थिति परमात्मा में ही रहती है। उस (विद्वान्) का ज्ञान-चक्षु जाग्रत् हो जाता है तथा वह अन्तरात्मा में ही स्थिर रहता है। वह गतिशील होता हुआ बहिर्गमन कर जाता है। आत्मा की गति का अनुमान लगाया जा सकता है, ऐसा वेदों ने भी प्रतिपादित किया है। सूर्य के मध्य भाग में जो 'पुरुष' स्वर्ण के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जो हमें हिरण्यमय अर्थात् प्रकाश स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वही (पुरुष) हृदयरूपी कमल में स्थित रहते हुए अन्न को ग्रहण करता है ॥ १ ॥ अथ य एषोऽन्तरे हृत्पुष्कर एवाश्रितोऽन्नमत्ति स एषोऽग्निर्दिवि श्रितः सौरः कालाख्योऽदृश्यः सर्वभूतान्नमत्ति कः पुष्करः किमयं वेद वा व ा तत्पुष्करं योऽयमाकाशोऽस्येमाश्चतस्रो दिशश्चतस्र उपदिशः संस्था अयमर्वागग्निः परत एतौ प् राणादित्यावेतावुपासीतोमित्यक्षरेण व्याहृतिभिः सावित्र्या चेति ॥ २॥ जो (पुरुष) हृदय-कमल में विद्यमान एवं अन्न ग्रहण करता है, वही (पुरुष) इस सूर्य की अग्नि के रूप में आकाश में प्रतिष्ठित है। यही काल-नाम से युक्त (पुरुष) है। वह अदृश्य होते हुए भी सर्वभूत रूपी अन्न का भक्षण करता है। यह कमल क्या है? यह क्या जानकारी रखता है? इसका उत्तर यह है कि जो यह आकाश है, यही कमल है और इसमें निवास करने वाला वह समस्त प्रकार की जानकारी रखता है, वह इन चारों दिशाओं एवं उपदिशाओं में प्रतिष्ठित है। वह सभी से परे अर्थात् श्रेष्ठ है। इस प्राण और आदित्य की ॐकार से युक्त एवं व्याहृतियों सहित गायत्री-सावित्री महामन्त्र से उपासना करनी चाहिए ॥ २ ॥ द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं चाथ यन्मूर्त तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं तद्ब्रह्म यद्ब्रह्म तज्ज्योतिर्यज्ज्योतिः स आदित्यः स वा एष ओमित्येतदात्मा स त्रेधात्मानं व्यकुरुत ओमिति तिस्रो मात्रा एताभिः सर्वमिदमोतं प्रोतं चैवास्मिन्नित्येवं ह्याहैतद्वा आदित्य ओमित्येवं ध्यायंस्तथात्मानं युञ्जीतेति ॥ ३॥ ब्रह्म के दो रूप हैं- मूर्त और अमूर्त। जो मूर्तरूप है, वह असत्य है और जो अमूर्त रूप है, वह सत्य है, वही (यथार्थ) ब्रह्म है। जो ब्रह्म है, वही ज्योति है और जो ज्योति है, वही आदित्य है। वही ॐकार (प्रणव) है, वही आत्मा है। उसने अपने स्वरूप को तीन प्रकार से प्रकट किया है। ॐकार तीन मात्राओं से युक्त है। इसी ॐकार में सभी तत्त्व विद्यमान हैं, इस तरह श्रुति में वर्णन मिलता है। आदित्य ही ॐकार स्वरूप ब्रह्म है, ऐसा ध्यान करते हुए पुरुष को चाहिए कि वह आत्मा का उसके साथ संयोजन करे ॥ ३ ॥ अथान्यत्राप्युक्तमथ खलु य उद्गीथः स प्रणवो यः प्रणवः स उद्गीथ इत्यसावादित्य उद्गीथ एव प्रणव इत्येवं ह्याहोद्गीथः प्रणवाख्यं प्रणेतारं नामरूपं विगतनिद्रं विजरमविमृत्युं पुनः पञ्चधा ज्ञेयं निहितं गुहायामित्येवं ह्याहोर्ध्वमूलं वा आब्रह्मशाखा आकाशवाय्वग्युदकभूम्यादय एकेनात्तमेतद्ब्रह्म तत्तस्यैतत्ते यदसावादित्य ओमित्येतदक्षरस्य चैतत्तस्मादोमित्यनेनैतदुपासीताजस्रमित्येकोऽस्य रसं बोधयीत इत्येवं ह्याहैतदेवाक्षरं पुण्यमेतदेवाक्षरं ज्ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ ४॥ तत्पश्चात् एक अन्य स्थान पर यह कहा गया है कि जो उद्गीथ (उद्-प्राण, गीथ = अभिव्यक्ति) है। वही ॐकार है। जो ॐकार (प्रणव) है, वही उद्गीथ है। जो प्रारम्भिक नाम से युक्त तत्त्व है, वही सभी को प्रादुर्भूत करने वाला है। वह नाम तथा रूप से युक्त है, निद्रारहित और वृद्धावस्था से रहित है, मृत्यु रहित है। इस प्रकार से उसे पाँच भागों (रूपों) में जानना चाहिए। वह हृदय रूप गुफा में ही निवास करता है, ऐसा श्रुति का मत है। इस ॐकार रूप परमात्मा का मूल ऊर्ध्व की ओर और जहाँ तक ब्रह्म है, वहाँ तक इसकी शाखाएँ फैली हुई हैं। वे समस्त शाखाएँ आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी आदि के रूप में हैं। इस एक ही तत्त्व के माध्यम से यह सभी कुछ प्राप्त किया जा सकता है। वही ब्रह्म है। यह समस्त विश्व उस (ॐकार) का ही स्वरूप है। यह सूर्य भी ॐकार का ही रूप है। अतः ॐकार के द्वारा उस (सूर्य) की सदा प्रार्थना करनी चाहिए। इसी एकमात्र ॐकार से ही उसके रस का बोध किया जा सकता । है, ऐसा श्रुतियों का मत है। यही पवित्र' अक्षर रूप ब्रह्म है', इसी ॐकाररूप अक्षर का बोध करके मनुष्य जो भी चाहे, इच्छानुसार प्राप्त कर सकता है॥ ४॥ अथान्यत्राप्युक्तं स्तनयत्येपास्य तनूर्या ओमिति स्त्रीपुंनपुंसकमिति लिङ्गवत्येषाथाग्निर्वायुरादित्य इति भास्वत्येषाथ रुद्रो विष्णुरित्यधिपतिरित्येषाथ गार्हपत्यो दक्षणाग्निराहवनीय इति मुखवत्येषाथ ऋग्यजुःसामेति विजानात्येषथ भूर्भुवस्वरिति लोकवत्येषाथ भूतं भव्यं भविष्यदिति कालवत्येषाथ प्राणोऽग्निः सूर्यः इति प्रतापवत्येषाथान्नमापश्चन्द्रमा इत्याप्यायनवत्येषाथ बुद्धिर्मनोऽहङ्कार इति चेतनवत्येषाथ प्राणोऽपानो व्यान इति प्राणवत्येके त्यजामीत्युक्तैताह प्रस्तोतार्पिता भवतीत्येवं ह्याहैतद्वै सत्यकाम परं चापरं च यदोमित्येतदक्षरमिति ॥ ५॥ पुनः इसके पश्चात् अन्यत्र कहा गया है कि इस (ब्रह्मा) का शरीर जो शब्द उच्चारित करता है, उसे ॐ कहते हैं। यह (ॐकार) स्त्री-पुरुष एवं नपुंसक इन तीनों लिङ्गों से युक्त है। अग्नि, वायु एवं सूर्य के रूप में यह प्रकाश देने वाला है तथा ब्रह्मा, रुद्र और विष्णु के रूप में अधिपति स्वरूप है। गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय ये ही तीनों अग्नियाँ उसके तीन मुख हैं तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को भी वह जानने में समर्थ है। भूः, भुवः और स्वः ये तीन लोक भी इसी के रूप हैं। उस ॐकार रूप ब्रह्म के भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीन काल हैं। प्राण, अग्नि और आदित्य उसके प्रताप हैं। अन्न, जल और चन्द्रमा उसके पोषक तत्त्व हैं। बुद्धि, मन और अहंकार ये तीनों उसकी चेतना हैं तथा प्राण, अपान एवं व्यान उसके प्राण हैं। ऐसा ही अनेकों ने कहा है। यह स्तुति करने वाला तथा स्वयं अर्पित करनेवाला कहा गया है, ऐसा श्रुति का वचन है। हे सत्य कामना वाले! यही (ॐकार) पर एवं अपर रूप ब्रह्म है। यह ॐकार ही अक्षर है॥ ५ ॥ अथ व्यात्तं वा इदमासीत्सत्यं प्रजापतिस्तपस्तप्त्वा अनुव्याहरभूर्भुवः स्वरित्येषा हाथ प्रजापतेः स्थविष्ठा तनूर्वा लोकवतीति स्वरित्यस्याः शिरो नाभिर्भुवो भूः पादा आदित्यश्चक्षुरायत्तः पुरुषस्य महतो मात्राश्चक्षुषा ह्ययं मात्राश्चरिति सत्यं वै चक्षुरक्षिण्युपस्थितो हि पुरुषः सर्वार्थेषु वदत्येतस्माद्‌भूर्भुवः स्वरित्युपासीतान्नं हि प्रजापतिर्विश्वात्मा विश्वचक्षुरिवोपासितो भवतीत्येवं ह्ययाहैषा वै प्रजापतिर्विश्वभृत्तनूरेतस्यामिदं सर्वमन्तर्हितमस्मिँश्च सर्वस्मिन्नेषान्तर्हितेति तस्मादेषोपासीतेति ॥ ६॥ इसके अनन्तर इस (ॐकाररूप ब्रह्म) ने जो विस्तार किया, वही सत्य है। प्रजापति ने कठोर तप करके उन तीन व्याहृतियों भूः, भुवः और स्वः का उच्चारण किया। यही (व्याहृतियाँ) प्रजापति का स्थूल शरीर है। इसका निर्माण लोकों के द्वारा हुआ है। स्वः उसका मस्तक है, भुवः नाभि है, भूः पैर हैं और आदित्य उसके नेत्र हैं। यह सब उसके अधीन है। महापुरुषों की ये मात्राएँ (अंश) हैं। यह (पुरुष) नेत्रों के द्वारा इन मात्राओं में गमन करता है। सत्य ही नेत्र हैं। नेत्र में स्थित पुरुष ही सभी पदार्थों के विषय में बतलाता है। अतः भूः, भुवः और स्वः इस विधि के अनुसार ही उपासना करनी चाहिए। अन्न ही प्रजापति है। वह सभी का आत्मा तथा सभी का चक्षु है, वह उपास्य है, ऐसा वेद भी कहते हैं। यह प्रजापति ही समस्त विश्व को धारण करने वाला शरीर है, इसमें वह सभी कुछ स्थित है तथा वह इन सभी में विद्यमान है। अतः इसी श्रेष्ठ तत्त्व की उपासना करनी चाहिए ॥ ६॥ तत्सवितुर्वरेण्यमित्यसौ वा आदित्यः सविता स वा एवं प्रवरणाय आत्मकामेनेत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्गो देवस्य धीमहीति सविता वै तेऽवस्थिता योऽस्य भर्गः कं सञ्चितयामीत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ धियो यो नः प्रचोदयादिति बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकं प्रचोदयादित्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्ग इति यो ह वा अस्मिन्नादित्ये निहितस्तारकेऽक्षिणि चैष भर्गाख्यो भाभिर्गतिरस्य हीति भर्गो भर्जति वैष भर्ग इति ब्रह्मवादिनोऽथ भर्ग इति भासयतीमा ल्लोकानिति रज्जयतीमानि भूतानि गच्छत इति गच्छत्यस्मिन्नागच्छत्यस्मा इमाः प्रजास्तस्माद्भारकत्वाद्भर्गः शत्रून्सूयमानत्वात्सूर्यः सव्नात्सविता दानादादित्यः पवनात्पावमानोऽथायोऽथायनादादित्य इत्येवं ह्याह खल्वात्मनात्मामृताख्यश्वेता मन्ता गन्ता स्रष्टा नन्दयिता कर्ता वक्ता रसयिता घ्राता स्पर्शयिता च विभुविग्रहे सन्निष्ठा इत्येवं ह्याहाथ यत्र द्वैतीभूतं विज्ञानं तत्र हि शृणोति पश्यति जिघ्रतीति रसयते चैव स्प पर्शयति सर्वमात्मा जानीतेति यत्राद्वैतीभूतं विज्ञानं कार्यकारणनिर्मुक्तं निर्वचनमनौपम्यं निरुपाख्यं किं तदङ्ग वाच्यम् ॥ ७॥ 'तत्सवितुर्वरेण्यं' यही उस सविता का प्रकाश है अथवा स्वयं ही यह आदित्य है और यही समस्त प्राणि-समुदाय को उत्पन्न करने वाला 'सविता' है। ऐसा जानकर आत्मतत्त्व की इच्छा रखने वाले को, उसी को ग्रहण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। ऐसा ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाले कहते हैं। अब' भर्गो देवस्य धीमहि' इस पद का विवेचन करते हैं; इसके अनुसार क्योंकि वह 'भर्ग' सम्मुख ही उपस्थित रहता है। उनका जो 'भर्ग' है, वह बुद्धि (ज्ञान) को प्राप्त करता रहता है। ब्रह्मवादी प्रायः प्रश्न करते रहते हैं कि हम किसका चिंतन करें ? तो इसका उत्तर यह है कि हम उस भर्ग शक्ति' का ही ध्यान करें। अब 'धियो यो नः प्रचोदयात्' की विवेचना करते हैं। इसके अनुसार बुद्धि को ही 'धी' कहते हैं। जो हमारी बुद्धि को प्रेरणा प्रदान करता है - सन्मार्ग की ओर उन्मुख करता है' ऐसा ब्रह्मवादी कहते हैं।' भर्ग' वही है, जो सूर्य में निहित है। आँख की पुतली में भी भर्ग' स्थित है। इसकी कान्ति से मनुष्य गति करता है, अतः यह 'भर्ग' है अथवा यह सभी को तप्त करता है, इस कारण से यह 'भर्ग' कहलाता है। यह रुद्र को ब्रह्म मानने वालों के विचार हैं। 'भ' अर्थात् लोकों को प्रकाशित करने वाला, 'र' अर्थात् समस्त प्राणियों का रज्जन करने वाला एवं 'ग' अर्थात् प्राणियों-प्रजाओं के गमनागमन का आधार स्वरूप, इस प्रकार भ, र, ग होने से भर्ग है। निरन्तर प्रसव (जन्म देने) के कारण सूर्य कहलाता है, सबको प्रादुर्भूत करने के कारण 'सविता' कहलाता है। सबको प्रकाश देने के कारण आदित्य और सबको पवित्र करता है, इससे पवमान कहलाता है अथवा सभी की ओर गमन करने से तथा सभी को अयन (आश्रय स्थल) होने से उसे 'आदित्य' कहते हैं। वह स्वयं ही आत्मा है। इसका नाम अमृत है, सर्वज्ञ है, चिन्तन करता है, गति करता है, सृजन करता है, आनन्द प्रदान करता है, स्वयं कहता है, स्वाद लेता है, सूँघता है, स्पर्श करता है, समस्त शरीर में व्याप्त रहता है और उत्तम स्वाद से युक्त है, ऐसा (वेद) कहते हैं। जहाँ पर विज्ञान द्वैत (दो) रूप में होता है, वहाँ जो सुनता है, देखता है, सूँघता है, स्वाद लेता है और स्पर्श करता है, वह सब आत्मा ही है, इस तरह से तुम ऐसा निश्चय रखो। जहाँ विज्ञान अद्वैत हो जाता है, वहाँ कार्य और कारण से रहित, वर्णनातीत, उपमारहित तथा व्याख्या विहीन हो जाता है। ऐसे उस भर्ग-शक्ति' के संदर्भ में क्या कहा जाए? ॥७॥ एष हि खल्वात्मेशानः शंभुर्भवो रुद्रः प्रजापतिर्विश्वसृद्धिरण्यगर्भः सत्यं प्राणो हंसः शान्तो विष्णुर्नारायणोऽर्कः सविता धाता सम्राडिन्द्र इन्दुरिति य एष तपत्यग्निना पिहितः सहस्राक्षेण हिरण्मयेनानन्देनैष वाव विजिज्ञासितव्योऽन्वेष्टव्यः सर्वभूतेभ्योऽभयं दत्त्वारण्यं गत्वाथ बहिःकृतेन्द्रियार्थान्स्वशरीरादुपलभतेऽथैनमिति विश्वरूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् । सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥ ८॥ (हे श्रेष्ठ मुने!) यही आत्मा है, यही सबका नियन्ता, ईश्वर, शंकर, भव, रुद्र, प्रजापति, विश्वस्रष्टा, हिरण्यगर्भ, सत्य, प्राण, हंस, शास्ता (उपदेशक), विष्णु, नारायण, अर्क, सविता, धाता, सम्राट्, इन्द्र और चन्द्र भी वही है। जो इस अग्नि के रूप में तप है और सहस्रों के चक्षु रूप में प्रकाशमय आनन्द से परिपूर्ण है, वही जानने योग्य है। सभी प्राणियों को अभय-दान प्रदान करके तपोवन में जाकर उस 'ॐकार' का अनुसंधान करना चाहिए। (जो मनुष्य) इन्द्रियों के विषयभोगों का बहिष्कार करते हैं, उनको अपने शरीर में से ही वह (प्रकाश तत्त्व) प्राप्त हो जाता है। यही विश्वरूप, मनोहर, जन्म ग्रहण करने वालों का पूर्ण ज्ञाता है, सभी का परम आश्रय स्थल और ज्योतिरूप से तप्त (प्रकाशित) होता है। यह सूर्य-सविता (परमात्मा) सहस्रों रश्मियों से युक्त, सैकड़ों तरह से वर्तमान तथा समस्त प्रजाजनों का प्राणरूप होकर प्रकट होता है ॥ ८ ॥ ॥ इति पञ्चमः प्रपाठकः ॥५॥ ॥ पंचम प्रपाठक समात ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिशद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों मे जो धर्म हैं वे आत्मज्ञान मे लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ इति मण्डलब्राह्मणोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ मैत्रायणी उपनिषद समात ॥

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