ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त १४

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त १४ ऋषि - ऋषभो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप आ होता मन्द्रो विदथान्यस्थात्सत्यो यज्वा कवितमः स वेधाः । विद्युद्रथः सहसस्पुत्रो अग्निः शोचिष्केशः पृथिव्यां पाजो अश्रेत् ॥१॥ देवों के आह्वानकर्ता, सुखकारक, सत्यपालक, मेधावियों में श्रेष्ठ, यज्ञकारी, विधाता वे अग्निदेव हमारे यज्ञ में अधिष्ठित हों। वे प्रकाशित रथ-युक्त, ज्योतित केशों वाले, बल के पुत्र अग्निदेव इस पृथ्वी पर अपनी प्रभा को प्रकट करते हैं॥१॥ अयामि ते नमउक्तिं जुषस्व ऋतावस्तुभ्यं चेतते सहस्वः । विद्वाँ आ वक्षि विदुषो नि षत्सि मध्य आ बर्हिरूतये यजत्र ॥२॥ हे यज्ञ-सम्पादक अग्निदेव ! हम नमस्कारपूर्वक आपकी स्तुति करते हैं। हे बलवान् और ज्ञानवान् देव! निवेदित स्तुतियों को आप स्वीकार करें। आप विद्वान् हैं, अतएव विद्वान् देवगणों को अपने साथ ले आयें । हमारे संरक्षण के लिए आप यज्ञ गृह के मध्य में बिछे कुश के आसन पर विराजमान हों ॥२॥ द्रवतां त उषसा वाजयन्ती अग्ने वातस्य पथ्याभिरच्छ । यत्सीमज्ञ्जन्ति पूर्वं हविर्भिरा वन्धुरेव तस्थतुर्दुरोणे ॥३॥ हे अग्निदेव ! अन्नवती उषा और रात्रि, आपके निमित्त गमन करती हैं। आप वायु मार्ग से आगमन करें। पुरातन जत्विग्गणे आपको हव्यादि द्वारा सिञ्चित करते हैं। एक ही जुए में जुड़ी हुई (परस्पर संयुक्त) उषा और रात्रि हमारे घर में स्थित हों ॥३॥ मित्रश्च तुभ्यं वरुणः सहस्वोऽग्ने विश्व मरुतः सुम्नमर्चन् । यच्छोचिषा सहसस्पुत्र तिष्ठा अभि क्षितीः प्रथयन्त्सूर्यो नृन् ॥४॥ हे बल सम्पन्न अग्निदेव ! मित्र, वरुण और सम्पूर्ण मरुद्गण आपके निमित्त स्तुतियाँ करते हैं। हे बल के पुत्र अग्निदेव ! आप सूर्य की तरह मनुष्यों को श्रेष्ठ पथ दिखाने वाली रश्मियों को विस्तारित कर, अपनी तेजस्विता से स्थित हों ॥४॥ वयं ते अद्य ररिमा हि काममुत्तानहस्ता नमसोपसद्य । यजिष्ठेन मनसा यक्षि देवानस्रेधता मन्मना विप्रो अग्ने ॥५॥ हे अग्निदेव ! हम कामना युक्त याजक ऊँचे हाथ करके आपको हव्यादि अर्पित करते हैं। हे मेधावान् अग्निदेव ! हमारे व्यादि से सन्तुष्ट होकर आप अपने श्रेष्ठ मन से स्तोत्रों द्वारा देवों का यजन करें ॥५॥ त्वद्धि पुत्र सहसो वि पूर्वर्वीर्देवस्य यन्त्यूतयो वि वाजाः । त्वं देहि सहस्रिणं रयिं नोऽद्रोघेण वचसा सत्यमग्ने ॥६॥ हे बल के पुत्र अग्ने ! आपकी सनातन रक्षक किरणें देवों की ओर गमन करती हैं और उन्हें अन्नादि भी प्रदान करती हैं। हे अग्निदेव ! आप हमें द्रोहरहित, तेजोमय सहस्रों प्रकार के अक्षय धन प्रदान करें ॥६॥ तुभ्यं दक्ष कविक्रतो यानीमा देव मर्तासो अध्वरे अकर्म । त्वं विश्वस्य सुरथस्य बोधि सर्वं तदग्ने अमृत स्वदेह ॥७॥ हे बलवान्, मेधावान्, दीप्तिमान् अग्निदेव ! हम मनुष्य यज्ञ में आपके निमित्त हव्यादि कर्मों को निवेदित करते हैं। हे अविनाशी अग्निदेव ! यज्ञ में निवेदित इन हवियों का आरः आस्वादन करें। उत्तम रथ वाले आप यजमानों की रक्षा के निमित्त चैतन्य हों ॥७॥

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