ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २६

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त २६ ऋषिः वसूयव आत्रेयाः देवता - अग्नि, ९ विश्वे देवाः । छंद गायत्री अग्ने पावक रोचिषा मन्द्रया देव जिह्वया । आ देवान्वक्षि यक्षि च ॥१॥ हे पवित्रता प्रदान करने वाले अग्निदेव ! देवताओं को प्रसन्न करने वाली ज्वालारूपी जिह्वा द्वारा, देवताओं को आमंत्रित करें और उनके निमित्त यज्ञ सम्पन्न करें ॥१॥ तं त्वा घृतस्त्रवीमहे चित्रभानो स्वर्दृशम् । देवाँ आ वीतये वह ॥२॥ घृत से उत्पन्न होने वाले, अ‌द्भुत तेजस्वी, सबको देखने वाले हे अग्ने ! आपकी हमें प्रार्थना करते हैं। हवि के सेवन के लिए आप देवों को यहाँ बुलायें ॥२॥ वीतिहोत्रं त्वा कवे ह्युमन्तं समिधीमहि । अग्ने बृहन्तमध्वरे ॥३॥ हे ज्ञानी अग्ने ! यज्ञानुरागी, तेजस्वी तथा महान् आपको हम यज्ञ में प्रज्वलित करते हैं ॥३॥ अग्ने विश्वेभिरा गहि देवेभिर्हव्यदातये । होतारं त्वा वृणीमहे ॥४॥ हे अग्ने ! आप सम्पूर्ण देवों के साथ हविदाता यज्ञमान के लिए यज्ञ में आकर अधिष्ठित हों। हम देवों का आवाहन करने वाले होतारूप में आपका वरण करते हैं ॥४॥ यजमानाय सुन्वत आग्ने सुवीर्यं वह । देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप सोम-सवन करने वाले यजमान के लिए श्रेष्ठ पराक्रम को धारण करें और आप देवों के साथ यज्ञ में बिछाये कुशाओं पर विराजमान हों ॥५॥ समिधानः सहस्रजिदग्ने धर्माणि पुष्यसि । देवानां दूत उक्थ्यः ॥६॥ हे सहस्रों शत्रु-जेता अग्निदेव ! आप हव्य-पदार्थों से प्रदीप्त होकर, स्तोत्रों से प्रशंसित होकर, देवों के दूत रूप में सभी धर्म-अनुष्ठानों को सम्यक्रूप से पुष्ट करते हैं ॥६॥ न्यग्निं जातवेदसं होत्रवाहं यविष्ठ्यम् । दधाता देवमृत्विजम् ॥७॥ है यजमानो ! आप सब अग्निदेव को भली प्रकार स्थापित करें। वे अग्निदेव प्राणिमात्र को जानने वाले, यज्ञ-सम्पादक, अति युवा तथा दीप्तिमान् हैं ॥७॥ प्र यज्ञ एत्वानुषगद्या देवव्यचस्तमः । स्तृणीत बर्हिरासदे ॥८॥ हे ऋत्विजो ! आप अग्निदेव के विराजमान होने के लिए कुश बिछायें, जिससे तेजस्वी स्तोताओं द्वारा प्रदत्त हविष्यान्न आज देवों को भली प्रकार प्राप्त हो ॥८॥ एदं मरुतो अश्विना मित्रः सीदन्तु वरुणः । देवासः सर्वया विशा ॥९॥ मरुद्गण, दोनों अश्विनीकुमार, मित्रदेव, वरुणदेव और अन्यान्य सभी देवगण अपनी प्रजाओं के साथ हमारे यज्ञ-स्थान में अधिष्ठित हों ॥९॥

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