ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४४

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ४४ ऋषि - पुरमीलहाजमीलहौ सौहोत्रौ देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप तं वां रथं वयमद्या हुवेम पृथुज्रयमश्विना संगतिं गोः । यः सूर्या वहति वन्धुरायुर्गिर्वाहसं पुरुतमं वसूयुम् ॥१॥ हे अश्विनीकुमारो ! आज हम आपके प्रसिद्ध वेगवाले तथा गौ प्रदान करने वाले रथ को आहूत करते हैं। काष्ठ स्तम्भयुक्त वह रथ सूर्या को भी धारण करता है। वह स्तुतियों को ढोने वाला, विशाल तथा ऐश्वर्यवान् है ॥१॥ युवं श्रियमश्विना देवता तां दिवो नपाता वनथः शचीभिः । युवोर्वपुरभि पृक्षः सचन्ते वहन्ति यत्ककुहासो रथे वाम् ॥२॥ हे द्युलोक को रोकने वाले अश्विनीकुमारो! आप दोनों देवता हैं। आप दोनों उस श्रेष्ठता को अपने बल के द्वारा प्राप्त करते हैं। जब विशाल अश्वों वाले रथ आपको वहन करते हैं, तब आप दोनों के शरीर को सोमरस पुष्ट करता है ॥२॥ को वामद्या करते रातहव्य ऊतये वा सुतपेयाय वाकैः । ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥३॥ कौन से सोमरस प्रदाता आज अपनी सुरक्षा के लिए अथवा अभिषुत सोमरस को पीने के लिए आपकी प्रार्थना करते हैं? नमन करने वाले कौन लोग आप दोनों को यज्ञ के लिए प्रवृत्त करते हैं ॥३॥ हिरण्ययेन पुरुभू रथेनेमं यज्ञं नासत्योप यातम् । पिबाथ इन्मधुनः सोम्यस्य दधथो रत्नं विधते जनाय ॥४॥ हे अनेकों प्रकार से अपनी सत्ता को प्रकट करने वाले तथा सत्य का पालन करने वाले अश्विनीकुमारो! आप दोनों इस यज्ञ में स्वर्णिम रथ द्वारा पधारें, मधुर सोमरस पियें तथा पुरुषार्थी मनुष्यों को मनोहर ऐश्वर्य प्रदान करें ॥४॥ आ नो यातं दिवो अच्छा पृथिव्या हिरण्ययेन सुवृता रथेन । मा वामन्ये नि यमन्देवयन्तः सं यद्ददे नाभिः पूर्व्या वाम् ॥५॥ श्रेष्ठ, स्वर्णिम रथ द्वारा आप दोनों द्युलोक अथवा भूलोक से हमारी तरफ पधारें । आपके अभिलाषी अन्य याजक आपको बीच में ही अवरुद्ध न कर सकें, क्योंकि पुरातनकाल से ही हमने स्तुतियाँ प्रस्तुत की हैं ॥५॥ नू नो रयिं पुरुवीरं बृहन्तं दस्रा मिमाथामुभयेष्वस्मे । नरो यद्वामश्विना स्तोममावन्त्सधस्तुतिमाजमीव्हासो अग्मन् ॥६॥ हे रिपुओं के संहारक अश्विनीकुमारो! आप अनेक वीरों से सम्पन्न प्रचुर ऐश्वर्य को हम दोनों के लिए प्रदान करें। हे अश्विनीकुमारो ! पुरुमीव्ळ्ह के स्तोताओं ने आपको स्तुति द्वारा प्राप्त किया है और अजमीळ्ह के स्तोताओं की प्रशंसा भी उसी के साथ सम्मिलित है ॥६॥ इहेह यद्वां समना पपृक्षे सेयमस्मे सुमतिर्वाजरत्ना । उरुष्यतं जरितारं युवं ह श्रितः कामो नासत्या युवद्रिक् ॥७॥ हे शक्तिरूप अन्न को अपने समीप रखने वाले अश्विनीकुमारो ! समान विचार वाले आप दोनों के लिए हम स्तुतियाँ समर्पित करते हैं। वे श्रेष्ठ स्तुतियाँ हम याजकों के लिए फल देने वाली हों। हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों हमारी सुरक्षा करें। हमारी कामनाएँ आपकी ओर गमन करती हैं ॥७॥

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