ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २२ ऋषि - मेधातिथिः काण्वः देवता- १-४ आश्विनौ, ५-८ सविता, ९-१० अग्नि, ११ इंद्राणी, १३-१४ द्यावा पृथ्वी, १५, पृथ्वी, १६, विष्णु देवा;, १७-२१ विष्णुः । छंद- गायत्री प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये ॥१॥ हे अध्वर्युगण ! प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्विनीकुमारों को जगायें। वे हमारे इस यज्ञ में सोमपान करने के निमित्त पधारें ॥१॥ या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा । अश्विना ता हवामहे ॥२॥ ये दोनों अश्विनीकुमार सुसज्जित रथों से युक्त महान् रथी हैं। ये आकाश में गमन करते हैं। इन दोनों का हम आवाहन करते हैं॥२॥ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम् ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक- वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें ॥३॥ नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः । अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप रथ पर आरूढ़ होकर जिस मार्ग से जाते हैं, वहाँ से सोमयाग करने वाले याजक का घर दूर नहीं है ॥४॥ हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥५॥ यजमान को (प्रकाश-ऊर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ (हाथ में सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणों वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते हैं। वे ही यजमान के द्वारा प्राप्तव्य (गन्तव्य) स्थान को विज्ञापित (प्रकाशित करने वाले हैं॥५॥ अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि ॥६॥ हे ऋत्विज् ! आप हमारी रक्षा के लिये सवितादेवता की स्तुति करें। हम उनके लिए सोमयागादि कर्म सम्पन्न करना चाहते हैं। वे सवितादेव जलों को सुखाकर पुनः सहस्रों गुना बरसाने वाले हैं॥६॥ विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम् ॥७॥ समस्त प्राणियों के आश्रयभूत, विविध धनों के प्रदाता, मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव को हम आवाहन करते हैं॥७॥ सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः । दाता राधांसि शुम्भति ॥८॥ हे मित्रो ! हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें। धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान हैं॥८॥ अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ॥९॥ हे अग्निदेव ! यहाँ आने की अभिलाषा रखने वाली देवों की पत्नियों को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भी सोमपान के निमित्त बुलाएँ ॥९॥ आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम् । वरूत्रीं धिषणां वह ॥१०॥ हे अग्निदेव ! देवपत्नियों को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आएँ । आप हमारी रक्षा के लिए अग्निपत्नी होत्रा, आदित्यपली भारती, वरणीय वाग्देवी धिषणा आदि देवियों को भी यहाँ ले आएँ ॥१०॥ अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः । अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ॥११॥ अनवरुद्ध मार्ग वाली देव-पलियाँ मनुष्यों को ऐश्वर्य देने में समर्थ हैं। वे महान् सुखों एवं रक्षण सामथ्र्यो से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हों ॥११॥ इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये । अग्नायीं सोमपीतये ॥१२॥ अपने कल्याण के लिए एवं सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणपत्नी (वरुणानी) और अग्निपत्नी (अग्नायी) का आवाहन करते हैं॥१२॥ मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः ॥१३॥ अति विस्तारयुक्त पृथ्वी और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने- अपने अंशों द्वारा परिपूर्ण करें । वे भरण-पोषण करने वाली सामग्रियों (सुख – साधनों) से हम सभी को तृप्त करें ॥१३॥ - तयोरिघृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१४॥ गंधर्वलोक के ध्रुव स्थान में आकाश और पृथ्वी के मध्य में अवस्थित घृत के समान (सार रूप) जलों (पोषक प्रवाहों) को ज्ञानी जन अपने विवेकयुक्त कर्मों (प्रयासों) द्वारा प्राप्त करते हैं ॥१४॥ स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथः ॥१५॥ हे पृथिवी देवि ! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वाली और उत्तमवास देने वाली हैं। आप हमें विपुल परिमाण में सुख प्रदान करें ॥१५॥ अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥१६॥ जहाँ से (यज्ञ स्थल अथवा पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम में) पृथ्वी के सप्तधामों से देवतागण हमारी रक्षा करें ॥१६॥ इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥ यह सब विष्णुदेव की पराक्रम है, तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियाम) उनके चरण हैं। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश में निहित है ॥ १७ ॥ त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ विश्वरक्षक, अविनाशी विष्णुदेव तीनों लोकों में यज्ञादि कर्मों को पोषित करते हुए तीन चरणों से जगत् में व्याप्त हैं अर्थात् तीन शक्ति धाराओं (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते हैं॥१८॥ विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥१९॥ हे याजको ! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु के सृष्टि संचालन सम्बन्धी कार्यों को (प्रजनन, पोषण और परिवर्तन की प्रक्रिया को) ध्यान से देखो। इसमें अनेकानेक व्रतों (नियमों – अनुशासनों) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र (आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहें (ईश्वरीय अनुशासनों का पालन करें) ॥१९॥ तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥ जिस प्रकार सामान्य नेत्रों से आकाश में स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान-चक्षुओं से विष्णुदेव के (देवत्व के परमपद को) श्रेष्ठ स्थान को देखते (प्राप्त करते हैं॥२०॥ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥२१॥ जागरूक विद्वान् स्तोतागण विष्णुदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं। (अर्थात् जन सामान्य के लिए प्रकट करते है) ॥२१॥

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