ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २४ ऋषि – आजीगर्तिः शुनः शेप स करित्रमो वैश्वामित्रों देवतरातः: देवता- १ प्रजापति, २ अग्नि ३- सविता, ५ भगो वा, ६-१५ वरुण । छंद- १,२, ६-१५ त्रिष्टुप, ३-५ गायत्री कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम । को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥१॥ हम अमर देवों में से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमें महती अदिति - पृथिवी को प्राप्त करायेंगे ? जिससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे ॥१॥ अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम । स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥२॥ हम अमर देवों में प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमें महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे ॥२॥ अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम् । सदावन्भागमीमहे ॥३॥ हे सर्वदा रक्षणशील सवितादेव ! आप वरण करने योग्य धनों के स्वामी हैं, अतः हम आपसे ऐश्वर्यों के उत्तम भाग को माँगते हैं॥३॥ यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः । अद्वेषो हस्तयोर्दधे ॥४॥ हे सवितादेव ! आप तेजस्विता युक्त, निन्दा रहित, द्वेष रहित, वरण करने योग्य धनों को दोनों हाथों से धारण करने वाले हैं॥४॥ भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा । मूर्धानं राय आरभे ॥५॥ हे सवितादेव ! हम आपके ऐश्वर्य की छाया में रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उन्नति करते हुए सफलताओं के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचकर भी अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहें ॥५॥ नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः । नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ॥६॥ हे वरुणदेव ! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम, आपके बल और सुनीति युक्त क्रोध (मन्यु) को नहीं जान पाते । सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नहीं जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नहीं रोक सकते ॥६॥ अबुग्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः । नीचीनाः स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः ॥७॥ पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सबको आच्छादित करने वाले) दिव्य तेज पुञ्ज (सूर्यदेव) को, आधारहित आकाश में धारण करते हैं । इस तेज पुञ्ज (सूर्यदेव) का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसके मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥ उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ । अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित् ॥८॥ राजा वरुणदेव ने सूर्यगमन के लिए विस्तृत मार्ग निर्धारित किया है, जहाँ पैर भी स्थापित न हो, वे ऐसे अन्तरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिए मार्ग विनिर्मित कर देते हैं और वे हृदय की पीड़ा का निवारण करने वाले हैं॥८॥ शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु । बाधस्व दूरे निर्ऋतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत् ॥९॥ हे वरुणदेव ! आपके पास असंख्य उपाय हैं। आपकी उत्तम बुद्धि अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियों को हमसे दूर करें । किये हुए पापों से हमें विमुक्त करें ॥९॥ अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः । अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति ॥१०॥ ये नक्षत्रगण आकाश में रात्रि के समय दीखते हैं, परन्तु ये दिन में कहाँ विलीन होते हैं ? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात्रि में आता है। वरुणराजा के ये नियम कभी नष्ट नहीं होते ॥१०॥ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः । अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः ॥११॥ हे वरुणदेव ! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुए आपसे याचना करते हैं। यजमान हविष्यान्न अर्पित करते हुए कहते हैं - हे बहु प्रशंसित देव ! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियों को जानें । हमारी आयु को क्षीण न करें ॥११॥ तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे । शुनःशेपो यमहृद्गृभीतः सो अस्मात्राजा वरुणो मुमोक्तु ॥१२॥ रात-दिन में (अनवरत) ज्ञानियों के कहे अनुसार यही ज्ञान (चिन्तन) हमारे हृदय में होता रहा है कि बन्धन में पड़े शुनःशेप ने जिस वरुणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वहीं वरुणदेव हमें भी बन्धनों से मुक्त करें ॥१२॥ शुनःशेपो ह्यहृद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः । अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान् ॥१३॥ तीन स्तम्भों में बँधे हुए शुनः शेप ने अदिति पुत्र वरुणेदव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशों को काटकर हमें मुक्त करें ॥१३॥ अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः । क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि ॥१४॥ हे वरुणदेव ! आपके क्रोध को शान्त करने के लिए हम स्तुति रूप वचनों को सुनाते हैं। विर्द्रव्यों के द्वारा यज्ञ में सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन् ! आप हमारे यहाँ वास करते हुए हमें पापों के बन्धन से मुक्त करें ॥१४॥ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥१५॥ हे वरुणदेव ! आप तीनों तापों रूपी बन्धनों से हमें मुक्त करें । आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें। हे सूर्य पुत्र ! पापों से रहित होकर हम आपके कर्मफल सिद्धान्त में अनुशासित हों, दयनीय स्थिति में हम न रहें ॥१५॥

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