ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२५ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता- स्वनयस्य दानस्तुतिः । छंद त्रिष्टुप, ४-५ जगती प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान्प्रतिगृह्या नि धत्ते । तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचते सुवीरः ॥१॥ प्रभात कालीन सूर्यदेव स्वास्थ्यप्रद पोषक तत्वों (रों) को लाकर मनुष्यों के लिए प्रदान करते हैं। ज्ञानी मनुष्य इस तथ्य से परिचित होते हुए सूर्योदय से पहले उठकर सूर्य रश्मियों में सन्निहित प्राणतत्त्व रूपी रलों के लाभ से कृतकृत्य होते हैं। उससे मनुष्य दीर्घायुष्य प्राप्त करके संतानों के लाभ से युक्त होकर धन सम्पदा और स्वस्थ जीवन प्राप्त करते हैं॥१॥ सुगुरसत्सुहिरण्यः स्वश्वो बृहदस्मै वय इन्द्रो दधाति । यस्त्वायन्तं वसुना प्रातरित्वो मुक्षीजयेव पदिमुत्सिनाति ॥२॥ जो दानी मनुष्य प्रातः उठते ही किसी याचक को-रस्सी से पाँव को बाँधने के समान - अपार धन प्रदान करते हैं, ऐसे दानी मनुष्य श्रेष्ठ गौओं, अश्वों और स्वर्ण से युक्त होते हैं। इन्हें इन्द्रदेव अतिश्रेष्ठ अन्न- धन आदि प्रदान करते हैं॥२॥ आयमद्य सुकृतं प्रातरिच्छन्निष्टेः पुत्रं वसुमता रथेन । अंशोः सुतं पायय मत्सरस्य क्षयद्वीरं वर्धय सूनृताभिः ॥३॥ हे देव ! आज प्रातः हम धन से सम्पन्न रथ द्वारा यज्ञ संरक्षक और श्रेष्ठ कर्तव्यों का निर्वाह करने वाले पुत्र प्राप्ति की कामना से आपके यहाँ आये हैं। आप सुखदायक अभिषुत सोमरस को ग्रहण करें तथा वीरों के आश्रयदाता आप, हमारा शुभ आशीषों से मंगल करें ॥३॥ उप क्षरन्ति सिन्धवो मयोभुव ईजानं च यक्ष्यमाणं च धेनवः । पृणन्तं च पपुरिं च श्रवस्यवो घृतस्य धारा उप यन्ति विश्वतः ॥४॥ इस समय यज्ञ कार्य करने वालों तथा भविष्य में भी यज्ञीय भाव को पोषित करने वालों के निमित्त सुखदायक नदियाँ प्रवाहित होती हैं। सबके लिए कल्याणकारक तथा सबको सम्पन्न बनाकर प्रसन्न होने वाले याजकों को, अन्न (पोषण) की समृद्धि में समर्थ गौएँ, घृत की धारायें प्रदान करती हैं ॥४॥ नाकस्य पृष्ठे अधि तिष्ठति श्रितो यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति । तस्मा आपो घृतमर्षन्ति सिन्धवस्तस्मा इयं दक्षिणा पिन्वते सदा ॥५॥ जो अपने आश्रित मनुष्यों को धनधान्य से परिपूर्ण करते हैं, वे सभी प्रकार के स्वर्गीय आनन्द को उपलब्ध करते हैं। वे देवत्व को प्राप्त करके उसी श्रेणी में प्रतिष्ठित होते हैं। जल प्रवाह उस दानी के लिए प्राणस्वरूप जल को प्रवाहित करते हैं तथा यह पृथ्वी भी उसके निमित्त सदैव अन्नादि का पर्याप्त भण्डार प्रदान करती है॥५॥ दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा दक्षिणावतां दिवि सूर्यासः । दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते दक्षिणावन्तः प्र तिरन्त आयुः ॥६॥ ये विलक्षण उपलब्धियाँ मात्र सार्थक दान दाताओं को प्राप्य हैं। दिव्य लोक में भी सूर्यदेव उनके लिए ही स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। दानदाता ही अमरपद को प्राप्त करते हैं तथा प्रसन्नता में दानी के प्रति शुभ कामनाओं से दानदाता की आयु में वृद्धि होती है॥६॥ मा पृणन्तो दुरितमेन आरन्मा जारिषुः सूरयः सुव्रतासः । अन्यस्तेषां परिधिरस्तु कश्चिदपृणन्तमभि सं यन्तु शोकाः ॥७॥ यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों को सम्पन्न करने वाले तथा मनुष्यों को कल्याणरूप दान से संतुष्ट करने वाले, दुःखों और पापकर्मों से बचे रहें । ज्ञान साधक और यम नियमादि व्रतों को व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने वाले मनुष्यों को जल्दी बुढ़ापा नहीं घेरता। इसके विपरीत जो पापकर्मों में संलिप्त रहते हैं तथा जो देवताओं को वियों द्वारा संतुष्टि प्रदान करने वाले यज्ञादि सत्कर्मों से रहित हैं, उन्हें मानसिक चिन्ताएँ और शोक संताप घेरे रहते हैं॥७॥

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