ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३६ ऋषि - कण्वो घौरः देवता - अग्नि । छंद - प्रगाथ प्र वो यहं पुरूणां विशां देवयतीनाम् । अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥ हम ऋत्विज्ञ अपने सूक्ष्म वाक्यों (मंत्र शक्ति) से व्यक्तियों में देवत्व का विकास करने वाली महानता का वर्णन करते हैं, जिस महानता का वर्णन (स्तवन) ऋषियों ने भली प्रकार किया था ॥१॥ जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते । स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥२॥ मनुष्यों ने बलवर्धक अग्निदेव का वरण किया। हम उन्हें हवियों से प्रवृद्ध करते हैं। अन्नों के दाता है। अग्निदेव ! आज आप प्रसन्न मन से हमारी रक्षा करें ॥२॥ प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः ॥३॥ देवों के दूत, होतारूप, सर्वज्ञ हे अग्निदेव ! आपका हम वरण करते हैं, आप महान् और सत्यरूप हैं। आपकी ज्वालाओं की दीप्ति फैलती हुई आकाश तक पहुँचती है॥३॥ देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते । विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥४॥ हे अग्निदेव ! मित्र, वरुण और अर्यमा ये तीनों देव आप जैसे पुरातन देवदूत को प्रदीप्त करते हैं। जो याजक आपके निमित्त हवि समर्पित करते हैं, वे आपकी कृपा से समस्त धनों को उपलब्ध करते हैं॥४॥ मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि । त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप प्रमुदित करने वाले, प्रजाओं के पालक, होतारूप, गृहस्वामी और देवदूत हैं। देवों के द्वारा सम्पादित सभी शुभ कर्म आपसे सम्पादित होते हैं॥५॥ त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः । स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्त्सुवीर्या ॥६॥ है चिरयुवा अग्निदेव ! यह आपका उत्तम सौभाग्य है कि सब हवियाँ आपके अन्दर अर्पित की जाती हैं। आप प्रसन्न होकर हमारे निमित्त आज और आगे भी सामर्थ्यवान् देवों का यजन किया करें । (अर्थात् देवों को हमारे अनुकूल बनायें ।) ॥६॥ तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥७॥ नमस्कार करने वाले उपासक स्वप्रकाशित इन अग्निदेव की उपासना करते हैं। शत्रुओं को जीतने वाले मनुष्य हवन-साधनों और स्तुतियों से अग्नि को प्रदीप्त करते हैं॥७॥ घ्नन्तो वृत्रमतरत्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥८॥ देवों ने प्रहार कर वृत्र का वध किया। प्राणियों के निवासार्थ उन्होंने द्यावा-पृथिवी और अन्तरिक्ष का बहुत विस्तार किया। गौ, अश्व आदि की कामना से कण्व ने अग्नि को प्रकाशित कर आहुतियों द्वारा उन्हें बलिष्ठ बनाया ॥८॥ सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥९॥ यज्ञीय गुणों से युक्त प्रशंसनीय हे अग्निदेव ! आप देवताओं के प्रीतिपात्र और महान् गुणों के प्रेरक हैं। यहाँ उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हों। घृत की आहुतियों द्वारा दर्शन योग्य तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें ॥९॥ यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥१०॥ हे हविवाहक अग्निदेव ! सभी देवों ने पूजने योग्य आपको मानव मात्र के कल्याण के लिए इस यज्ञ में धारण किया। मेध्यातिथि और कण्व ने तथा वृषा (इन्द्र) और उपस्तुत (अन्य यजमान) ने धन से संतुष्ट करने वाले आपका वरण किया ॥१०॥ यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि । तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥११॥ जिन अग्निदेव को मेध्यातिथि और कण्व ने सत्यरूप कर्मों से प्रदीप्त किया, वे अग्निदेव देदीप्यमान हैं। उन्हीं को हमारी ऋचायें भी प्रवृद्ध करती हैं। हम भी उन अग्निदेव को संवर्धित करते हैं॥११॥ रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् । त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥१२॥ हे अन्नवान् अग्ने ! आप हमें अन्न सम्पदा से अभिपूरित करें। आप देवों के मित्र और प्रशंसनीय बलों के स्वामी हैं। आप महान् हैं। आप हमें सुखी बनाएँ ॥१२॥ ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वा वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥१३॥ है काष्ठ स्थित अग्निदेव ! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अन्तरिक्ष से हम सबकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी ऊँचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें । मन्त्रोच्चारणपूर्वक हवि प्रदान करने वाले याजक आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आवाहन करते हैं॥१३॥ ऊर्ध्वा नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥ हे यूपस्थ अग्ने ! आप ऊँचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापों से हमारी रक्षा करें, मानवता के शत्रुओं का दहन करें, जीवन में प्रगति के लिए हमें ऊँचा उठाएँ तथा हमारी प्रार्थना देवों तक पहुँचाएँ ॥१४॥ पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥१५॥ हे महान् दीप्तिवाले, चिरयुवा अग्निदेव ! आप हमें राक्षसों से रक्षित करें, कृपण धूर्ती से रक्षित करें तथा हिंसकों और जघन्यों से रक्षित करें ॥१५॥ घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मधुक् । यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥१६॥ अपने ताप से रोगादि कष्टों को मिटाने वाले हे अग्ने ! आप कृपणों को गदा से विनष्ट करें। जो हमसे द्रोह करते हैं, जो रात्रि में जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएँ ॥१६॥ अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् । अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७॥ उत्तम पराक्रमी ये अग्निदेव, जिन्होंने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रों की रक्षा की तथा 'मेध्यातिथि' और 'उपस्तुत' (यजमान) की भी रक्षा की है॥१७॥ अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे । अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८॥ अग्निदेव के साथ हम 'तुर्वश" यद्' और 'उग्रदेव' को बुलाते हैं। वे अग्निदेव 'नववास्तु', 'बृहद्रथ और 'तुर्वीति' (आदि राजर्षियों) को भी ले चलें, जिससे हम दुष्टों के साथ संघर्ष कर सकें ॥१८॥ नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥ हे अग्निदेव ! विचारवान् व्यक्ति आपका वरण करते हैं। अनादिकाल से ही मानव जाति के लिए आपकी ज्योति प्रकाशित है। आपका प्रकाश आश्रमों के ज्ञानवान् ऋषियों में उत्पन्न होता है। यज्ञ में ही आपका प्रज्वलित स्वरूप प्रकट होता है। उस समय सभी मनुष्य आपको नमन-वन्दन करते हैं॥१९॥ त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥२०॥ अग्निदेव की ज्वालाएँ प्रदीप्त होकर अत्यन्त बलवती और प्रचण्ड हुई हैं। कोई उनका सामना नहीं कर सकता। हे अग्ने ! आप समस्त राक्षसों, आतताइयों और मानवता के शत्रुओं को नष्ट करें ॥२०॥

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