ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५७ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- आश्विनौ । छंद - जगती, ५-६ त्रिष्टुप अबोध्यग्निम उदेति सूर्यो व्युषाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा । आयुक्षातामश्विना यातवे रथं प्रासावीद्देवः सविता जगत्पृथक् ॥१॥ भूमि पर अग्निदेव चैतन्य हुए; सूर्यदेव उदित हो गये हैं। महान् उषादेवी अपने तेज से लोगों को हर्षित करती हुई आ गयी हैं। अश्विनीकुमारों ने यात्रा के लिए अपने अश्वों को रथ में जोड़ लिया है । सूर्यदेव ने सब प्राणियों को अपने पृथक् पृथक् कर्मों में प्रवृत्त कर दिया है॥१॥ यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम् । अस्माकं ब्रह्म पृतनासु जिन्वतं वयं धना शूरसाता भजेमहि ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप अपने श्रेष्ठ रथ को जोड़कर (यज्ञ में पहुँचकर) हमारे क्षात्रबल (पौरुष) को घृत (तेज) से पुष्ट करें। हमारी प्रजाओं में ज्ञान की वृद्धि करें। हम युद्ध में शत्रुओं को पराजित करके धन प्राप्त करने में समर्थ हो सकें ॥२॥ अर्वाङ्गिचक्रो मधुवाहनो रथो जीराश्वो अश्विनोर्यातु सुष्टुतः । त्रिवन्धुरो मघवा विश्वसौभगः शं न आ वक्षद्द्विपदे चतुष्पदे ॥३॥ हे अश्विनीकुमारों ! आप रथ पर विराजित होकर यहाँ पधारें । तीन पहियों वाला और मधुर, अमृततुल्य, पोषक तत्वों को धारण करने वाला, शीघ्रगामी अश्वों से जुता हुआ, प्रशंसनीय, बैठने के तीन स्थानों वाला, समस्त ऐश्वर्य और सौभाग्य से भरा हुआ आपका रथ मनुष्यों और पशुओं के लिए सुखदायी हो ॥३॥ आ न ऊर्ज वहतमश्विना युवं मधुमत्या नः कशया मिमिक्षतम् । प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों प्रचुर अन्न प्रदान करें। हमें मधु से परिपूर्ण पात्र प्रदान करें। हमें दीर्घायुष्य प्रदान करें। हमारे सभी विकारों को दूर करके तथा द्वेष भावना को मिटाकर सदैव हमारे सहायक बनें ॥४॥ युवं ह गर्भ जगतीषु धत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः । युवमग्निं च वृषणावपश्च वनस्पतींरश्विनावैरयेथाम् ॥५॥ हे शक्तिशाली अश्विनीकुमारो! आप दोनों गौओं में (अथवा सम्पूर्ण विश्व में) गर्भ (उत्पादक क्षमता) स्थापित करने में सक्षम हैं। अग्नि, जल और वनस्पतियों को (प्राणि मात्र के कल्याण के लिए आप ही प्रेरित करते हैं॥५॥ युवं ह स्थो भिषजा भेषजेभिरथो ह स्थो रथ्या राथ्येभिः । अथो ह क्षत्रमधि धत्थ उग्रा यो वां हविष्मान्मनसा ददाश ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों श्रेष्ठ ओषधियों से युक्त उत्तम वैद्य हैं। उत्तम रथ से युक्त श्रेष्ठ रथी हैं। हे पराक्रमी अश्विनीकुमारो ! जो आपके प्रति श्रद्धा भावना से हविष्यान्न अर्पित करते हैं, उन्हें आप दोनों क्षात्र धर्म के निर्वाह के लिए उपयुक्त शौर्य प्रदान करते हैं॥६॥

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