Aitareya Upanishad Second Chapter (ऐतरेयोपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ऐतरेयोपनिषद ॥ अथ द्वितीयध्याये द्वितीय अध्याय ॐ पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति यदेतद्रेतः । तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेजः संभूतमात्मन्येवऽऽत्मानं बिभर्ति तद्यदा स्त्रियां सिञ्चत्यथैनज्जनयति तदस्य प्रथमं जन्म ॥१॥ सर्वप्रथम यह संसारी जीव निश्चय ही पुरुष शरीर में वीर्यरूप से यह गर्भ बनता है। यह जो वीर्य है वह पुरुष के सम्पूर्ण अंगो से उत्पन्न हुआ तेज है। पुरुष पहले ही अपने ही स्वरुपभूत इस वीर्यमय तेज को अपने शरीर में धारण करता है। फिर जब वह यह वीर्य स्त्री में सिंचित करता है। तब इसको गर्भरूप में उत्पन्न करता है। वह इसका पहला जन्म है; वह गर्भ की पहली अवस्था है। ॥१॥ तस्त्रिया आत्मभूयं गच्छति। यथा स्वमङ्गं तथा। तस्मादेनां न हिनस्ति । साऽस्यैतमात्मानमत्र गतं भावयति ॥२॥ वह वीर्य, जब स्त्री में सिचित होता है तब वह उसके अपने अंग के समान हो जाता है। इसी कारण वह स्त्री को दुःख नहीं देता। वह स्त्री अपने शरीर में विद्यमान पति के आत्मा रूप इस गर्भ को, अपने अंगों की भांति पालन पोषण करती है। ॥२॥ सा भावयित्री भावयितव्या भवति। तं स्त्री गर्भ बिभर्ति । सोऽग्र एव कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयति । स यत्कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयत्यात्मानमेव तद्भावयत्येषं लोकानां सन्तत्या । एवं सन्तता हीमे लोकास्तदस्य द्वितीयं जन्म ॥३॥ वह उस गर्भ का पालन पोषण करने वाली माता उसको पालन पोषण करने वाली होती है। उस गर्भ को प्रसव के पहले स्त्री धारण करती है और उसके जन्म उपरांत उसका पिता अपने कुमार को विभिन्न संस्कारों द्वारा अभ्युदयशील बनता है तथा उसकी उन्नति करता है। तथा जन्म से लेकर जब तक वह सर्वथा योग्य न बन जाए, तब तक हर प्रकार से उसका पालन पोषण करता है। वह मानो इन लोकों को अर्थात मनुष्यों की परम्परा को बढ़ाने के द्वारा अपनी ही रक्षा करता है क्योंकि इसी प्रकार ये सब लोक विस्तृत होते हैं। वह उसका दूसरा जन्म है। ॥३॥ सोऽस्यायमात्मा पुण्येभ्यः कर्मभ्यः प्रतिधीयते । अथास्यायामितर आत्मा कृतकृत्यो वयोगतः प्रैति । स इतः प्रयन्नेव पुनर्जायते तदस्य तृतीयं जन्म ॥४॥ वह पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ पिता का ही आत्मा, पुत्र पुण्य कर्म से (पिता मे आचरणीय उत्तम कर्मों) के लिए पिता का प्रतिनिधि बनाया जाता है। इसके अनंतर पुत्र का द्वितीय आत्मारूप पिता अपने समस्त कर्तव्य पूरे करके कृतार्थ हो जाता है तथा आयु पूरी होने पर इस जगत से अपना शरीर छोड़ कर चला जाता है। यहाँ से जाकर वह आत्मा पुनः कहीं और उत्पन्न होता है। यह इस आत्मा का तीसरा जन्म है। ॥४ ॥ तदुक्तमृषिणा गर्भ नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा शतं मा पुर आयसीररक्षन्नधः श्येनो जवसा निरदीयमिति । गर्भ एवैतच्छयानो वामदेव एवमुवाच ॥ ५॥ गर्भ में रहते हुए ही वामदेव ऋषि को यथार्थ ज्ञान हो गया था। इसलिए उन्होंने माता के उदर में है कहा अहो! मैंने गर्भ में रहते हुए ही इन देवताओं (इन्द्रिय रुपी देवता) के बहुत से जन्मों को भली भांति जान लिया। इससे पहले मुझे सैकड़ों लोहे के समान शरीरों ने अवरुद्ध कर रखा था परन्तु अब मैं श्येन (बाज) पक्षी की भांति वेग से उन सबको तोड़ कर उनसे अलग हो गया हूँ। गर्भ में सोये हुए वामदेव ऋषि ने उक्त प्रकार से यह बात कही। ॥५॥ स एवं विद्वानस्माच्छरीरभेदादूर्ध्व उत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥६॥ इस प्रकार जन्म जन्मान्तर के रहस्य को जानने वाले वह वंमदेव ऋषि इस मानव शरीर का नाश होने पर, उधर्वगति के द्वारा भगवान् के परम धाम मे पहुँच कर, समस्त मनोरथों को प्राप्त कर पाकर अमृत हो गए, अमृत हो गए। ॥६॥ ॥ इत्यैतरोपनिषदि द्वितीयोध्यायः ॥ ॥ द्वितीय अध्याय समाप्तः ॥

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