ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७४

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७४ ऋषिः पौर आत्रेयः देवता - आश्विनौ । छंद - अनुष्टुप, ८ निवृत कूष्ठो देवावश्विनाद्या दिवो मनावसू । तच्छ्रवथो वृषण्वसू अत्रिर्वामा विवासति ॥१॥ हे उत्कृष्ट मन-सम्पन्न अश्विनीकुमारो ! आप दोनों द्युलोक से आगमन कर यज्ञ-भूमि पर स्थित हों। हे धनवर्षक देवो ! आप अत्रि ऋषि के उन स्तोत्रों का श्रवण करें, जो आपके निमित्त निवेदित किये गये हैं ॥१॥ कुह त्या कुह नु श्रुता दिवि देवा नासत्या । कस्मिन्ना यतथो जने को वां नदीनां सचा ॥२॥ हे असत्यरहित दीप्तिमान् अश्विनीकुमारो ! आप दोनों कहाँ हैं? द्युलोक में किस स्थान में आप सुने जाते हैं? किस यजमान के गृह आप आगमन करते हैं? तथा किस स्तोता की स्तुतियों के साथ आप संयुक्त होते हैं ? ॥२॥ कं याथः कं ह गच्छथः कमच्छा युज्जाथे रथम् । कस्य ब्रह्माणि रण्यथो वयं वामुश्मसीष्टये ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप किस यजमान के लिए गमन करते हैं? किसके पास संयुक्त होते हैं? किसके अभिमुख गमन करने के लिए रथ नियोजित करते हैं? किसके स्तोत्रों से प्रसन्नचित्त होते हैं? हम आप दोनों की प्राप्ति की कामना करते हैं ॥३॥ पौरं चिद्धयुदप्प्रुतं पौर पौराय जिन्वथः । यदीं गृभीततातये सिंहमिव द्रुहस्पदे ॥४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप पौर ष के लिए जलयुक्त मेघों को प्रेरित करें । जैसे वन में व्याध सिंह के प्रताड़ित करता है, वैसे आप इन मेघों को प्रताड़ित करें ॥४॥ प्र च्यवानाज्जुजुरुषो वव्रिमत्कं न मुञ्चथः । युवा यदी कृथः पुनरा काममृण्वे वध्वः ॥५॥ हे अश्विनीकमारो ! आपने ज्ञराजीर्ण हुए च्यवन ऋषि की कुरूपता को कवच के सदृश उतार दिया और उन्हें पुनः युवक रूप बना दिया, तब वे वधू के द्वारा कामना योग्य सुन्दर रूप से युक्त हुए ॥५॥ अस्ति हि वामिह स्तोता स्मसि वां संदृशि श्रिये । नू श्रुतं म आ गतमवोभिर्वाजिनीवसू ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपके स्तोतागण इस यज्ञ-स्थल में विद्यमान हैं। इस समृद्धि के लिए आपके दृष्टि क्षेत्र में अविस्थत हों। हे सेनारूप धनों से युक्त अश्विनीकुमारो ! हमारी पुकार सुनें। अपने संरक्षण साधनों के साथ यहाँ आगमन करें ॥६॥ को वामद्य पुरूणामा वव्ने मर्त्यानाम् । को विप्रो विप्रवाहसा को यज्ञैर्वाजिनीवसू ॥७॥ हे ज्ञानियों द्वारा वन्दनीय और विपुल सेनारूप धन वाले अश्विनीकुमारो ! अनेकों प्रजाओं में से कौन ज्ञानी आपको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता है? कौन यजमान आपको यज्ञों द्वारा सम्यक् रूप से तृप्त करता है? ॥७॥ आ वां रथो रथानां येष्ठो यात्वश्विना । पुरू चिदस्मयुस्तिर आङ्‌गुषो मर्येष्वा ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! अन्य देवों के रथों के मध्य सर्वाधिक वेगवान आपका रथ इधर आगमन करे । मानवों में हमारी कामना करने वाला, अनेकों शत्रुओं का संहार और यजमानों द्वारा प्रशंसित यह रथ इधर आगमन करे ॥८॥ शमू षु वां मधूयुवास्माकमस्तु चकृतिः । अर्वाचीना विचेतसा विभिः श्येनेव दीयतम् ॥९॥ हे मधुयुक्त अश्विनीकुमारो ! आपके निमित्त निवेदित स्तोत्र हमारे लिए सुखदायक हों। हे विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न देवो ! श्येन पक्षी के समान वेगवान् अश्वों से हमारे सम्मुख आगमन करें ॥९॥ अश्विना यद्ध कर्हि चिच्छुश्रूयातमिमं हवम् । वस्वीरू षु वां भुजः पृञ्चन्ति सु वां पृचः ॥१०॥ हे अश्विनीकुमारो ! हमारे आवाहन का श्रवण करें। चाहे जहाँ आप स्थित हों, सुनें । हम यज्ञ में आपके निमित्त उत्तम अन्नों को भली प्रकार मिश्रित कर हविरूप प्रशंसित भोज्य पदार्थ निवेदित करते हैं ॥१०॥

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