Kenopanisad Volume 4 (केनोपनिषद) चतुर्थ खण्ड

॥ श्री हरि ॥ ॥ केनोपनिषद ॥ ॥ अथ चतुर्थं खण्डः ॥ चतुर्थ खण्ड सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ १॥ वह ब्रह्मविद्या देवी उमा इन्द्र से बोली: यह ब्रह्म है और ब्रह्म की इस विजय में ही तुम महिमा युक्त बने हो, अर्थात् देवताओं ने केवल उन्ही की शक्ति से महिमा प्राप्त की है-उमा के इस कथन से ही इन्द्र ने जाना कि यही ब्रह्म है। ॥१॥ तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ २॥ अग्निदेव, वायुदेव, तथा इन्द्रदेव, समस्त देवताओं में अग्रगण्य है क्योंकि इन देवताओं ने ही सर्वप्रथम ब्रह्म का समीपस्थ्य प्राप्त किया था और उन्होंने ही सबसे पहले यह ब्रह्म है, ऐसा जाना था। ॥२॥ यहाँ उपनिषद् में दो पक्ष प्रकट किए गये हैं एक आध्यात्मिक और दूसरा अधिदैवत । आध्यात्मिक पक्ष में तो इन्द्रिय और आत्मा का ग्रहण होता है, और अधिदैवत में अग्नि, वायु और सूर्य का ग्रहण होता है। आशय यह है कि आँखों से भगवान् की विभूति देख कर और कानों से सुन कर ही आत्मा को भगवान् का ज्ञान होता है, इसी तरह नास्तिक जन भी अग्नि, वायु और सूर्य के सामर्थ्य को देख कर ही परमात्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये ही तत्व देव नाम से ग्रहण किये जाते हैं। तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स होनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ ३॥ इसीलिये समस्त देवताओं मे इन्द्र ही सब से बढ़ कर हैं। क्योंकि उन्ही ने ब्रह्म का समीपस्थ्य प्राप्त कर सर्वप्रथम ब्रह्मविद्या रुपी उमा से ब्रह्म के विषय मे जाना। आध्यात्मिक पक्ष मे - इन्द्रियों में आत्मा ही सब से बड़ा देव है क्योंकि इसी ने बुद्धि के द्वारा सब से पहले ब्रह्म स्वरुप का साक्षात्कार किया। अधिदैवत पक्ष में- सूर्य ही सब भौतिक देवों में बड़ा देव है क्योंकि मनुष्य की सारी बुद्धि उसको न जान कर अन्त में यही विचार करती है कि इसका रचयिता अवश्य कोई अनन्त शक्तिमय प्रभु है। ॥३॥ तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा३इतीन् न्यमीमिषदा३ इत्यधिदैवतम् ॥ ४॥ देवों में ब्रह्म का चिन्ह ऐसा ही चमकता है जैसे बिजली का चमकना और आंखों का झपकना है अर्थात् जैसे बिजली या आंख बहुत कम समय के लिये चमकती या झपकती हैं। उसी प्रकार इन्द्रियां भी ब्रह्म का साक्षात्कार बहुत कम कर सकती हैं। ब्रह्म का ज्ञान तो केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। यही अधि दैवत पक्ष है। ॥४॥ अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णं सङ्कल्पः ॥५॥ अध्यात्म पक्ष यह है कि यह मन जो चलता हुआ सा कहा जाता है, वही ब्रह्म है। इसलिए मन से बार बार लगातार उसी ब्रह्म का स्मरण करना चाहिए और उसी का सङ्कल्प करना चाहिए। ॥५॥ तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैन सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥ ६॥ निश्चय ही ब्रह्म भजनीय है, इसलिये सेवनीय ब्रह्म की ही उपासना करनी चाहिये, जो मनुष्य ब्रह्म को इस प्रकार जानकर उसकी आराधना करता है। उसको सभी प्राणी चाहते हैं और प्यार करते हैं। ॥६॥ उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥ ७॥ आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य तुमने जो उपनिषद् पूछी थी, सो हमने उपनिषद् कह दी। अब हम तुम्हे ब्रह्म सम्बन्धिनी उपनिषद् का व्याख्यान करेंगे। उपनिषद् का अर्थ है जिससे ब्रह्म की समीपता प्राप्त हो। ॥७॥ तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥ ८॥ ब्रह्म की समीपता प्राप्त करने के लिये (तप) सहनशीलता (दम) इन्द्रियों का संयम, मन का वशीकरण (कर्म) वैदिक कर्मानुष्ठान यही उसकी प्रतिष्ठा है। वेद उसके सारे अङ्ग हैं और सत्य उसका स्थान है। ॥८॥ यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ ९॥। जो मनुष्य निश्चयपूर्वक इस ब्रह्मविद्या को इस प्रकार जानता है। वह पाप को दूर करके चिरकाल तक स्वर्गलोक मे प्रतिष्ठित होता है, प्रतिष्ठित होता है। अर्थात चिरकाल तक ब्रह्म आनन्द का उपभोग करता है। यही सर्वश्रेष्ठ स्वर्ग लोक है। ॥९॥ ॥ इति केनोपनिषदि चतुर्थः खण्डः ॥ ॥ चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ शान्ति पाठ ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिशद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों में जो धर्म हैं वे आत्मज्ञान मे लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ मेरे त्रिविध- अधिभौतिक, अधिदैविक तथा आध्यात्मिक तापों की शांति हो। ॥ इति केनोपनिषत् ॥ ॥ केनोपनिषद समाप्त ॥

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