Tejobindu Upanishad Chapter 4 (तेजोबिन्दु उपनिषद चतुर्थ अध्यायः चौथा अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद॥ चतुर्थ अध्यायः चौथा अध्याय कुमारः परमेश्वरं पप्रच्छ जीवन्मुक्तविदेहमुक्तयोः स्थितिमनुब्रूहीति । स होवाच परः शिवः । कार्तिकेय कुमार ने परमेश्वर से पूछा-जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति की स्थिति कहिये, मैं यह सुनने की इच्छा रखता हूँ। सो परम शिव बोले- चिदात्माहं परात्माहं निर्गुणोऽहं परात्परः । आत्ममात्रेण यस्तिष्ठेत्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ १॥ हे कुमार ! मैं चिदात्मा हूँ, 'परमात्मा हूँ, मैं निर्गुण से परे हूँ। ऐसा जान कर जो आत्म मात्र रूप से स्थित है वह जीवन्मुक्त कहलाता है। ॥१॥ देहत्रयातिरिक्तोऽहं शुद्धचैतन्यमस्म्यहम् । ब्रह्माहमिति यस्यान्तः स जीवनमुक्त उच्यते ॥ २॥ मैं तीन देहों से भिन्न हूँ, मैं शुद्ध चैतन्य हूँ, मैं ब्रह्म हूँ। इस प्रकार जिसका निश्चय है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥२॥ आनन्दघनरूपोऽस्मि परानन्दघनोऽस्म्यहम् । यस्य देहादिकं नास्ति यस्य ब्रह्मेति निश्चयः । परमानन्दपूर्णो यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ३॥ मैं आनन्दघन हूँ, मैं परानन्दघन हूँ, जिसकी देहादिक नहीं है, जो ब्रह्म ही है। इस प्रकार जिसका निश्चय है, जो परमानन्द पूर्ण है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥३॥ यस्य किञ्चिदहं नास्ति चिन्मात्रेणावतिष्ठते । चैतन्यमात्रो यस्यान्तश्चिन्मात्रैकस्वरूपवान् ॥ ४॥ जिसको किंचित् अहंकार नहीं है, जो चिन्मात्र रूप से स्थित है, चिन्मात्र जिसका निश्चय है, जो एक चिन्मात्र स्वरूप वाला है। ॥४॥ सर्वत्र पूर्णरूपात्मा सर्वत्रात्मावशेषकः । आनन्दरतिरव्यक्तः परिपूर्णश्चिदात्मकः ॥ ५॥ जो सर्वत्र पूर्णरूप आत्मा है, सर्वत्र आत्म स्वरूप वाला, आनन्द रति वाला, अविकारी, परिपूर्ण चित्त स्वरूप वाला है ॥५॥ शुद्धचैतन्यरूपात्मा सर्वसङ्गविवर्जितः । नित्यानन्दः प्रसन्नात्मा ह्यन्यचिन्ताविवर्जितः ॥६॥ शुद्ध चैतन्यरूप सर्व संग से रहित, नित्यानन्द स्वरूप, प्रसन्न आत्मा और जो अन्य चिन्ताओं से रहित है ॥६॥ किञ्चिदस्तित्वहीनो यः स जीवन्मुक्त उच्यते । न मे चित्तं न मे बुद्धिर्नाहङ्कारो न चेन्द्रियम् ॥ ७॥ जो किंचित् अस्तित्व से भी रहित है, वह जीवन मुक्त कहलाता है। न मेरा चित्त है, न मेरी बुद्धि और अहंकार है, न इन्द्रियां हैं ॥७॥ न मे देहः कदाचिद्वा न मे प्राणादयः क्वचित् । न मे माया न मे कामो न मे क्रोधः परोऽस्म्यहम् ॥ ८॥ न मेरा कभी देह है, न मुझ कहीं प्राणादिक हैं, न मेरी माया है, न मेरा काम है, न मेरा क्रोध है, मैं पर हूँ ॥८॥ न मे किञ्चिदिदं वापि न मे किञ्चित्क्वचिज्जगत् । न मे दोषो न मे लिङ्गङ्गं न मे चक्षुर्न मे मनः ॥ ९॥ न मेरा किंचित् यह है, न मेरा कहीं किंचित् जगत् है, न मेरा, दोष है, न मेरा लिंग शरीर है, न मुझ नेत्र हैं, न मेरा मन है। ॥९॥ न मे श्रोत्रं न मे नासा न मे जिह्वा न मे करः । न मे जाग्रन्न मे स्वप्नं न मे कारणमण्वपि ॥ १०॥ न मुझ कान हैं, न मेरी नासिका है, न मेरी जिह्वा है, न मुझ हाथ हैं, न मेरा जाग्रत है, न मेरा स्वप्न है, न मेरा जरा सा भी कारण है ॥१०॥ न मे तुरीयमिति यः स जीवन्मुक्त उच्यते । इदं सर्वं न मे किञ्चिदयं सर्वं न में क्वचित् ॥ ११॥ न मेरा तुरीय है, ऐसा जो है वह जीवन मुक्त कहलाता है। यह सर्व मेरा कुछ नहीं है, यह सब मेरा कहीं नहीं है ॥११॥ न मे कालो न मे देशो न मे वस्तु न मे मतिः । न मे स्नानं न मे सन्ध्या न मे दैवं न मे स्थलम् ॥ १२॥ न मेरा काल है, न मेरा देश है, न मेरी वस्तु है, न मेरी बुद्धि है, न मेरा स्नान है, न मेरी सन्ध्या है, न मेरा दैव है, न मेरा मन्दिर है ॥ १२॥ न मे तीर्थं न मे सेवा न मे ज्ञानं न मे पदम् । न मे बन्धो न मे जन्म न मे वाक्यं न मे रविः ॥ १३॥ न मेरा तीर्थ है, न मेरी सेवा है, न मेरा ज्ञान है, न मेरा पद है, न मेरा बन्धन है, न मेरा जन्म है, न मेरा वचन है, न मेरा सूर्य है ॥१३॥ न मे पुण्यं न मे पापं न मे कार्यं न मे शुभम् । ने मे जीव इति स्वात्मा न मे किञ्चिज्जगत्रयम् ॥ १४॥ न मेरा पुण्य है, न मेरा पाप है, न मेरा कार्य है, न मेरा शुभ है, न मेरा जीव है, इस प्रकार मेरी अपनी आत्मा में तीनों जगत् किंचित् भी नहीं है ॥१४॥ न मे मोक्षो न मे द्वैतं न मे वेदो न मे विधिः । न मेऽन्तिकं न मे दूरं न मे बोधो न मे रहः ॥ १५॥ न मेरा मोक्ष है, न मेरा द्वैत है, न मेरा वेद है न मेरी विधि है, न मुझ पास (समीप) है, न मेरा दूर है, न मेरा बोध है, न मेरा एकांत है॥१५॥ न मे गुरुर्न मे शिष्यो न मे हीनो न चाधिकः । न मे ब्रह्म न मे विष्णुर्न मे रुद्रो न चन्द्रमाः ॥ १६॥ न मेरा गुरु है, न मेरा शिष्य है, न मेरा न्यून है; न मेरा अधिक है, न मेरा ब्रह्मा है, न मेरा विष्णु है, न मुझ रुद्र है, न मेरा चन्द्रमा है ॥१६॥ न मे पृथ्वी न मे तोयं न मे वायुर्न मे वियत् । न मे वह्निर्न मे गोत्रं न मे लक्ष्यं न मे भवः ॥ १७॥ न मेरी पृथ्वी हैं, न मेरा जल है, न मेरा वायु है, न मेरा आकाश है, न मेरी अग्नि है, न मेरा गोत्र है, न मेरा लक्ष्य है, न मेरा संसार है ॥१७॥ न मे ध्याता न मे ध्येयं न मे ध्यानं न मे मनुः । न मे शीतं न मे चोष्णं न मे तृष्णा न मे क्षुधा ॥ १८॥ न मेरा ध्याता है, न मेरा ध्येय है, न मेरा ध्यान है, न मेरा मन है, न मेरा शीत है, न मेरा उष्ण है, न मेरी प्यास है, न मेरी भूख है ॥१८॥ न मे मित्रं न मे शत्रुर्न मे मोहो न मे जयः । न मे पूर्वं न मे पश्चान्न मे चोर्ध्वं न मे दिशः ॥ १९॥ न मेरा मित्र है, न मेरा शत्रु है, न मेरा मोह है, न मेरा जय है, न मेरा आगे है, न मेरा पीछे है, न मेरा उपर है, न मेरी दिशा है, ॥१९॥ न मे वक्तव्यमल्पं वा न मे श्रोतव्यमण्वपि । न मे गन्तव्यमीषद्वा न मे ध्यातव्यमण्वपि ॥ २०॥ न मेरा कुछ वक्तव्य अर्थात कहने योग्य है, न मेरा जरा सा भी श्रोतव्य अर्थात सुनने योग्य है, न मेरा थोड़ा सा भी मन्तव्य है, न मरा जरा सा भी ध्यातव्य है ॥२०॥ न मे भोक्तव्यमीषद्वा न मे स्मर्तव्यमण्वपि । न मे भोगो न मे रागो न मे यागो न मे लयः ॥ २१॥ न मेरा जरा सा भी भोक्तव्य है, न मेरा जरा सा भी स्मरण करने योग्य है, न मेरा भोग है, न मेरा राग है, न मेरा योग है, न मेरा लय है ॥२१॥ न मे मौर्यं न मे शान्तं न मे बन्धो न मे प्रियम् । न मे मोदः प्रमोदो वा न मे स्थूलं न मे कृशम् ॥ २२॥ न मेरी मूर्खता है, न मेरी शान्ति है, न मेरा बन्ध है, न मेरा प्रिय है, न मेरा मोद है, न मेरा प्रमोद है, न ही मैं मोटा हूँ, न ही मैं पतला हूँ ॥२२॥ न मे दीर्घ न मे ह्रस्वं न मे वृद्धिर्न मे क्षयः । अध्यारोपोऽपवादो वा न मे चैकं न मे बहु ॥ २३॥ न मैं लम्बा हूँ, न मैं छोटा हूँ, न मेरी वृद्धि है, न मेरा नाश है, न मेरा अध्यारोप है, न मेरा अपवाद है, न मैं एक हूँ, न ही अनेक हूँ ॥२३॥ न मे आन्ध्यं न मे मान्यं न मे पद्विदमण्वपि । न मे मांसं न मे रक्तं न मे मेदो न मे ह्यसृक् ॥ २४॥ न मुझ में अन्धपन है, न मुझ में मन्दपना है, मेरी चतुरता जरा सी भी नहीं। न मुझ में मांस है, न मुझ में रक्त है, न मुझ में मेदा है, न मुझ में मजा है ॥२४॥ न मे मज्जा न मेऽस्थिर्वा न मे त्वग्धातु सप्तकम् । न मे शुक्लं न मे रक्तं न मे नीलं नमे पृथक् ॥ २५॥ न मुझ में चर्बी है, न मुझ में हड्डियां हैं, न मुझ में त्वचा है, न मुझ में में सात प्रकार की धातु - चार पिता की और तीन माता की हैं। न ही मैं शुक्ल वर्ण हूँ, न ही मैं रक्तवर्ण हूँ, न मैं नील वर्ण हूँ, न मुझ में कोई पृथक्ता है ॥२५॥ न मे तापो न मे लाभो मुख्यं गौणं न मे क्वचित् । न मे भ्रान्तिर्न मे स्थैर्यं न मे गुह्यं न मे कुलम् ॥ २६॥ न मेरा ताप है, न मेरा लाभ है, न मुझ में मुख्यता है, न मुझ में गौणपना, कुछ भी नहीं है। न मुझ में भ्रान्ति है, न मुझ में स्थिरता है, न मुझ में गुप्तता है, न मुझ में कुलत्व अर्थात कुल का नाम है ॥२६॥ न मे त्याज्यं न मे ग्राह्यं न मे हास्यं न मे नयः । न मे वृत्तं न मे ग्लानिर्न मे शोष्यं न मे सुखम् ॥ २७॥ न मैं त्याज्य हूँ, न ही ग्राह्य हूँ, न मेरा हास्य है, न मेरी नोति है, न मेरी वृत्तिका अर्थात जीविका है, न मुझ में ग्लानि है, न मुझ में सोच है, न मुझ में सुख है ॥२७॥ न मे ज्ञाता न मे ज्ञानं न मे ज्ञेयं न मे स्वयम् । न मे तुभ्यं नमे मह्यं न मे त्वं च न मे त्वहम् ॥ २८॥ मुझ में ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयरूप यह त्रिपुटी नहीं है। न मुझ में अपनापन और पराया पन है और न ही ममत्व ही है। न मेरा तुम है, न मेरा मैं हूँ अर्थात मेरा कोई स्वरूप नहीं है। ॥२८॥ न मे जरा न मे बाल्यं न मे यौवनमण्वपि । अहं ब्रह्मास्म्यहं ब्रह्मास्म्यहं ब्रह्मेति निश्चयः ॥ २९॥ न मुझ बुढ़ापा है, न मुझ में बालकपन है, यौवन भी जरा सा नहीं है । हे स्वामी कार्तिकय ! मैं ब्रह्म हूँ, मैं व्यापक हूँ, यही निश्चय है ॥२९॥ चिदहं चिदहं चेति स जीवन्मुक्त उच्यते । ब्रह्मैवाहं चिदेवाहं परो वाहं न संशयः ॥ ३०॥ मैं चैतन्य हूँ, मैं ब्रह्म हूँ, ऐसे निश्चय वाला जीवन्मुक्त कहलाता है। ब्रह्म ही मैं हूँ, चित्त ही मैं हूँ, पर मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। ॥३०॥ स्वयमेव स्वयं हंसः स्वयमेव स्वयं स्थितः । स्वयमेव स्वयं पश्येत्स्वात्मराज्ये सुखं वसेत् ॥ ३१॥ हे स्वामी कार्तिकेय ! आप ही स्वयं हंसरूप हैं, आप ही स्वयं स्थित हैं, आप स्वयं को ही देखते हैं, आप स्वयं के आत्म राज्य में सुख पूर्वक निवास करें। ॥३१॥ स्वात्मानन्दं स्वयं भोक्ष्येत्स जीवन्मुक्त उच्यते । स्वयमेवैकवीरोऽग्रे स्वयमेव प्रभुः स्मृतः ॥ ३२॥ अपने आत्मानंद को जो स्वयं भोगता है वह जीवन्मुक्त कहलाता है आप ही एक वीर, आप ही प्रभु स्मरण किया गया है। अपने स्वरूप से स्वयं में जो आनन्द माने वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥३२॥ ब्रह्मभूतः प्रशान्तात्मा ब्रह्मानन्दमयः सुखी । स्वच्छरूपो महामौनी वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३३॥ ब्रह्म-स्वरूप, शान्त आत्मा, ब्रह्मानन्दयुक्त, सुखी, स्वच्छरूप, महामौनी वह विदेहमुक्त है ॥३३॥ सर्वात्मा समरूपात्मा शुद्धात्मा त्वहमुत्थितः । एकवर्जित एकात्मा सर्वात्मा स्वात्ममात्रकः ॥ ३४॥ सर्वात्मा, समान रूप आत्मा, शुद्ध आत्मा और मैं के उत्थानरूप, एक से रहित, एक आत्मा, सर्व आत्मा, अपना आत्म मात्र स्वरूप है ॥३४॥ अजात्मा चामृतात्माहं स्वयमात्माहमव्ययः । लक्ष्यात्मा ललितात्माहं तूष्णीमात्मस्वभाववान् ॥ ३५॥ अज आत्मा और अमृत आत्मा सब मैं हूँ। स्वयं निर्विकार आत्मा मैं हूँ। लक्ष्य आत्मा, सुन्दर आत्मा मैं हूँ। चुपचाप आत्म-स्वभाव वाला मैं हूँ ॥३५॥ आनन्दात्मा प्रियो ह्यात्मा मोक्षात्मा बन्धवर्जितः । ब्रह्मैवाहं चिदेवाहमेवं वापि न चिन्त्यते ॥ ३६॥ आनन्द आत्मा, प्रिय आत्मा, मोक्ष आत्मा बन्ध से रहित ब्रह्म मैं ही हूँ अथवा चित् ही मैं हूँ। इस प्रकार भी वह चिन्तवन नहीं करता ॥३६॥ चिन्मात्रेणैव यस्तिष्ठेद्वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३७॥ जो चिन्मात्र से स्थित हो वह ही 'विदेह मुक्त है ॥३७॥ निश्चयं च परित्यज्य अहं ब्रह्मेति निश्चयम् । आनन्दभरितस्वान्तो वैदेही मुक्त एव सः ॥ ३८॥ निश्चय में ब्रह्म हूँ, इस निश्चय को भी त्याग कर आनन्द से परिपूर्ण अन्तर वाला हो वह ही विदेह मुक्त है ॥३८॥ सर्वमस्तीति नास्तीति निश्चयं त्यज्य तिष्ठति । अहं ब्रह्मास्मि नास्मीति सच्चिदानन्दमात्रकः ॥ ३९॥ सर्व है, तथा नहीं है, इस प्रकार के निश्चय को त्याग कर कहता है मैं ब्रह्म हूँ और नहीं हूँ। इस प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप मैं हूँ ॥३९॥ किञ्चित्क्वचित्कदाचिच्च आत्मानं न स्पृशत्यसौ । तूष्णीमेव स्थितस्तूष्णीं तूष्णीं सत्यं न किञ्चन ॥ ४०॥ वह किंचित् कहीं का भी आत्मा का स्पर्श नहीं करता । चुप ही स्थित है, चुपचाप और कुछ सत्य नहीं है ॥४०॥ परमात्मा गुणातीतः सर्वात्मा भूतभावनः । कालभेदं वस्तुभेदं देशभेदं स्वभेदकम् ॥ ४१॥ वह परमात्मा गुणों से अतीत, सर्वात्मा भूत भावन है। काल-भेद, वस्तु-भेद, स्व-भेद ॥४१॥ किञ्चिद्भेदं न तस्यास्ति किञ्चिद्वापि न विद्यते । अहं त्वं तदिदं सोऽयं कालात्मा कालहीनकः ॥ ४२ ॥ ऐसा उसमें किंचित् भी भेद नहीं है। मैं, तुम, वह, यह किंचित् भी विद्यमान नहीं है। वह काल आत्मा काल से रहित है ॥४२॥ शून्यात्मा सूक्ष्मरूपात्मा विश्वात्मा विश्वहीनकः । देवात्मादेवहीनात्मा मेयात्मा मेयवर्जितः ॥ ४३॥ यह शून्य आत्मा, सूक्ष्म रूप आत्मा, विक्ष आत्मा, विश्व से रहित है। देव आत्मा, देव रहित आत्मा मेय आत्मा मेयरहित है ॥४३॥ सर्वत्र जडहीनात्मा सर्वेषामन्तरात्मकः । सर्वसङ्कल्पहीनात्मा चिन्मात्रोऽस्मीति सर्वदा ॥ ४४॥ वह सर्वत्र जड़-रहित आत्मा, सब का अन्त आत्मा सब संकल्पों से रहित आत्मा है ऐसा मैं हमेश चिन्मात्र हूँ ॥४४॥ केवलः परमात्माहं केवलो ज्ञानविग्रहः । सत्तामात्रस्वरूपात्मा नान्यत्किञ्चिज्जगद्भयम् ॥ ४५॥ मैं केवल परमात्मा हूँ, केवल ज्ञान स्वरूप है। सत्तामात्र नहीं है रूप आत्मा हूँ, मुझमें जगत् का अन्य किंचित् भी भय नहीं है ॥४५॥ जीवेश्वरेति वाक्क्वेति वेदशास्त्राद्यहं त्विति । इदं चैतन्यमेवेति अहं चैतन्यमित्यपि ॥ ४६॥ जीव, ईश्वर की वाणी कहाँ? इसी प्रकार वेद शास्त्रादि कहाँ और मैं कहाँ ? यह चैतन्य ही है। मैं भी चैतन्य ही हूँ ॥४६॥ इति निश्चयशून्यो यो वैदेही मुक्त एव सः । चैतन्यमात्रसंसिद्धः स्वात्मारामः सुखासनः ॥ ४७॥ जो इस प्रकार के निश्चय से भी शून्य है वह ही विदेह मुक्त है। चैतन्यमात्र संसिद्धि, अपनी आत्मा में प्रसन्नसुख से बैठा हुआ ॥४७॥ अपरिच्छिन्नरूपात्मा अणुस्थूलादिवर्जितः । तुर्यतुर्या परानन्दो वैदेही मुक्त एव सः ॥ ४८॥ जो अपरिच्छिन्न अणु स्यूल आदि से रहित तुर्य का तुर्य परानन्द है वह ही विदेहमुक्त है ॥४८॥ नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः । तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ॥ ४९॥ वह नाम रूप रहित, संवित् से पर, सुख स्वरूप, तुरीय से अतीत रूप, शुभ अशुभ से रहित है ॥४९॥ योगात्मा योगयुक्तात्मा बन्धमोक्षविवर्जितः । गुणागुणविहीनात्मा देशकालादिवर्जितः ॥ ५०॥ वह योगरूप और योगयुक्त आत्मा, बन्ध मोव से रहित है, गुण अगुण से रहित देश कालादि से रहित है ॥५०॥ साक्ष्यसाक्षित्वहीनात्मा किञ्चित्किञ्चिन्न किञ्चन । यस्य प्रपञ्चमानं न ब्रह्माकारमपीह न ॥ ५१॥ हे स्वामी कार्तिकय ! साक्ष्य साक्षी से रहित यदि ऐसा वह कुछ है ऐसा कहो तो ठीक नहीं है। यह कुछ भी नहीं है। जिसको न प्रपञ्च का आभास है न ब्रहाकार का आभास है ॥५१॥ स्वस्वरूपे स्वयञ्ज्योतिः स्वस्वरूपे स्वयंरतिः । वाचामगोचरानन्दो वाङ्गनोगोचरः स्वयम् ॥ ५२॥ वह अपने स्वरूप में स्वयं प्रकाशमान होता है। अपने स्वरूप में स्वयं प्रेम करता है। उसका आनन्द वाणी का आवेषय है और वह स्वयं वाणी और मन का अविषय है ॥५२॥ अतीतातीतभावो यो वैदेही मुक्त एव सः । चित्तवृत्तेरतीतो यश्चित्तवृत्त्यवभासकः ॥ ५३॥ इस प्रकार जो पर से भी पर भाव वाला है, वह ही विदेहमुक्त है। चित्त वृत्ति से अतीत जो चित्त वृत्ति का प्रकाशक है ॥५३॥ सर्ववृत्तिविहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः । तस्मिन्काले विदेहीति देहस्मरणवर्जितः ॥ ५४॥ जो सर्व वृत्ति से रहित है, वह ही विदेहमुक्त है। उस काल में 'मैं विदेह ही हूँ इस प्रकार देह स्मरण से वह रहित है ॥५४॥ ईषन्मात्रं स्मृतं चेद्यस्तदा सर्वसमन्वितः । परैरदृष्टबाह्यात्मा परमानन्दचिद्धनः ॥ ५५॥ यदि कुछ भी स्मरण हो तो वह सब से युक्त है यानी विदेह नहीं है। उसका बाहरी स्वरूप दूसरों से अदृष्ट है और वह परमानन्द चैतन्यधन है ॥५५॥ परैरदृष्टबाह्यात्मा सर्ववेदान्तगोचरः । ब्रह्मामृतरसास्वादो ब्रह्मामृतरसायनः ॥ ५६॥ औरों द्वारा दिखाई न देता हुआ उसका बाह्यात्मा समस्त वेदान्तों का विषय है वह ब्रह्म रूप अमृत का रसास्वाद है, ब्रह्मरूपी अमृत रसायन है ॥५६॥ ब्रह्मामृतरसासक्तो ब्रह्मामृतरसः स्वयम् । ब्रह्मामृतरसे मग्नो ब्रह्मानन्दशिवार्चनः ॥ ५७ ॥ ब्रह्मरूपी अमृत रसयुक्त है, ब्रह्मरूप अमृत का रस आप है, ब्रह्मरूप रस में मग्न होकर ब्रह्मानन्द से शिव का पूजन करता है ॥५७॥ ब्रह्मामृतरसे तृप्तो ब्रह्मानन्दानुभावकः । ब्रह्मानन्दशिवानन्दो ब्रह्मानन्दरसप्रभः ॥ ५८॥ ब्रह्मरूप अमृत के रस से तृप्त हुआ वह ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाला है। वह ब्रह्मानन्द और शिवानन्दरूप है और ब्रह्मानन्द रस का प्रकाशन करने वाला है ॥५८॥ ब्रह्मानन्दपरं ज्योतिर्ब्रह्मानन्दनिरन्तरः । ब्रह्मानन्दरसान्नादो ब्रह्मानन्दकुटुम्बकः ॥ ५९॥ ब्रह्मानन्द परम ज्योति है, ब्रह्मानन्द अखण्ड है। ब्रह्मानन्द के रस से ब्रह्मानन्द का कुटुम्बरूप नाद है ॥५९॥ ब्रह्मानन्दरसारूढो ब्रह्मानन्दैकचिद्धनः । ब्रह्मानन्दरसोद्बाहो ब्रह्मानन्दरसम्भरः ॥ ६०॥ वह ब्रह्मानन्द रसयुक्त है, ब्रह्मानन्द एक चित् घन है और ब्रह्मानन्द रस का प्रवाह है, ब्रह्मानन्द रस से पूर्ण है ॥६०॥ ब्रह्मानन्दजनैर्युक्तो ब्रह्मानन्दात्मनि स्थितः । आत्मरूपमिदं सर्वमात्मनोऽन्यन्न कञ्चन ॥ ६१॥ हे स्वामी कार्तिकय ! वह ब्रह्मानन्द रूपी मित्रों से युक्त है। ब्रह्मानन्द आत्म में स्थित है। उसके लिये यह सब आत्मरूप है। आत्मा से भिन्न कुछ नहीं है ॥६१॥ सर्वमात्माहमात्मास्मि परमात्मा परात्मकः । नित्यानन्द स्वरूपात्मा वैदेही मुक्त एव सः ॥ ६२॥ सब आत्मा है, मैं आत्मा हूँ, परमात्मा हूँ, शिवानन्द स्वरूप आत्मा हूँ, ऐसा अनुभव करे वह ही विदेह मुक्त है ॥६२॥ पूर्णरूपो महानात्मा प्रीतात्मा शाश्वतात्मकः । सर्वान्तर्यामिरूपात्मा निर्मलात्मा निरात्मकः ॥ ६३॥ जो पूर्णरूप महान् आत्मा है, जिसको आत्मा ही प्रिय है। जो शाश्वत सवका अन्तर्यामी रूप है, निर्मल और निरात्मा स्वरूप है ॥६३॥ निर्विकारस्वरूपात्मा शुद्धात्मा शान्तरूपकः । शान्ताशान्तस्वरूपात्मा नैकात्मत्वविवर्जितः ॥ ६४॥ जो निर्विकार स्वरूप, शुद्ध, शान्त रूप वाला तथा शान्त और अशान्त दोनों स्वरूप है, जिसको आत्मा के नानापन का भाव नहीं है ॥ ६४॥ जीवात्मपरमात्मेति चिन्तासर्वस्ववर्जितः । मुक्तामुक्तस्वरूपात्मा मुक्तामुक्तविवर्जितः ॥ ६५॥ जो जीव आत्मा परमात्मा इस प्रकार के सब चितवन से रहित, मुक्त अमुक्त स्वरूप है और मुक्त अमुक्त भाव से रहित है ॥६५॥ बन्धमोक्षस्वरूपात्मा बन्धमोक्षविवर्जितः । द्वैताद्वैतस्वरूपात्मा द्वैताद्वैतविवर्जितः ॥ ६६॥ बन्ध मोक्ष स्वरूप और बन्ध मोक्ष से रहित, द्वैत अद्वैत स्वरूप और द्वैताद्वैत से रहित है ॥६६॥ सर्वासर्वस्वरूपात्मा सर्वासर्वविवर्जितः । मोदप्रमोदरूपात्मा मोदादिविनिवर्जितः ॥ ६७॥ सर्व असर्व स्वरूप और सर्व असर्व से रहित मोद-प्रमोद रूप और मोद-प्रमोद से रहित है ॥६७॥ सर्वसङ्कल्पहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः । निष्कलात्मा निर्मलात्मा बुद्धात्मापुरुषात्मकः ॥ ६८॥ तथा संकल्पों से रहित वह ही विदेहमुक्त है, जो पाप रहित निर्मल प्रबुद्ध पुरुष स्वरूप है ॥६८॥ आनन्दादिविहीनात्मा अमृतात्मामृतात्मकः । कालत्रयस्वरूपात्मा कालत्रयविवर्जितः ॥ ६९॥ आनन्दादि से रहित अमृतमय और अमृत स्वरूप, तीन काल स्वरूप और तीनों कालों से रहित है ॥६९॥ अखिलात्मा ह्यमेयात्मा मानात्मा मानवर्जितः । नित्यप्रत्यक्षरूपात्मा नित्यप्रत्यक्षनिर्णयः ॥ ७० ॥ जो सम्पूर्ण, प्रमाण न करने योग्य, जो प्रमाण रूप और प्रमाण से रहित, नित्य-प्रत्यक्ष रूप, नित्य-प्रत्यक्ष निर्णय किया गया है ॥७०॥ अन्यहीनस्वभावात्मा अन्यहीनस्वयम्प्रभः । विद्याविद्यादिमेयात्मा विद्याविद्यादिवर्जितः ॥ ७१॥ अन्य से रहित स्वभाव वाला, अन्य से रहित स्वयं प्रकाशरूप, विद्या और अविद्या से अनुमान करने योग्य, परन्तु विद्या अविद्या से रहित है ॥७१॥ नित्यानित्यविहीनात्मा इहामुत्रविवर्जितः । शमादिषट्कशून्यात्मा मुमुक्षुत्वादिवर्जितः ॥ ७२॥ जो नित्य-अनित्य से रहित, यहां और वहां से रहित, शम आदि छहों से (शम, दम, श्रद्धा, समाधानता उपरामता, तितिक्षा षट हैं) रहित है, मुमुक्षता आदि से रहित है ॥७२॥ स्थूलदेहविहीनात्मा सूक्ष्मदेहविवर्जितः । कारणादिविहीनात्मा तुरीयादिविवर्जितः ॥ ७३॥ स्थूल देह से रहित, सूक्ष्म देह से रहित, कारण देह से रहित, तुरीयादि से रहित है ॥७३॥ अन्नकोशविहीनात्मा प्राणकोशविवर्जितः । मनःकोशविहीनात्मा विज्ञानादिविवर्जितः ॥ ७४॥ अन्नमय कोष से रहित, प्राणमय कोष से रहित, मनोमय कोष से रहित, विज्ञानमय कोष से रहित है ॥७४॥ आनन्दकोशहीनात्मा पञ्चकोशविवर्जितः । निर्विकल्पस्वरूपात्मा सविकल्पविवर्जितः ॥ ७५॥ आनन्दमय कोष से रहित तथा पञ्च कोषों से रहित है। जो निर्विकल्प स्वरूप विकल्प से रहित है ॥७५॥ दृश्यानुविद्धहीनात्मा शब्दविद्धविवर्जितः । सदा समाधिशून्यात्मा आदिमध्यान्तवर्जितः ॥ ७६॥ दृश्य के सम्बन्ध से रहित और शब्द के सम्बन्ध से रहित है। जो सदा समाधि से शून्य, आदि मध्य और अन्त से रहित है ॥७६॥ प्रज्ञानवाक्यहीनात्मा अहम्ब्रह्मास्मिवर्जितः । तत्त्वमस्यादिहीनात्मा अयमात्मेत्यभावकः ॥ ७७॥ प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म इस वाक्य से रहित है। 'अहं ब्रह्मास्मि' इस वाक्य से रहित है। 'तत्त्वमसि इस वाक्य से रहित है। 'अयमात्मा ब्रह्म' इस वाक्य से रहित है ॥७७॥ ओङ्कारवाच्यहीनात्मा सर्ववाच्यविवर्जितः । अवस्थात्रयहीनात्मा अक्षरात्मा चिदात्मकः ॥ ७८ ॥ ओंकार का जो वाचक है उससे रहित, सर्व वाच्य से रहित, तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वम, सुषुप्ति) से रहित, नाश रहित चेतन स्वरूप है ॥७८॥ आत्मज्ञेयादिहीनात्मा यत्किञ्चिदिदमात्मकः । भानाभानविहीनात्मा वैदेही मुक्त एव सः ॥ ७९॥ आत्मा अब जिसको ज्ञेय नहीं है, जो कुछ है यह है इस स्वरूप वाला तथा जो भान और अमान से रहित है वह ही विदेहमुक्त है ॥७९॥ आत्मानमेव वीक्षस्व आत्मानं बोधय स्वकम् । स्वमात्मानं स्वयं भुङ्क्ष्क्ष्व स्वस्थो भव षडानन ॥ ८०॥ हे षडानन ! आत्मा को ही देख, अपने आत्मा ही को जान, अपने आत्मा को ही आप भोग और स्वस्थ हो ॥८०॥ स्वमात्मनि स्वयं तृप्तः स्वमात्मानं स्वयं चर । आत्मानमेव मोदस्व वैदेही मुक्तिको भवेत्युपनिषत् ॥ अपने आत्मा में ही स्वयं तृप्त होकर अपनी आत्मा में स्वयं आप विचर। आत्मा में ही मोद आनन्द कर और विदेह मुक्त हो । यह उपनिषत् है ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

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