Narayana Upanishad (नारायण उपनिषद )

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ नारायणोपनिषत् ॥ (नारायण अथर्वशीर्ष) ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ नारायणोपनिषत् ॥ (नारायण अथर्वशीर्ष) नारायण उपनिषद (प्रथमः खण्डः नारायणात् सर्वचेतनाचेतनजन्म) ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति । नारायणात्प्राणो जायते । मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुर्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी । नारायणाद् ब्रह्मा जायते । नारायणाद् रुद्रो जायते । नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतयः प्रजायन्ते । नारायणाद्द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि च छन्दासि । नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणे प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते ॥ एतदृग्वेदशिरोऽधीते । उन पुरुषरूप भगवान् नारायण ने संकल्प किया कि 'मैं' प्रजा (जीवों) की सृष्टि करूं। अतः उन्हीं के द्वारा समस्त जीवों की उत्पत्ति हुई । नारायण से समष्टिगत प्राण का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हीं के द्वारा मन और समस्त इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। भगवान् नारायण द्वारा ही आकाश, वायु, तेज, जल एवं सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाली पृथ्वी आदि सभी का प्राकट्य हुआ। भगवान् नारायण से ही ब्रह्मा जी प्रादुर्भूत हुए। नारायण से भगवान् रुद्र उत्पन्न होते हैं। नारायण द्वारा ही देवराज इन्द्र प्रकट हुए । नारायण द्वारा प्रजापति का भी प्रादुर्भाव हुआ। नारायण से ही द्वादश आदित्य उत्पन्न हुए। ग्यारह रुद्र, अष्टवसु एवं सम्पूर्ण छन्द भगवान् नारायण से प्रकट हुए । नारायण द्वारा ही प्रेरणा प्राप्त करके सभी अपने-अपने कार्यों में लग जाते हैं तथा भगवान् नारायण में ही अन्त में विलीन हो जाते हैं। ऐसा ही यह ऋग्वेदीय उपनिषद् का कथन है॥१॥ (द्वितीयः खण्डः नारायणस्य सर्वात्मत्वम्) ॐ । अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः । शक्रश्च नारायणः । द्यावापृथिव्यौ च नारायणः । कालश्च नारायणः । दिशश्च नारायणः । ऊर्ध्वंश्च नारायणः । अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च नारायणः । नारायण एवेद सर्वम् । यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलो निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणः । न द्वितीयोऽस्ति कश्चित् । य एवं वेद । स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति ॥ एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते । भगवान् नारायण ही नित्य (शाश्वत) हैं। ब्रह्माजी भी नारायण हैं। भगवान् शिव एवं देवराज इन्द्र भी नारायण हैं। काल और दिशाएँ भी नारायण हैं। विदिशायें (दिशाओं के मध्य के कोण) भी नारायण हैं। ऊर्ध्व भी नारायण और अधः भी नारायण है। अन्तः एवं बाह्य भी नारायण हैं। जो कुछ हो गया और जो कुछ हो रहा है तथा जो होने वाला है, वह सभी कुछ भगवान् नारायण ही हैं। नारायण ही एकमात्र निष्कलंक, निरञ्जन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय और विशुद्ध देव हैं। उनके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई नहीं। जो मनुष्य ऐसा जानता है, वह स्वयं विष्णुमय हो जाता है, वह विष्णु ही हो जाता है, ऐसा ही यजुर्वेदीय उपनिषद् का कथन है॥२॥ (तृतीयः खण्डः नारायणाष्टाक्षरमन्त्रः) ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात् । नारायणायेत्युपरिष्टात् । ओमित्येकाक्षरम् । नम इति द्वे अक्षरे । नारायणायेति पञ्चाक्षराणि । एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम् । यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति। अनपब्रुवस्सर्वमायुरेति । विन्दते प्राजापत्य रायस्पोषं गौपत्यम् । ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्श्रुत इति । य एवं वेद ॥ एतत्सामवेदशिरोऽधीते । ॐ नमो नारायणाय सर्वप्रथम आरम्भ में 'ॐ' कार का उच्चारण करे, तदुपरान्त बाद में 'नमः' शब्द का और फिर अन्त में 'नारायण' पद का उच्चारण करे।'ॐ' यह एक अक्षर है। 'नमः' ये दो अक्षर हैं और 'नारायणाय' ये पाँच अक्षर हैं। इस प्रकार यह 'ॐ नमो नारायणाय' पद भगवान् नारायण के आठ अक्षरों से युक्त मन्त्र है। भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षरी मन्त्र का जो भी मनुष्य जप और ध्यान करता है, वह श्रेष्ठतम कीर्ति से युक्त होकर पूर्णायुष्य प्राप्त करता है। उसे जीवों का आधिपत्य, स्त्री-पुत्र एवं धन-धान्यादि की वृद्धि तथा गौ-आदि पशुओं का स्वामित्व भी प्राप्त होता है । तदुपरान्त वह अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है, यही सामवेदीय उपनिषद् का प्रतिपादन है ॥३॥ (चतुर्थः खण्डः नारायणप्रणवः) प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार उकार मकार इति । तानेकधा समभरत्तदेतदोमिति । यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् । ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासकः । वैकुण्ठभुवनलोकं गमिष्यति । तस्मात् तटिदिव प्रकाशमात्रम् । ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनोम् । सर्वभूतस्थमेकं नारायणम् । कारणरूपमकार परं ब्रह्मोम् । एतदथर्वशिरोयोधीते ॥ अ' कार, 'उ' कार और 'म' कार मात्राओं से युक्त यहे प्रत्यक् (ॐ कार) आनन्दमय, ब्रह्मपुरुष प्रणवस्वरूप है। ये भिन्न-भिन्न हैं, इन मात्राओं के सम्मिलित स्वरूप को 'ॐ' कहते हैं। इस प्रणवरूप'ॐ' कार का जप करके योगी-साधक जन्म-मृत्यु रूपी सांसारिक-बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।' ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्र की साधना करने वाला साधक वैकुण्ठ धाम को जाता है। वह यह वैकुण्ठ धाम पुण्डरीक (हृदय कमल) विज्ञानमय है। इस कारण इसका स्वरूप विद्युत् के सदृश परम प्रकाशस्वरूप है। ब्रह्ममय देवकी नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मण्य अर्थात् ब्राह्मण प्रिय हैं। वे ही मधुसूदन पुण्डरीकाक्ष और वे ही विष्णु एवं अच्युत हैं। प्राणि-मात्र में वे भगवान् नारायण ही निवास करते हैं। वे ही कारण पुरुष होते हुए भी कारण रहित हैं। वे ही परब्रह्म हैं। विद्वज्जन अथर्ववेदीय ॐकार रूपी इस शिरोभाग (सारभाग) का अध्ययन करते हैं ॥४॥ विद्याऽध्ययनफलम् । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । माध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात् प्रमुच्यते । सर्व वेद पारायण पुण्यं लभते । नारायणसायुज्यमवाप्नोति नारायण सायुज्यमवाप्नोति । य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ इस उपनिषद् का प्रातःकाल पाठ करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। दोनों संध्याओं-प्रातः एवं सायंकाल के समय में इस उपनिषद् का पाठ करने से साधक पूर्व समय (पूर्वजन्म) का भी यदि पापी हो, तो वह पापरहित हो जाता है। मध्याह्न के समय भगवान् भास्कर की ओर अभिमुख होकर पाठ करने से मनुष्य पाँच महापातकों एवं उपपातकों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। वह चारों वेदों के पाठ का पुण्यलाभ प्राप्त करता है तथा शरीर का परित्याग कर देने पर अन्तकाल में श्री नारायण के सायुज्य पद को प्राप्त कर लेता है। जो ऐसा जानता है, वह भी श्रीमन्नारायण के सायुज्य पद को पा जाता है॥५॥ ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवायः ॥ शान्तिपाठ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ। हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति नारायणोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ नारायण उपनिषद समात ॥

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