ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४७ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप कथा ते अग्ने शुचयन्त आयोर्ददाशुर्वाजेभिराशुषाणाः । उभे यत्तोके तनये दधाना ऋतस्य सामत्रणयन्त देवाः ॥१॥ हे अग्निदेव ! यज्ञ द्वारा वायुमण्डल का शोधन करने वाली, सर्वत्र प्रकाश बिखेरने वाली आपकी ज्वालाएँ किस प्रकार पोषक अन्नों के द्वारा जीवन तत्व प्रदान करती हैं ? ॥१॥ बोधा मे अस्य वचसो यविष्ठ मंहिष्ठस्य प्रभृतस्य स्वधावः । पीयति त्वो अनु त्वो गृणाति वन्दारुस्ते तन्वं वन्दे अग्ने ॥२॥ उत्तम तरुण रूप, वैभव सम्पन्न हे अग्निदेव ! आप हमारे महिमायुक्त बार-बार किये गये निवेदन को स्वीकार करें। कोई आपके निन्दक हैं तो कोई प्रशंसा करने वाले हैं, लेकिन हम स्तोता स्वभाव से युक्त आपकी प्रज्वलित ज्योति की वन्दना ही करते हैं॥२॥ ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन् । ररक्ष तान्त्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आपकी जिन प्रख्यात संरक्षक किरणों ने 'ममता' के पुत्र के अन्धेपन को दूर किया। ज्ञान से सम्पन्न लोकहित के कार्यों को करने वाले को आपने संरक्षण प्रदान किया, लेकिन अहंकारी दुष्कर्मी आपको प्रभावित न कर सके ॥३॥ यो नो अग्ने अररिवाँ अघायुररातीवा मर्चयति द्वयेन । मन्त्रो गुरुः पुनरस्तु सो अस्मा अनु मृक्षीष्ट तन्वं दुरुक्तैः ॥४॥ है अग्निदेव ! जो दुष्कर्मों में लिप्त पापीजन में सार्थक दान देने में बाधा पहुँचा रहे हैं, जो स्वयं भी यज्ञीय कर्मों में सहयोग नहीं करते तथा छलपूर्ण चालों से हमें भी परेशान करते हैं। उनकी वे छलरूपी समस्त योजनाएँ उनके स्वयं के ही विनाश का कारण बनें। दूसरों के लिए कटु वचन बोलने वालों के शरीर क्षीण हो जायें ॥४॥ उत वा यः सहस्य प्रविद्वान्मर्ती मर्तं मर्चयति द्वयेन । अतः पाहि स्तवमान स्तुवन्तमग्ने माकिर्नो दुरिताय धायीः ॥५॥ शक्ति के पुत्र हे अग्निदेव ! जो मनुष्य छल-कपटपूर्ण दुर्व्यवहार से हमें कष्ट पहुँचाना चाहते हैं, उनसे हम उपासकों को बचायें। हे स्तुत्य अग्निदेव ! हमें दुष्कर्मरूपी पापों की दुःखाग्नि में जलने से बचायें ॥५॥

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