ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४० ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्नि । छंद जगती, १० त्रिष्टुव्बा, १२-१३ त्रिष्टुप वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये । वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्णं तमोहनम् ॥१॥ हे ऋत्विजों ! यज्ञवेदी में विराजित सुन्दर प्रकाशवान्, श्रेष्ठ कान्तियुक्त अग्नि को और अधिक प्रखर प्रज्वलित करने के लिए समिधाएँ और हविष्यान्न अर्पित करें। उस पावन रथ के समान प्रकाशमान, तेजस्वी, तथा अन्धकार के विनाशक अग्निदेव को अपने स्तोत्रोच्चारण द्वारा किसी वस्त्र से आच्छादित करने की तरह ढक दें ॥१॥ अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमी पुनः । अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषा न्यन्येन वनिनो मृष्ट वारणः ॥२॥ दो विधियों (मंथन एवं अग्याधान) द्वारा प्रकट अग्निदेव तीन प्रकार के (आज्य, पुरोडाश तथा सोमरूप) अन्नों को प्राप्त (भक्षण) करते हैं। अग्नि द्वारा ग्रहण किया गया अन्न प्रति वर्ष पुनः बढ़ जाता है। वे (अग्निदेव) जठराग्नि के रूप में भक्षण करते हैं और दावानल के रूप में जंगल के वृक्षों को जला देते हैं॥२॥ कृष्णप्रुतौ वेविजे अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम् । प्राचाजिह्व ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्यं कुपयं वर्धनं पितुः ॥३॥ अग्नि प्रज्वलन से काली हुई दोनों अरणिरूपी माताएँ कम्पित होती हैं, इसके बाद उस, गतिमान्, ज्वालाओं रूपीं जिह्वाओं से युक्त, अन्धकार नाशक, शीघ्र प्रज्वलनशील तथा साथ रहने योग्य, विशेष प्रयत्न द्वारा रक्षित तथा अपने पालनकर्ता याजकों की समृद्धि बढ़ाने वाले, शिशु रूप अग्नि को, (हम याजकगण) प्रकट करते हैं॥३॥ मुमुक्ष्वो मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतास ऊ जुवः । असमना अजिरासो रघुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशवः ॥४॥ मोक्षप्रद, तीव्र गतिशील, कृष्ण मार्गगामी, नानाविध रंगों से युक्त, शीघ्रगामी, वायु द्वारा प्रभावित तथा सर्वत्र संव्याप्त होने वाले अग्निदेव गतिशील मनुष्यों के लिए यज्ञीय कार्यों में विशेष उपयोगी हैं॥४॥ आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्पः करिक्रतः । यत्सीं महीमवनिं प्राभि मर्मृशदभिश्वसन्त्स्तनयन्नेति नानदत् ॥५॥ जिस समय अग्निदेव गर्जन करते हुए श्वास लेते हुए, उच्च शब्दों से आकाश को गुंजित करते हुए तथा विस्तृत पृथ्वी को सभी दिशाओं से छुते हुए प्रज्वलित होते हैं, उस समय उनकी ज्योति- ज्वालाएँ अन्धेरे मार्ग को अपने प्रकाश द्वारा बिना किसी प्रयत्न के सभी ओर प्रकाशित करती हैं॥५॥ भूषन्न योऽधि बभ्रूषु नम्नते वृषेव पत्नीरभ्येति रोरुवत् । ओजायमानस्तन्वश्च शुम्भते भीमो न शृङ्गा दविधाव दुर्गृभिः ॥६॥ जो अग्निदेव पीतवर्ण वाली ओषधियों में मानो उनको सुशोभित करने के लिए प्रविष्ट होते हैं और बैल के समान शब्द करते हुए, आज्ञा पालन करने वाली पत्नीरूप ओषधियों वनस्पतियों को भी खाने लगते हैं। अति तेजस्विता युक्त होने पर ज्वालारूपी अपने शरीर को चमकाते हैं। विकराल रूप धारण करके भयंकर बैल के समान ज्वाला रूपी सींगों को घुमाते हैं॥६॥ स संस्तिरो विष्टिरः सं गृभायति जानन्नेव जानतीर्नित्य आ शये । पुनर्वर्धन्ते अपि यन्ति देव्यमन्यद्वर्पः पित्रोः कृण्वते सचा ॥७॥ ये अग्निदेव कभी प्रत्यक्ष, कभी अप्रत्यक्ष रूप से ओषधियों में अपनी सामर्थ्य को व्याप्त करते हैं। प्रकट रूप में अग्नि की अविच्छिन्न ज्वालाएँ सर्वोच्च दिव्यलोक की ओर बढ़ती हैं। पश्चात् वे ज्वालाएँ अपने पितारूप अग्नि सहित पृथ्वी और अन्तरिक्ष में (सूर्य, विद्युत्, अग्नि, वडवानल, दावानल आदि) विविध रूप धारण करती हैं॥७॥ तमग्रुवः केशिनीः सं हि रेभिर ऊर्ध्वास्तस्थुर्मनुषीः प्रायवे पुनः । तासां जरां प्रमुञ्चन्नेति नानददसुं परं जनयज्ञ्जीवमस्तृतम् ॥८॥ केशों के समान लम्बी ज्वालाएँ उस अग्नि को सभी ओर से स्पर्श करती हैं। वे ज्वालाएँ मृतवत् होती हुई भी अग्नि से मिलने के लिए ऊर्ध्व मुख होकर ज्वलन्त हो उठती हैं। अग्निदेव उन ज्वालाओं की जीर्णता को समाप्त करके उन्हें सामर्थ्य और जीवन्त बनाते हुए गर्जन करते हैं॥८॥ अधीवासं परि मातू रिहन्नह तुविग्रेभिः सत्वभिर्याति वि ज्रयः । वयो दधत्पद्वते रेरिहत्सदानु श्येनी सचते वर्तनीरह ॥९॥ धरती माता के तृण रूपी वस्त्रों को (वनस्पति आदि को) खाते हुए ये अग्निदेव विजयशील प्राणियों के साथ वेगपूर्वक जाते हैं। वे मनुष्य और पशुओं को अन्नरूपी शक्ति देते हैं। अग्निदेव हमेशा तृणादि को जलाते हुए जिस मार्ग से जाते हैं, उसे पीछे से काला कर देते हैं॥९॥ अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्वसीवान्वृषभो दमूनाः । अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराणः ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप हमारे ऐश्वर्य सम्पन्न गृह को प्रकाशित करें। इसके बाद समर्थ शत्रुओं को पराजित करने वाले आप श्वास (प्राण वायु) द्वारा शैशव त्यागकर संग्राम में हमारे लिए रक्षा कवच के समान उपयोगी हों । बार-बार शत्रुओं को दूर भगाकर विशेष दीप्ति से प्रकाशित हों ॥१०॥ इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मनः प्रेयो अस्तु ते । यत्ते शुक्रं तन्वो रोचते शुचि तेनास्मभ्यं वनसे रत्नमा त्वम् ॥११॥ हे अग्निदेव ! आपके प्रति हमारे द्वारा निवेदित स्तोत्र दूसरे सभी स्तोत्रों की अपेक्षा उत्तम हों। इन स्तोत्रों से आपकी तेजस्विता में वृद्धि हो, जिससे रत्लस्वरूप सुन्दर सम्पदा हम प्राप्त करें ॥११॥ रथाय नावमुत नो गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं रास्यग्ने । अस्माकं वीराँ उत नो मघोनो जनाँश्च या पारयाच्छर्म या च ॥१२॥ हे अग्निदेव ! आप हमारे घर के परिजनों तथा महारथी दरों के लिए यज्ञीय सत्कर्म रूपी सुदृढ़ नाव प्रदान करें। जो नाव हमारे शूरवीरों, धनसम्पन्नों तथा अन्य मनुष्यों को भी संसार सागर से पार उतार सके । आप हमें श्रेष्ठ सुख सम्पदा भी प्रदान करें ॥१२॥ अभी नो अग्न उक्थमिज्जुगुर्या द्यावाक्षामा सिन्धवश्च स्वगूर्ताः । गव्यं यव्यं यन्तो दीर्घाहेषं वरमरुण्यो वरन्त ॥१३॥ हे अग्निदेव ! हमारे स्तोत्र आपकी भली प्रकार प्रशंसा करने वाले हैं। अन्तरिक्ष, पृथ्वी तथा स्वयं प्रवाहित सरिताये हमें गौओं द्वारा उत्पादित दुग्धादि और अन्नादि-पदार्थों को प्रदान करें। इसके अतिरिक्त अरुणवर्णा उषाएँ हमें श्रेष्ठ अन्न और बल सामर्थ्य से परिपूर्ण करें ॥१३॥

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