ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६९ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणः देवता- इन्द्र । छंद -त्रिष्टुप, चतुष्पदा विराट महश्चित्त्वमिन्द्र यत एतान्महश्चिदसि त्यजसो वरूता । स नो वेधो मरुतां चिकित्वान्त्सुम्ना वनुष्व तव हि प्रेष्ठा ॥१॥ हे इन्द्रदेव! आप महान् देवताओं के एवं त्याग की प्रतिमूर्ति मरुद्गणों के भी संरक्षक हैं। हे ज्ञान सम्पन्न इन्द्रदेव! आप हमसे परिचित हैं, अतः मरुद्गणों और अपनी प्रिय सामग्री में प्रदान करें ॥१॥ अयुज्रन्त इन्द्र विश्वकृष्टीर्विदानासो निष्षिधो मर्त्यत्रा । मरुतां पृत्सुतिर्हासमाना स्वर्मीळ्हस्य प्रधनस्य सातौ ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! जिन मरुद्गणों की सेना युद्ध के प्रारम्भ होने पर विशेष हर्षित होती हुई, सुख की अनुभूति करती है। शत्रुओं को दूर भगाने वाले वे सम्पूर्ण मनुष्यों के ज्ञाता मरुद्गण, सर्वोत्तम आपका ही सहयोग करते हैं॥२॥ अम्यक्सा त इन्द्र ऋष्टिरस्मे सनेम्यभ्वं मरुतो जुनन्ति । अग्निश्चिद्धि ष्मातसे शुशुक्वानापो न द्वीपं दधति प्रयांसि ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा सृजित (वज्र) हमें उपलब्ध हो। ये मरुद्गण सदैव जल वृष्टि करते हैं जिस प्रकार अग्नि काष्ठ को और जल द्वीप को धारण करता है। उसी प्रकार मरुद्गण अन्न (पोषण) प्रदान करते हैं॥३॥ त्वं तू न इन्द्र तं रयिं दा ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिम् । स्तुतश्च यास्ते चकनन्त वायोः स्तनं न मध्वः पीपयन्त वाजैः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! मधुर दूध से जिस प्रकार स्तन परिपुष्ट होते हैं, वैसे ही हमारी स्तोत्र वाणियों से प्रसन्न होकर आप अभीष्ट अन्नादि से हमें परिपुष्ट करें । दक्षिणा में प्राप्त धन की तरह ही हमें धन सम्पदाओं से सम्पन्न बनाएँ ॥४॥ त्वे राय इन्द्र तोशतमाः प्रणेतारः कस्य चिदृतायोः । ते षु णो मरुतो मृळयन्तु ये स्मा पुरा गातूयन्तीव देवाः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपके पास ऐसी धन सम्पदा हैं, जो यजमानों को संतुष्ट करके उन्हें यज्ञीय सत्कर्मों की ओर प्रेरित करती है। हे इन्द्रदेव ! जो मरुद्गण प्राचीन काल से ही यज्ञीय सत्कर्मों के पूर्वाभ्यासी हैं, वे हमें सुख-सौभाग्य प्रदान करें ॥५॥ प्रति प्र याहीन्द्र मीळ्हुषो नृन्महः पार्थिवे सदने यतस्व । अध यदेषां पृथुबुनास एतास्तीर्थे नार्यः पौंस्यानि तस्थुः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप व्यापक स्तर पर जल वृष्टि के लिए अग्रणीं मरुद्गणों के समीप जाएँ और उनके साथ मिलकर भूमण्डल में पराक्रम का परिचय दें। युद्ध में पराक्रम करने के समान मरुत् के अश्व (मेघों पर) आक्रमण करते हैं॥६॥ प्रति घोराणामेतानामयासां मरुतां शृण्व आयतामुपब्दिः । ये मर्त्य पृतनायन्तमूमैऋणावानं न पतयन्त सर्गेः ॥७॥ जिस प्रकार ऋणी मनुष्य को अपराधी मानकर दण्डित किया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रदेव के सहयोगी मरुद्गण भी युद्धाकांक्षी असुरों को शस्त्रों के प्रहार से जकड़कर, जमीन पर पटक देते हैं, तब भयंकर, शीघ्र गमनशील, आक्रमणकारी और शत्रुओं को घेरने वाले इन मरुतों का शब्दनाद सुनाई देता है॥७॥ त्वं मानेभ्य इन्द्र विश्वजन्या रदा मरुद्भिः शुरुधो गोअग्राः । स्तवानेभिः स्तवसे देव देवैर्विद्य��मेषं वृजनं जीरदानुम् ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आप मरुतों के सहयोग से अपनी विश्व-उत्पादक सामर्थ्य से, अपनी प्रतिष्ठा के लिए गौओं को आगे रखकर (अपने बचाव के लिए) युद्ध लड़ रहीं शोषण कारी शत्रु सेना का संहार करें। हे इन्द्रदेव ! आपकी प्रार्थना स्तुत्य देवताओं के साथ हीं की जाती है। हम आपके सहयोग से अन्न, बल और विजयश्री प्राप्त करें ॥८॥

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