ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८१

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ८१ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - सविता । छंद - जगती युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः । वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः ॥१॥ अकेले ही यज्ञ को धारण करने वाले, सभी मार्गों के ज्ञाता सवितादेव महान् स्तुतियों के पात्र हैं। महान् बुद्धिमान् एवं ज्ञानी जन अपने मन एवं बुद्धि को उन प्रेरक सविता के साथ नियोजित करते हैं ॥१॥ विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः प्रासावीद्भद्रं द्विपदे चतुष्पदे । वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनु प्रयाणमुषसो वि राजति ॥२॥ वे अत्यन्त मेधावी सवितादेव अपने सम्पूर्ण रूपों को प्रकट करते हैं। वे मनुष्यों और पशुओं के लिए कल्याणकारी हैं। वे सबके द्वारा वरणीय सवितादेव द्युलोक को प्रकाशित करते हैं। उषादेवी के प्रयाण के अनन्तर वे प्रकाशित होते हैं ॥२॥ यस्य प्रयाणमन्वन्य इद्ययुर्देवा देवस्य महिमानमोजसा । यः पार्थिवानि विममे स एतशो रजांसि देवः सविता महित्वना ॥३॥ अग्नि आदि सम्पूर्ण देवगण, जिन सवितादेव के महिमायुक्त मार्गों का अनुगमन करके ओज (बल) को धारण करते हैं, जिन सवितादेव ने अपनी महत्ता से पृथ्वी आदि लोकों को परिव्याप्त किया, वे देव अत्यन्त शोभायमान हैं ॥३॥ उत यासि सवितस्त्रीणि रोचनोत सूर्यस्य रश्मिभिः समुच्यसि । उत रात्रीमुभयतः परीयस उत मित्रो भवसि देव धर्मभिः ॥४॥ हे सवितादेव ! आप तीनों प्रकाशित लोकों में गमन करते हैं और सूर्य रश्मियों से संयुक्त होते हैं। आप रात्रि के दोनों छोरों को प्रभावित करके परिगमन करते हैं। हे देव! आप कल्याणकारी कर्मों से संसार के मित्र रूप होते हैं ॥४॥ उतेशिषे प्रसवस्य त्वमेक इदुत पूषा भवसि देव यामभिः । उतेदं विश्वं भुवनं वि राजसि श्यावाश्वस्ते सवितः स्तोममानशे ॥५॥ हे सवितादेव ! आप अकेले ही सम्पूर्ण उत्पन्न जगत् के अधीश्वर हैं। आप अपनी गमन-सामर्थ्य से जगत् के पोषक रूप हैं। आप सम्पूर्ण लोकों में विशिष्टरूप से देदीप्यमान हैं। तेजस्वी अश्वों-पराक्रमों से युक्त श्यावाश्व ऋषि आपके निमित्त स्तोत्रों को निवेदित करते हैं ॥५॥

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