ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २७

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २७ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः, १ ऋतवा । छंद - गायत्री प्र वो वाजा अभिद्यवो हविष्मन्तो घृताच्या । देवाजिगाति सुम्नयुः ॥१॥ हे ऋतुओ ! अन्न, तेज और ऐश्वर्य की अभिलाषा से ऋत्विग्गण घृत से पूर्ण सुवा और हविष्यान्न से युक्त होकर देवों का यजन करते हैं। सुख की इच्छा करने वाले वे देवों को प्राप्त करते हैं ॥१॥ ईळे अग्निं विपश्चितं गिरा यज्ञस्य साधनम् । श्रुष्टीवानं धितावानम् ॥२॥ यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों को सम्पन्न करने वाले, प्रज्ञावान्, वेगवान् और धनवान् अग्निदेव का स्तुति गान करते हुए हम उनका पूजन-सम्मान करते हैं॥२॥ अग्ने शकेम ते वयं यमं देवस्य वाजिनः । अति द्वेषांसि तरेम ॥३॥ हे दीप्तिमान् अग्निदेव ! हम हविष्यान्न तैयार करके आपको अपने पास रख सकें अर्थात् यजन कर सकें और पापों से पार हो सकें ॥३॥ समिध्यमानो अध्वरेऽग्निः पावक ईड्यः । शोचिष्केशस्तमीमहे ॥४॥ अग्निदेव यज्ञ में प्रज्वलित होकर केश रूप ज्वाला वाले, पवित्रकारक और स्तुत्य हैं, उनसे हम इष्ट फल की याचना करते हैं ॥४॥ पृथुपाजा अमर्यो घृतनिर्णिक्स्वाहुतः । अग्निर्यज्ञस्य हव्यवाट् ॥५॥ महान् तेजस्वी, अजर-अमर, घृतवत् तेजोमय, भली-भाँति जिनका आवाहन और पूजन किया गया है, ऐसे अग्निदेव, यज्ञ में समर्पित हवियों को धारण करने वाले हैं॥५॥ तं सबाधो यतस्रुच इत्था धिया यज्ञवन्तः । आ चकुरग्निमूतये ॥६॥ विघ्न-बाधाओं को दूर करके यज्ञ सम्पन्न करने वाले, यज्ञ के साधनों से युक्त ऋत्विजों ने अपनी रक्षा के लिए हव्यपूरित स्वचा को आगे बढ़ाकर स्तुतियों के साथ अग्निदेव को समर्पित किया। इस प्रकार उन्हें अपने अनुकूल बनाया ॥६॥ होता देवो अमर्त्यः पुरस्तादेति मायया । विदथानि प्रचोदयन् ॥७॥ देवों का आवाहन करने वाले, अविनाशी, प्रकाशमान अग्निदेव, याजकों को सत्कर्म की प्रेरणा देते हुए शीघ्र ही प्रकट होते हैं॥७॥ वाजी वाजेषु धीयतेऽध्वरेषु प्र णीयते । विप्रो यज्ञस्य साधनः ॥८॥ संग्राम में बलशाली अग्निदेव को, शत्रु नाश करने के निमित्त स्थापित करते हैं। यह ज्ञान-सम्पन्न अग्निदेव यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों को सिद्ध करने वाले साधन रूप हैं॥८॥ धिया चक्रे वरेण्यो भूतानां गर्भमा दधे । दक्षस्य पितरं तना ॥९॥ वे अग्निदेव सब यज्ञ कर्मों में प्रकट होने के कारण श्रेष्ठ हैं और सब प्राणियों में संव्याप्त हैं। विश्व पालक अग्निदेव को वेदी स्वरूपिणी दक्ष-पुत्री यज्ञादि के निमित्त धारण करती हैं॥९॥ नि त्वा दधे वरेण्यं दक्षस्येळा सहस्कृत । अग्ने सुदीतिमुशिजम् ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप घर्षण-बल (अरणि-मन्थन से प्रकट होने वाले, श्रेष्ठ, तेजस्वीं घृतादि हविष्यान्न की कामना करने वाले और वरण करने योग्य हैं। आपको वे दो रूपों वाली दक्ष पुत्री 'इला' धारण करती हैं॥१०॥ अग्निं यन्तुरमप्तुरमृतस्य योगे वनुषः । विप्रा वाजैः समिन्धते ॥११॥ मेधावी साधकगण जगन्नियन्ता, जल-प्रेरक अग्निदेव को हविष्यान्न द्वारा सम्यक् रूप से प्रदीप्त करते हैं॥११॥ ऊर्जा नपातमध्वरे दीदिवांसमुप द्यवि । अग्निमीळे कविक्रतुम् ॥१२॥ बलों को धारण करने वाले, द्युलोक को प्रकाशित करने वाले अग्निदेव की हम इस यज्ञ में स्तुति करते हैं॥१२॥ ईळेन्यो नमस्यस्तिरस्तमांसि दर्शतः । समग्निरिध्यते वृषा ॥१३॥ स्तुत्य, प्रणम्य, अन्धकार नाशक, दर्शनीय और शक्तिशाली हे अग्निदेव ! आप आहुतियों द्वारा भली प्रकार प्रज्वलित संवर्धित किये जाते हैं॥१३॥ वृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः । तं हविष्मन्त ईळते ॥१४॥ बलशाली अश्व जैसे राजा के वाहन को खींच कर ले जाते हैं, उसी प्रकार अग्निदेव देवताओं तक हवि पहुँचाते हैं। ऐसे अग्निदेव उत्तम प्रकार से प्रदीप्त हुए, यजमान की स्तुतियों को प्राप्त करते हैं॥१४॥ वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि । अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥१५॥ हे बलवान् अग्निदेव ! घृतादि की हवि प्रदान करने वाले हम, शक्तिशाली, तेजस्वी और महान् आपको (अग्नि को) प्रदीप्त करते हैं॥१५॥

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