ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६४

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६४ ऋषिः अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ । छंद - अनुष्टुप, ७ पंक्ति वरुणं वो रिशादसमृचा मित्रं हवामहे । परि व्रजेव बाह्वोर्जगन्वांसा स्वर्णरम् ॥१॥ जिस प्रकार गौएँ अपने गोचर स्थान में जाती हैं, उसी प्रकार सर्वत्र गमनशील, मित्र और वरुणदेवों को हम ऋचाओं से आवाहित करते हैं। ये मित्र और वरुणदेव अपनी सामर्थ्य से सर्वत्र गमन करते हैं। ये स्वर्णधन देने वाले और शत्रुओं का विनाश करने वाले हैं ॥१॥ ता बाहवा सुचेतुना प्र यन्तमस्मा अर्चते । शेवं हि जार्यं वां विश्वासु क्षासु जोगुवे ॥२॥ हे मित्र और वरुणदेवो ! म उत्साहपूर्ण मन से आपका पूजन करते हैं । हम पूजकों को आप दोनों हाथ फेलाकर (उदारतापूर्वक) प्रशंसित सुख प्रदान करें। हम आपकी प्रशस्ति का गान सभी लोकों में करें ॥२॥ यन्नूनमश्यां गतिं मित्रस्य यायां पथा । अस्य प्रियस्य शर्मण्यहिंसानस्य सश्चिरे ॥३॥ हम मित्रदेव के पथों का अनुगमन करते हुए निश्चित गति प्राप्त करें । हमारे प्रिय और अहिंसक मित्रदेव के सुख हमें प्राप्त हों ॥३॥ युवाभ्यां मित्रावरुणोपमं धेयामृचा । यद्ध क्षये मघोनां स्तोतॄणां च स्पूर्धसे ॥४॥ हे मित्र और वरुणदेवो! हम आपके उस धन को धारण करें, जो धनिक स्तोताओं के घर में परस्पर स्पर्धा का कारण बनता हो ॥४॥ आ नो मित्र सुदीतिभिर्वरुणश्च सधस्थ आ । स्वे क्षये मघोनां सखीनां च वृधसे ॥५॥ हे मित्र और वरुणदेवो ! आप दोनों उत्तम तेजों से युक्त होकर हमारे घर आगमन करें। आप निश्चित ही आये और धनिक मित्रों को समृद्धियुक्त करें ॥५॥ युवं नो येषु वरुण क्षत्रं बृहच्च बिभृथः । उरु णो वाजसातये कृतं राये स्वस्तये ॥६॥ हे मित्र और वरुणदेवो! आप यज्ञों में जो अति व्यापक बल धारण करते हैं, उस बल से हमारे अन्न, धन और कल्याण में वृद्धि करें ॥६॥ उच्छन्त्यां मे यजता देवक्षत्रे रुशगवि । सुतं सोमं न हस्तिभिरा पद्भिर्धावतं नरा बिभ्रतावर्चनानसम् ॥७॥ हे मित्र और वरुणदेवों ! आप नेतृत्वकर्ता और पूजनीय हैं। उषाकाल में स्वर्णिम रश्मियों के प्रकाशित होने पर उपासकों को दोनों हाथों में धनादि धारण कराते हैं। यज्ञ में हमारे द्वारा अभिषुत सोम को ग्रहण करने के लिए आप शकटरूपी हाथों और चक्ररूपी पैरों वाले रथों से दौड़ते हुए आयें ॥७॥

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