ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३७ ऋषि - कण्वो घौरः देवता- मरुतः । छंद- गायत्री क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् । कण्वा अभि प्र गायत ॥१॥ हे कण्व गोत्रीय ऋषियो ! क्रीड़ा युक्त, बल सम्पन्न, अहिंसक वृत्तियों वाले मरुद्गण रथ पर शोभायमान हैं। आप उनके निमित्त स्तुतिगान करें ॥१॥ ये पृषतीभिऋष्टिभिः साकं वाशीभिरज्ञ्जिभिः । अजायन्त स्वभानवः ॥२॥ ये मरुद्गण स्वदीप्ति से युक्त धब्बों वाले मृगों (वाहनों) सहित और आभूषणों से अलंकृत होकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए हैं॥२॥ इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामञ्चित्रमृज्ञ्जते ॥३॥ मरुद्गणों के हाथों में स्थित चाबुकों से होने वाली ध्वनियाँ हमें सुनाई देती हैं, जैसे वे यहीं हो रही हों। वे ध्वनियाँ संघर्ष के समय असामान्य शक्ति प्रदर्शित करती हैं॥३॥ प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्‌युम्नाय शुष्मिणे । देवत्तं ब्रह्म गायत ॥४॥ (हे याजको ! आप) बल बढ़ाने वाले, शत्रु नाशक, दीप्तिमान् मरुद्गणों की सामर्थ्य और यश का मंत्रों से विशिष्ट गान करें ॥४॥ प्र शंसा गोष्वघ्यं क्रीळं यच्छर्धी मारुतम् । जम्भे रसस्य वावृधे ॥५॥ (हे याजको ! आप) किरणों द्वारा संचरित दिव्य रसों का पर्याप्त सेवन कर बलिष्ठ हुए उन मरुद्गणों के अविनाशी बल की प्रशंसा करें ॥५॥ को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः । यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥६॥ द्युलोक और भूलोक को कम्पित करने वाले हे मरुतो ! आप में वरिष्ठ कौन है ? जो सदा वृक्ष के अग्रभाग को हिलाने के समान शत्रुओं को प्रकम्पित कर दे ॥६॥ नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे । जिहीत पर्वतो गिरिः ॥७॥ हे मरुद्गणो ! आपके प्रचण्ड संघर्षक आवेश से भयभीत मनुष्य सुदृढ़ सहारा हूँढ़ता है, क्योंकि आप बड़े पर्वतों और टीलों को भी कैंपा देते हैं॥७॥ येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वा इव विश्पतिः । भिया यामेषु रेजते ॥८॥ उन मरुद्गणों के आक्रमणकारी बलों से यह पृथ्वी जरा-जीर्ण नृपति की भाँति भयभीत होकर प्रकम्पित हो उठती है ॥८॥ स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरतवे । यत्सीमनु द्विता शवः ॥९॥ इन वीर मरुतों की मातृभूमि आकाश स्थिर है। ये मातृभूमि से पक्षी के वेग के समान निर्बाधित होकर चलते हैं। उनका बल दुगुना होकर व्याप्त होता है ॥९॥ उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञ यातवे ॥१०॥ शब्द नाद करने वाले मरुतों ने यज्ञार्थ जलों को निः सृत किया। प्रवाहित जल का पान करने के लिये भाती हुई गौएँ घुटने तक पानी में जाने के लिए बाध्य होती हैं॥१०॥ त्यं चिद्घा दीर्घ पृथु मिहो नपातममृध्रम् । प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥११॥ विशाल और व्यापक, न बिधे सकने वाले, जल वृष्टि न करने वाले मेघों को भी वीर मरुद्गण अपनी तेजगति से उड़ा ले जाते हैं ॥११॥ मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन । गिरींरचुच्यवीतन ॥१२॥ हे मरुतो ! आप अपने बल से लोगों को विचलित करते हैं, आप पर्वतों को भी विचलित करने में समर्थ हैं॥१२॥ यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना । शृणोति कश्चिदेषाम् ॥१३॥ जिस समय मरुद्गण गमन करते हैं, तब वे मध्य मार्ग में ही परस्पर वार्ता करने लगते हैं। उनके शब्द को भला कौन नहीं सुन लेता है ? (सभी सुन लेते हैं॥१३॥ प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः । तत्रो षु मादयाध्वै ॥१४॥ हे मरुतो ! आप तीव्र वेग वाले वाहन से शीघ्र आएँ। कण्ववंशी आपके सत्कार के लिए उपस्थित हैं। वहाँ आप उत्साह के साथ तृप्ति को प्राप्त हों ॥१४॥ अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् । विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥१५॥ हे मरुतो ! आपकी प्रसन्नता के लिए यह वि- द्रव्य तैयार है। हम सम्पूर्ण आयु सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए आपका स्मरण करते हैं॥१५॥

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