ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १२

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १२ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप, यस्त्वामग्न इनधते यतस्रुक्त्रिस्ते अन्नं कृणवत्सस्मिन्नहन् । स सु द्युम्नैरभ्यस्तु प्रसक्षत्तव क्रत्वा जातवेदश्चिकित्वान् ॥१॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! जो व्यक्ति सुक् (सुवा या इन्द्रियों) को संयमित करके आप (अग्नि या प्राणाग्नि) को प्रदीप्त करते हैं तथा जो नित्य तीनों सवनों में हवि रूप अन्न प्रदान करते हैं, वे इन तुष्टिकारक कार्यों द्वारा आपके तेज को प्राप्त करते हैं। उस तेजस्विता के द्वारा सभी शत्रुओं को परास्त करते हैं ॥१॥ इध्मं यस्ते जभरच्छश्रमाणो महो अग्ने अनीकमा सपर्यन् । स इधानः प्रति दोषामुषासं पुष्यत्रयिं सचते घ्नन्नमित्रान् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप महान् हैं। जो मनुष्य परिश्रमपूर्वक आपके निमित्त समिधाएँ लाते हैं और सभी जगह विद्यमान आपके तेज की उपासना करते हैं, जो प्रातः-सायं आपको प्रज्वलित करते हैं, वे सभी बलशाली होकर अपने रिपुओं का विनाश करते हैं तथा ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं ॥२॥ अग्निरीशे बृहतः क्षत्रियस्याग्निर्वाजस्य परमस्य रायः । दधाति रत्नं विधते यविष्ठो व्यानुषङ्गर्त्याय स्वधावान् ॥३॥ शौर्य एवं पराक्रम के धनी वे अग्निदेव श्रेष्ठ अन्न तथा धनों के स्वामी हैं। अत्यन्त शक्ति तथा धन-धान्य से सम्पन्न अग्निदेव, स्तोताओं को परम ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥३॥ यच्चिद्धि ते पुरुषत्रा यविष्ठाचित्तिभिश्चकृमा कच्चिदागः । कृधी ष्वस्माँ अदितेरनागान्व्येनांसि शिश्रथो विष्वगग्ने ॥४॥ चिरयुवक हे अग्निदेव ! यदि आपके उपासकों के बीच हमने भूलवश कोई पाप किया हो, तो आप हमें उन समस्त पापों से मुक्त करें । सब जगह विद्यमान रहने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारे पापों को शिथिल करें ॥४॥ महश्चिदग्न एनसो अभीक ऊवद्दिवानामुत मर्त्यानाम् । मा ते सखायः सदमिद्रिषाम यच्छा तोकाय तनयाय शं योः ॥५॥ हे अग्निदेव ! हमारे मित्र होने के कारण आप हमें इन्द्र आदि देवताओं अथवा मानवों के प्रति अज्ञानवेश किये गये पापों से दण्डित न करें। आप हमारे पुत्र तथा पौत्रों को हर्ष और आरोग्य प्रदान करें ॥५॥ यथा ह त्यद्वसवो गौर्यं चित्पदि षिताममुञ्चता यजत्राः । एवो ष्वस्मन्मुञ्चता व्यंहः प्र तार्यग्ने प्रतरं न आयुः ॥६॥ हे पूजनीय तथा सबको आश्रय प्रदान करने वाले अग्निदेव ! जिस प्रकार आपने पैर बँधी गौ को छुड़ाया था, उसी प्रकार हमारे पापों से हमें मुक्त करें। हे अग्निदेव! आप हमारी आयु को और भी अधिक बढ़ायें ॥६॥

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